देशभर में लाइब्रेरी के घटते चलन के बीच उस लाइब्रेरी को याद करना बेहद अहम हो जाता है, जिसे आम लोगों ने उन्नीसवीं सदी के आख़िर में बिहार के एक छोटे-से क़स्बे में शुरू किया था.
आजकल हिंदुस्तान में बहुत-से पुस्तकालय, खास तौर से उर्दू के, खस्ताहाल होते जा रहे हैं, लेकिन इसी देश में एक ऐसा ज़माना हुआ जब न सिर्फ बड़े शहरों में बल्कि छोटे कस्बों में भी किताबें बड़े शौक से पढ़ी-लिखी और इकट्ठी की जाती थीं.
ऐसे एक पुस्तकालय को लेकर मैंने अंग्रेज़ी में एक शोधपत्र लिखा है जिसका शीर्षक ‘बाउंड फॉर होम: बुक्स एंड कम्युनिटी इन अ बिहारी क़स्बा है और जो साउथ एशिया: जर्नल ऑफ साउथ एशियन स्टडीज में छापा गया है.
इस जर्नल में दक्षिण एशिया के अलग-अलग पुस्तकालयों के बारे में कई और शोधपत्र छपे हैं. मैं अपने शोधपत्र का एक छोटा-सा हिस्सा साझा करना चाहता हूं.
यह बिहार के एक कस्बाती पुस्तकालय के बारे में है, जो शायद इसे जानने वालों की याददाश्त में भी बिसरा गया होगा.
बिहार शरीफ से 14 किलोमीटर दूर देसना नाम का एक कस्बा है. उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दिनों में इस कस्बे में कुछ नौजवानों ने एक संस्था की स्थापना करके उसका नाम अंजुमनुल इस्लाह रखा.
लगभग एक हजार की आबादी के इस दूर इस कस्बे में, जहां तक न रेल पहुंचती थी न बस, इस अंजुमन ने एक ऐसा पुस्तकालय का निर्माण करके उसे किताबों से भरा, जो मौलवी अब्दुल हक के मुताबिक ‘एक ऐसा अच्छा कुतुबखाना है, जो बड़े-बड़े शहरों में भी नहीं.’
यह कैसे संभव हुआ और इसके कैसे नतीजे निकले, यह मेरे शोध पत्र का विषय है.
अंजुमनुल इस्लाह की शुरुआती दिनों में उस में शायद कुछ खास नहीं था. यानी सन् 1899 में एक-आध उपन्यास और किस्से की किताबें इकट्ठा करके कुछ दोस्तों ने उनको एक अलमारी में रखीं, जो अब्दुल हकीम नाम के एक मेंबर के घर में थी.
मगर इस मामूली शुरुआत के बाद देसना के बहुतेरे लोग, जवान और बुज़ुर्ग अंजुमनुल इस्लाह के काम में जुट गए और नतीजा ये हुआ कि 1904 तक पुस्तकालय में कोई आठ सौ किताबों के अलावा काफी पत्रिकाएं और अखबार जमा किए गए थे.
30 के दशक तक, जब तक पुस्तकालय के लिए एक इमारत बनवाई गई थी, यह तादाद लगभग 4,000 हो गई थी और 1960 तक जब सारी किताबें पटना के खुदाबख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी भेजी गईं, तो उनकी संख्या उस से दोगुनी हो गई थी.
इन जिल्दों में अधिकतर उर्दू में छपी हुई किताबें थीं, मगर इनके अलावा अरबी, फारसी, अंग्रेज़ी और हिंदी में छपी हुई किताबें भी थीं और कोई डेढ़ सौ पांडुलिपियां.
अंजुमनुल इस्लाह के पुस्तकालय की एक खास बात यह थी कि जबकि उस जमाने में आम तौर से पुस्तकालय सिर्फ किताबें जमा किया करते थे, लेकिन इस अंजुमन ने किताबों के साथ साथ पत्रिकाओं और अखबारों का बहुत बड़ा ज़खीरा इकट्ठा किया, जिसमें उर्दू के बहुत सारे महत्वपूर्ण पत्रिकाओं की संपूर्ण फाइल मौजूद थीं.
लाइब्रेरी की किताबों को छोड़कर एक और बात जो काबिल-ए-ज़िक्र है वो है इन किताबों को एकत्र करने का तरीका. उस दौर के दूसरे कस्बों के रहने वालों की तरह देसनवी भी हिंदुस्तान के अलग-अलग शहरों में काम के सिलसिले में बस गए थे.
इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए लाइब्रेरी के अध्यक्ष अब्दुल हकीम ने एक तरकीब सोची. देसना में बैठे हुए जब कोई किताब उनको दिलचस्प लगी, तो वह प्रकाशक को लिखा करता था कि फलां शख्स के पास वी.पी की जाए और उसकी यह जिम्मेदारी थी कि अगली बार जब देसना आए तो किताब लेकर आए.
शहाबुद्दीन देसनवी के मुताबिक,
‘इस तरीका-ए-कार (प्रक्रिया) का दिलचस्प नतीजा कभी इस तरह ज़ुहूर में (प्रत्यक्ष) आता कि छुट्टियों में कोई पेशकार साहब बगल में फलसफा (दर्शनशास्त्र) की किताब दबाए हुए या पुलिस के हवालदार साहब तारीख-ए-हिस्पानिया (स्पेन की तारीख) लिए हुए या वकील साहब तारीखुल अतिब्बा (हकीमों की तारीख) लेकर लाइब्रेरी में दाखिल होते दिखाई देते.
ये किताबें रजिस्टर में दर्ज हो जातीं और कैफियत (ब्योरे) के कॉलम में लिखा जाता ‘अतिया मिंजानिब…’ (दानकर्ता का नाम…). बस यही दो अल्फाज इस किताब की कीमत थी जो उसके खरीदने और लाने वाले को लाइब्रेरी की तरफ से अदा की जाती.
यह नुस्खा आजमूदा (आज़माया हुआ) था जो कभी फेल नहीं हुआ क्योंकि ‘हकीम चचा’ या ‘हकीम भाई’ के इस हुक्म को मानने से इनकार करना, देसना को वतन मानने से इनकार कर देने के मुतरादिफ (पर्याय) समझा जाता था.’
देसनवियों के लिए यह शब्द ‘वतन’ काफी महत्वपूर्ण होता था और लाइब्रेरी उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा था.
उनका कस्बा न सिर्फ गांव था बल्कि बहुत गहरी समाजी संबंधों का मर्कज भी था, जो आज भी हिंदुस्तान, पाकिस्तान और विदेश में फैले हुए देसनवी कायम रखते हैं.
देसना कई मशहूर विद्वान का वतन था मसलन सय्यद सुलेमान नदवी, शहाबुद्दीन देसनवी, नजीब अशरफ नदवी, अब्दुल कवी देसनवी और सबाहुद्दीन अब्दुर रहमान.
लेकिन ऐसे जाने-पहचाने लोगों के अलावा और भी बहुत ऐसे लोग थे जिन्हें हम ‘ मामूली बुद्धिजीवी’ कह सकते हैं यानी ऐसे बुद्धिजीवी जो मशहूर न होते हुए भी ज्ञान और साहित्य के चाहने वाले थे.
बंटवारे के बाद देसना के बहुत लोग पाकिस्तान चले गए. जो हिंदुस्तान में रहे वे फ़िक्रमंद होने लगे कि पुस्तकालय का भविष्य क्या हो.
नतीजन 1957 में जब ज़ाकिर हुसैन बिहार का गवर्नर हुए, तो शहाबुद्दीन देसनवी, जो उस वक्त बंबई में रहते थे, ने पुस्तकालय के लिए सहारा मांगने की गरज से उनको खत लिखना शुरू किया.
आखिरकार 1960 में 16 बैल गाड़ियों में पुस्तकालय की 7,914 किताबें लादी गईं और पटना के खुदाबख्श लाइब्रेरी लाई गईं, जहां वे आज भी सुरक्षित हैं.
(डेविड बोईक अमेरिका की नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं.)