रबी के सीज़न के दौरान देश में मक्का के कुल उत्पादन का 80 फ़ीसदी हिस्सा बिहार से आता है. लेकिन अब हाल यह है कि फ़सल की लागत तक न निकल पाने से निराश किसान मक्का जलाकर अपना विरोध जताने को मजबूर हैं.
मध्य प्रदेश के बाद बीते गुरुवार को बिहार के मक्का किसान भी अपनी फसल की सही कीमत न मिलने के विरोध में उतरे हैं.
कोरोना महामारी के चलते राज्य में धरना या प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिल रही है, ऐसे में अलग-अलग क्षेत्र के किसानों ने अपने घर के आगे ही मक्के का हवन करके अपना विरोध जताया है.
इसके साथ ही, उन्होंने अपनी मांगें भी सरकार के सामने रखी हैं. इनमें मक्के की सरकारी खरीद सुनिश्चित करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानून के दायरे में लाना, भावांतर योजना लागू करना, मक्का आधारित उद्योग की स्थापना और मक्का प्राधिकरण का गठन शामिल है.
बिहार किसान मंच के अध्यक्ष धीरेंद्र सिंह टुडू ने बताया, ‘इस साल (खरीफ सीजन) मक्का के लिए सरकार ने एमएसपी 1,850 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है, लेकिन पूरे देश में मक्का 800 रुपये से लेकर 1,100 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा है. जबकि एक क्विंटल मक्का उत्पादन पर 1,200 लेकर 1,300 रुपये की लागत है.’
उनकी मानें तो पिछले साल मक्के की कीमत कम से कम 1,800 रुपये प्रति क्विंटल मिल रही थी, लेकिन इस साल किसानों को अपनी लागत मिलना भी मुश्किल हो गया है.
इस लागत में जमीन के अलावा उनकी खुद की मेहनत शामिल नहीं हैं. साल 2019-20 के लिए मक्के की एमएसपी 1,760 रुपये तय की गई थी.
वहीं, केंद्र सरकार ने मक्का किसानों की इन चिंताओं को बढ़ाने का एक और काम किया है. बीते मंगलवार को सरकार ने 15 फीसदी की काफी कम आयात शुल्क पर पांच लाख टन मक्का दूसरे देशों से खरीदने का फैसला किया.
इससे पहले आयात शुल्क 50 फीसदी थी. सरकार ने इस फैसले के पीछे की वजह पॉल्ट्री और स्टार्च सेक्टर की जरूरतों को पूरा करना बताया है.
सरकार का यह फैसला दो मायनों में चौंकाने वाला है. फिलहाल मक्के की कम कीमत के पीछे मांग की कमी को बड़ी वजह माना जा रहा है.
बताया जाता है कि कोरोना महामारी के चलते पॉल्ट्री इंडस्ट्रीज को काफी बड़ा धक्का लगा है. इसके चलते इस उद्योग में मक्के की मांग काफी कम हो गई है.
आम तौर पर पॉल्ट्री में मुर्गों को खिलाने के लिए जिस खाने का इस्तेमाल किया जाता है, उसमें मक्का का काफी इस्तेमाल होता है.
वहीं, एक ओर देश के मक्का किसान अपनी फसल की सही कीमत हासिल करने को लेकर अब तक जूझ रहे हैं. इस स्थिति में कम आयात दर पर बड़ी मात्रा में आयात करने से मक्के की कीमत बढ़ने की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है.
धीरेंद्र सिंह टूडू कहते हैं, ‘एक ओर नरेंद्र मोदी जी कहते हैं कि हम आत्मनिर्भर भारत बना रहे हैं. किसान को आत्मनिर्भर हम करने जा रहे हैं. 1,850 एमएसपी क्यों निर्धारित किया जब किसान अपना मक्का 1,000 रुपये पर बेच रहा हो. फिर आत्मनिर्भर भारत कैसा! दूसरी ओर, सरकार विदेश से पांच लाख टन मक्का सबसे कम आयात शुल्क यानी केवल 15 फीसदी पर मंगा रही है, जबकि मध्य प्रदेश और बिहार में किसानों का मक्का सड़ रहा है.’
बिहार की गिनती देश के शीर्ष मक्का उत्पादक राज्यों में होती है. वहीं, रबी मौसम के दौरान पूरे देश में कुल मक्का उत्पादन में बिहार की हिस्सेदारी अकेले 80 फीसदी है.
रबी सीजन के दौरान पूरे देश में 60 से 70 लाख टन मक्का का उत्पादन होता है. दूसरी ओर, राज्य के 38 में से 24 जिलों में ऐसे हैं, जहां प्रति हेक्टेयर 30 क्विंटल से अधिक की पैदावार होती है. इनमें अधिकांश कोसी-सीमांचल क्षेत्र के जिले हैं.
हालांकि, इसके बावजूद राज्य में मक्का प्रसंस्करण संबंधित उद्योगों की भारी कमी है. इसका नुकसान राज्य के किसानों को उठाना पड़ता है.
धीरेंद्र सिंह टुडू इस बारे में कहते हैं, ‘मक्के का आम इस्तेमाल (अनाज के रूप में) नहीं किया जाता है. इससे कई सारे प्रोडक्ट तैयार किए जाते हैं, लेकिन इसके लिए फैक्ट्रियां बिहार में नहीं हैं. सरकार अब तक एक भी जिले में मक्का आधारित उद्योग नहीं लगा पाई. ये राज्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.’
बिहार के मक्का किसानों के लिए समस्या केवल फसल की सही कीमत पर बिक्री तक ही सीमित नहीं है. राज्य के कई मक्का किसानों से बातचीत में पाया कि इस साल किसानों की समस्या मक्के खेती के साथ ही शुरू हो गई थी.
खराब बीज, कीटों का हमला, आंधी-तूफान और बेमौसम भारी बारिश ने राज्य के किसानों की समस्याओं को बढ़ाने का काम किया है.
मक्का का सबसे अधिक उत्पादन करने वाले जिलों में शामिल अररिया के मानिकपुर में रहने वाले 60 वर्षीय शिवानंद यादव पिछले आठ साल से आठ एकड़ जमीन पर मक्के की खेती कर रहे हैं.
उनसे मुलाकात दो लेन सड़क पर हुई थी, इस सड़क के आधे हिस्से पर शिवानंद यादव मक्के को पिछले एक हफ्ते से सुखा रहे थेथे .
वे बताते हैं कि मक्का को सुखाने में आम तौर पर तीन दिन का समय लगता है, लेकिन इस बार बारिश काफी परेशान कर रही है.
किसानों को बारिश ने केवल मक्का सुखाने के दौरान ही परेशान नहीं किया है बल्कि, आंधी-तूफान के साथ बेमौसम बारिश ने इस साल फसलों को काफी नुकसान पहुंचाया है. राज्य में जून महीने में सामान्य से अधिक बारिश दर्ज की गई है.
सुपौल के मक्का किसान धनंजय साह ने बताया कि इस साल उनकी एक तिहाई फसल आंधी और तूफान के भेंट चढ़ गई. इसके अलावा वे मक्के के पौधों में लगने वाले कीट की समस्या की बात भी करते हैं.
धनंजय कहते हैं, ‘इस साल पुराने कीड़ों के साथ कुछ नए कीड़ों ने भी फसल को काफी नुकसान पहुंचाया है. इसके चलते कीटनाशकों पर पिछले साल के मुकाबले अधिक खर्च करना पड़ा.’
मानिकपुर के किसान विशुनदेव मंडल की मानें तो इस मक्के के पौधे में लगने वाले नए कीटों ने लागत को बढ़ाने का काम किया है.
उन्होंने बताया, ‘पिछले साल 300 रुपये के कीटनाशक से काम हो जाता था, लेकिन इस साल नए कीड़ों को मारने के लिए 300 रुपये की जगह 1000 रुपये तक खर्च करना पड़ा है.’
वहीं, शिवानंद यादव इस बारे में कहते हैं, ‘पौधों में स्प्रे (कीटनाशक) मार-मारकर परेशान हो गए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. आखिर में गुल (मुंह धोने में इस्तेमाल होने वाला एक तरह का पाउडर) का स्प्रे किए तो फायदा हुआ.’
इस साल इन वजहों से मक्का उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई है. विशुनदेव मंडल के अनुसार तो पिछले साल उन्हें एक बीघा में करीब 6.5 क्विंटल मक्का हुआ था, इस साल यह घटकर करीब पांच क्विंटल ही रह गया.
वहीं, मक्का किसानों को इन चीजों के अलावा अन्य समस्याओं से भी जूझना पड़ रहा है. इनमें मक्के की फसल को सुखाना शामिल है.
आम तौर पर राज्य में किसान मक्के को सड़क के आधे हिस्से में सुखाते हुए दिखते हैं. यह स्थिति गांव की सड़कों से लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच) से लेकर तक है.
इससे न केवल गाड़ी चालकों को परेशानी का सामना करना होता है बल्कि किसानों को किसी दुर्घटना का शिकार होने का डर होता है.
धनंजय साह कहते हैं, ‘सड़क पर मक्का सुखाना खतरे की घंटी है, इसमें एक्सीडेंट होने का डर रहता है. कम से कम आधा रोड छेकेंगे तब ही मक्का का दाना सूखेगा. रोड पर दोनों ओर से गाड़ियां आती-जाती हैं.’
आम तौर पर बिहार में मक्का किसान खेत में फसल तैयार होने के बाद इसे सड़क पर ही सुखाते हैं. अधिकांश किसानों का कहना है कि उनके पास इसे सुखाने के लिए जगह नहीं है.
जब मक्का बिकने के लिए तैयार हो जाता है तो व्यापारी सड़क से ही इसकी खरीदारी कर लेते हैं. किसानों को मक्का को सड़क पर व्यापारी के हाथों औने-पौने दामों पर इसलिए भी बेचने को मजबूर होना पड़ता है क्योंकि उनके पास अनाज रखने की कोई व्यवस्था नहीं होती है.
उधर, पहली बार मक्के की खेती करने वाले प्रणव कुमार भारती के मुताबिक, ‘सड़क पर मक्का सुखाने के फायदे भी हैं. स्थानीय व्यापारी सड़क पर ही मक्के को देखकर रेट तय कर खरीदारी कर लेते हैं. साथ ही, वे खुद अपने मजदूर और गाड़ी के साथ आते हैं. इससे किसान बहुत सारी परेशानियों से बच जाते हैं.’
अमूमन अगर कोई किसान मंडी या बाजार में जाकर मक्का बेचना चाहेगा, तो इसके लिए मक्के की पैंकिंग से लेकर ढुलाई तक का सारा खर्च उसे ही ढोना पड़ता है.
स्नातक तक पढ़ाई करने वाले प्रणव से जब पूछा कि पहली बार में ही उन्हें नुकसान उठाना पड़ा है, क्या वे आगे फिर मक्के की खेती करेंगे. इस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘दूसरी बार भी मक्का लगाएंगे और ऑप्शन क्या है! इतनी जल्दी किसान का हिम्मत टूटता भी नहीं है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)