मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार बनने के तीन महीने बाद हुए मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर भाजपा के कई नेता अपनी नाराज़गी जता चुके हैं. जानकारों का कहना है कि यह फ़ैसला उपचुनावों को ध्यान में रखते हुए लिया गया है. नतीजों के बाद की परिस्थितियों में मंत्रिमंडल में फिर से फेरबदल होगा.
मध्य प्रदेश में आखिरकार शिवराज सिंह चौहान सरकार का बहुप्रतीक्षित मंत्रिमंडल विस्तार हो गया. गुरुवार को कुल 28 नामों को शपथ दिलवाई गई है जिनमें 20 कैबिनेट और 8 राज्य मंत्री बने हैं.
इस तरह शिवराज सरकार में कुल मंत्रियों की संख्या (शिवराज के अतिरिक्त) अब 33 हो गई है. पांच कैबिनेट मंत्री शिवराज सरकार में पहले से ही काम कर रहे थे. अब सरकार में कुल 25 कैबिनेट मंत्री और 8 राज्य मंत्री हैं.
गौरतलब है कि राज्य में कांग्रेस की सरकार गिराकर भाजपा की सरकार बनवाने में ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके साथ कांग्रेस से बगावत करके भाजपा में आए 22 विधायकों का विशेष योगदान रहा था.
इसलिए भाजपा ने उनके प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुए मंत्रिमंडल विस्तार में 28 में से कुल 12 मंत्री बागी विधायकों में से बनाए हैं. इससे पहले 21 अप्रैल को पांच मंत्रियों के साथ शिवराज सिंह चौहान ने जो मंत्रिमंडल का गठन किया था, उसमें भी 2 बागी विधायकों के नाम थे.
इस तरह शिवराज मंत्रिमंडल के 33 में से 14 मंत्री कांग्रेस के 22 बागी विधायकों में से हैं. जाहिर है कि इस कारण भाजपा के कई दिग्गज नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल सकी.
इनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते के समर्थक नेता भी शामिल हैं.
मंत्रिमंडल विस्तार में पूरा फोकस राज्य की 24 सीटों पर होने वाले विधानसभा उपचुनावों पर किया गया है. इसे ही ध्यान में रखकर छह अंचलों वाले मप्र में क्षेत्रीय संतुलन को दरकिनार करके अकेले ग्वालियर-चंबल अंचल से 12 मंत्री बनाए गए हैं.
इनमें सात कैबिनेट और पांच राज्यमंत्री हैं. उपचुनावों वाली 24 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल की ही हैं. मंत्रिमंडल में दूसरे नंबर पर मालवा-निमाड़ अंचल को प्रतिनिधित्व मिला है.
इस क्षेत्र से 9 कैबिनेट और एक राज्य मंत्री सहित कुल 10 मंत्री हैं. इस अंचल की भी पांच सीटों पर उपचुनाव हैं. बुंदेलखंड अंचल से चार कैबिनेट मंत्री बनाए गए हैं. यहां भी एक सीट पर उपचुनाव है.
विंध्य से तीन मंत्री (दो कैबिनेट और एक राज्यमंत्री) तथा मध्यांचल से तीन कैबिनेट मंत्री बनाए हैं. यहां भी एक-एक सीट पर उपचुनाव है.
महाकौशल क्षेत्र, जहां मालवा-निमाड़ के बाद प्रदेश की सबसे अधिक विधानसभा सीटें हैं और जिसे पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का क्षेत्र माना जाता है, वहां से केवल एक राज्यमंत्री बनाया गया है.
ऐसा इसलिए क्योंकि महाकौशल में कोई भी उपचुनाव नहीं है. एक राज्यमंत्री बनाकर केवल औपचारिकता पूरी की है. अत: स्पष्ट है कि मंत्रिमंडल विस्तार उपचुनाव को देखते हुए किया गया है.
जिस क्षेत्र में अधिक सीटों पर चुनाव हैं, वहां अधिक मंत्री बनाए हैं. नतीजतन 34 सीटों वाले ग्वालियर-चंबल से तो 12 मंत्री बना दिए क्योंकि यहां सबसे ज्यादा 16 सीटों पर उपचुनाव है.
जबकि 56 सीटों वाले मालवा से केवल 10, 38 सीटों वाले महाकौशल से केवल एक, 36 सीटों वाले मध्यांचल और 30 सीटों वाले विंध्यांचल से केवल 3-3 मंत्री बनाए हैं.
26 सीटों वाले बुंदेलखंड से चार मंत्री हैं तो उसके पीछे पार्टी की मजबूरी रही क्योंकि सिंधिया गुट के गोविंद सिंह राजपूत जो कि कमलनाथ सरकार में मंत्री थे, उन्हें मंत्री बनाना जरूरी था.
साथ ही कांग्रेस के तख्तापलट में सक्रिय भूमिका निभाने वाले भूपेंद्र सिंह को भी इनाम देना जरूरी थी. इसके अलावा पूर्व नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था.
बुंदेलखंड से एक अन्य नाम बृजेंद्र प्रताप सिंह का है. ये सभी पहले भी मंत्री रह चुके हैं.
मंत्रिमंडल के गठन में उपचुनावों को कितना अधिक महत्व मिला, इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ग्वालियर-चंबल के 12 मंत्रियों में मूल भाजपाई केवल 4 हैं, बाकी 8 सिंधिया समर्थक बागी हैं.
मंत्रिमंडल को गुटीय संदर्भों में देखें तो भी सिंधिया सबसे अधिक लाभ में रहे. जबकि सबसे अधिक नुकसान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को ही उठाना पड़ा है.
उनके खास माने जाने वाले सीतासरण शर्मा, राजेंद्र शुक्ला, गौरीशंकर बिसेन, रामपाल सिंह तक को वे मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करा सके जबकि ये सभी शिवराज के पिछले कार्यकालों में अहम विभाग संभालते रहे हैं.
शिवराज के कोटे से केवल चार नामों को मंत्रिमंडल में जगह मिली है. जबकि उनके पिछले कार्यकालों में मंत्रिमंडल के गठन में उनकी ही मर्जी चलती थी. इसलिए इसके भी मायने निकाले जा रहे हैं.
भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘सबसे बड़ी बात यह है कि शिवराज के पर कतरे गए हैं. अब तक वे 13 सालों तक अपने चहेतों को मंत्री बनाते रहे क्योंकि विपक्ष का खौफ नहीं थी. छोटा विपक्ष रहता था. अभी कांग्रेस के विधायकों की संख्या 92 है, जो और बढ़ सकती है, इसलिए शिवराज को समझौते करने पड़े हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘अब शिवराज के लिए गोपाल भार्गव, यशोधरा राजे सिंधिया, नरोत्तम मिश्रा या ऐसे ही दूसरे मंत्रियों को अपने मुताबिक चलाने में बड़ी मुश्किल होगी. कुल मिलाकर देखें तो शिवराज कमजोर हो गए. मंत्रिमंडल पर एक महीने तक मंथन चला, खूब माथापच्ची की लेकिन अंत में शिवराज को कहना पड़ा कि मैं विष पी रहा हूं.’
गौरतलब है कि मंत्रिमंडल विस्तार से एक दिन पहले शिवराज इस संबंध में कहते नजर आए थे, ‘मंथन से तो अमृत ही निकलता, विष तो शिव पीते हैं.’
उस समय शिवराज के इन शब्दों के यही मायने निकाले गए कि विस्तार की प्रक्रिया में उनकी पसंद को तवज्जो नहीं दी जा रही है और हुआ भी ऐसा ही. इसलिए अब पार्टी में शिवराज के कद पर भी प्रश्न उठ रहे हैं.
संघ की विचारधारा से इत्तेफाक रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘ये बात सही है कि शिवराज की एकतरफा नहीं चली लेकिन यह उनके प्रभाव और कद को मापने का पैमाना नहीं हो सकता. अगर वे प्रभावहीन होते तो फिर से मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाते.’
वे आगे कहते हैं, ‘हालांकि शिवराज का कद अब वो नहीं है जो पिछले कार्यकाल में था. 2018 के विधानसभा चुनाव की हार से फर्क तो पड़ा है और ये बात वे भी जानते हैं. तब संगठन के मना करने के बावजूद उन्होंने अपने भरोसेमंदों को टिकट दिया. जिनमें कई हार गए. अब ऐसे निर्णयों में उन्हें तालमेल बनाकर चलना ही होगा, उनकी सब बातें पूरी नहीं होंगी.’
बता दें कि इससे पहले 21 अप्रैल को जो 5 मंत्री बनाए गए थे, उनमें भी शिवराज की पसंद के किसी नेता को जगह नहीं मिली थी.
उल्टा, उन कमल पटेल को कृषि मंत्री बना दिया जो शिवराज के पिछले कार्यकाल में अवैध खनन को लेकर उनके खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे और शिवराज पर गंभीर आरोप लगा चुके थे.
इसलिए यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि पार्टी अब शिवराज के आगे भी देखने लगी है. बहरहाल, सिर्फ शिवराज ही नहीं, मंत्रिमंडल के इस विस्तार में राज्य में पार्टी के अन्य दिग्गजों की भी नहीं चली है.
राष्ट्रीय महासचिव और इंदौर के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय लाख कोशिशों के बाद भी अपने खास रमेश मेंदौला तक को मंत्री नहीं बनवा सके.
वहीं, केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल के भाई जालम सिंह पटेल भी मंत्री बनने की कतार में थे लेकिन पार्टी के सामने प्रहलाद पटेल की भी नहीं चली.
इसी तरह केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के भी केवल एक समर्थक (भारत सिंह कुशवाह) को मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री के तौर पर जगह मिल सकी. वो भी इसलिए कि वे कुशवाह थे और जातिगत समीकरण उनके साथ थे. इसी तरह केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत को भी निराशा हाथ लगी.
उमा भारती ने तो मंत्रिमंडल विस्तार पर अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर करते हुए भाजपा प्रदेशाध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा और प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे तक को पत्र लिख डाला और कहा कि उनके सहयोगियों को मंत्रिमंडल में तवज्जो नहीं दी गई, साथ ही जातीय और क्षेत्रीय संतुलन का ध्यान नहीं रखा गया.
जहां तक जातीय संतुलन की बात है तो पचास फीसदी सामान्य श्रेणी के मंत्री बनाए गए हैं. बाकी अनुसूचित जाति (4), अनुसूचित जनजाति (4) और ओबीसी (9) हैं.
17 सामान्य श्रेणी के मंत्रियों में दो अल्पसंख्यकों (ओमप्रकाश सकलेचा और हरदीप सिंह डंग) को भी जगह दी गई है.
उमा भारती का इशारा मंत्रिमंडल में उनकी लोधी समाज का प्रतिनिधित्व न होने को लेकर है, लेकिन भाजपा ने वैश्य, सिंधी, जाटव आदि समाजों को भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया.
वह भी इस तथ्य के बावजूद कि ग्वालियर-चंबल में जाटव दलित सबसे अधिक हैं. साथ ही, ब्राह्मणों को मंत्रिमंडल में अधिक मौके देने वाली भाजपा ने इस बार केवल तीन ब्राह्मणों को मंत्रिमंडल में शामिल किया है.
ब्राह्मणों की जगह क्षत्रिय समाज (9) को अधिक तवज्जो दी है. वहीं, क्षेत्रीय असंतुलन के मामले में यह भी जोड़ा जा सकता है कि अकेले सागर जिले से तीन कैबिनेट मंत्री बना दिए गए हैं.
बहरहाल, गुरुवार को शपथ लेने वाले 28 मंत्रियों में से 16 मूल रूप से भाजपाई विधायक रहे, जिनमें से आधे से अधिक प्रदेशाध्यक्ष, पार्टी संगठन और संघ की पसंद के रहे.
यशोधरा राजे सिंधिया को ज्योतिरादित्य की बुआ होने और पार्टी में अपने कद का लाभ मिला. इसी तरह गोपाल भार्गव को भी उनकी वरिष्ठता के आधार पर चुना गया.
हरसूद विधायक विजय शाह अपनी वरिष्ठता और भाजपा का आदिवासी चेहरा होने के चलते मंत्रिमंडल में जगह बना सके. शाह के मामले में यह भी था कि उन्होंने कांग्रेस की सरकार में सीधे मुख्यमंत्री कमलनाथ से लोहा लिया था.
ये तीनों पहले भी मंत्री रह चुके थे. इसी तर्ज पर अरविंद भदौरिया को कांग्रेस सरकार गिराने में सक्रिय भूमिका निभाने का इनाम मिला और वे पहली बार मंत्री बने.
विश्वास सारंग, भूपेंद्र सिंह, जगदीश देवड़ा, बृजेंद्र प्रताप सिंह शिवराज के करीबी माने जाते हैं और पहले भी मंत्री रहे हैं, जबकि भारत सिंह कुशवाह नरेंद्र सिंह तोमर के करीबी हैं और पहली बार मंत्री बने.
इंदर सिंह परमार, मोहन यादव, ऊषा ठाकुर, रामखिलावन पटेल, ओमप्रकाश सकलेचा, रामकिशोर कांवरे, प्रेमसिंह पटेल सभी पहली बार मंत्री बने हैं और आरएसएस व संगठन की पसंद से बने हैं.
इनमें रामखिलावन पटेल को विंध्य क्षेत्र में सांसद गणेश सिंह और पूर्व मंत्री राजेंद्र शुक्ला, जो इस बार भी मंत्री बनने के प्रबल दावेदार थे, के बीच की लड़ाई का फायदा मिला.
तो कुल मिलाकर 16 मूल भाजपाई मंत्रियों में 7 पुराने और 9 नये चेहरे हैं जो पहली बार मंत्री बने हैं. वहीं, 6 बागियों को भी पहली बार मंत्री बनने का मौका मिला है.
इस तरह पहली बार मंत्री बनने वालों की कुल संख्या 15 हैं. संयोगवश भाजपा के भी 15 ही पूर्व मंत्री हैं जो कि फिर से मंत्री नहीं बन सके.
स्वाभाविक है कि इससे विरोध को भी जन्म मिला है. उमा भारती तो अपनी नाराजगी जता ही चुकी हैं. मंत्रिमंडल की घोषणा से पहले राजेंद्र शुक्ला को मनाने के लिए भी मुख्यमंत्री और संगठन को उनके साथ बैठक करनी पड़ी.
इससे पहले राज्यसभा चुनावों में एक और पूर्व मंत्री नागेंद्र सिंह अपना वोट निरस्त करवा चुके थे. इसे भी तब उनके मंत्री न बनाए जाने की संभावना से जोड़कर देखा गया था.
वहीं, पूर्व मंत्री सुरेंद्र पटवा ने भी अपनी नाराजगी जताई है. हालांकि, एक अन्य पूर्व मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने जरूर सरकार और पार्टी के समर्थन में बयान दिया है.
नाराजगी उनमें भी है जो पहली बार मंत्री बनने का सपना देख रहे थे. लेकिन सिंधिया समर्थकों को स्थापित करने की कवायद में पीछे छूट गए.
जावरा विधायक राजेंद्र पांडे के समर्थकों ने सोशल मीडिया पर इस्तीफे दिए हैं, मंदसौर विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया के समर्थकों ने धरना दिया तो देवास में गायत्री राजे पवार के समर्थकों ने भी प्रदर्शन किया.
इंदौर में रमेश मैंदोला के एक समर्थक ने तो प्रदर्शन के दौरान आत्मदाह तक की कोशिश की. गौरतलब है कि 2018 के विधानसभा चुनावों से पहले भी टिकट आवंटन के मसले पर भाजपा में ऐसे ही विरोध के स्वर फूटे थे जिसका खामियाजा उसे सरकार गंवाकर उठाना पड़ा था.
तो क्या यह नाराजगी फिर भाजपा की संभावनाओं पर आघात करेगी? इस पर लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘इस बार हालात अलग हैं. जहां विरोध के स्वर फूट रहे हैं, वहां चुनाव नहीं होने हैं और जहां उपचुनाव हैं, वहां तो भाजपा ने मंत्री पद थोक में बांटे हैं.’
लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उपचुनाव की हर सीट के लिए भाजपा ने एक-एक प्रभारी नियुक्त किया है. इनमें चार सीटें ऐसी हैं जिनका प्रभार उन नेताओं के पास है जो मंत्री बनने की दौड़ में थे.
ग्वालियर पूर्व सीट का प्रभार गौरीशंकर बिसेन के पास है. पूर्व मंत्री संजय पाठक और राजेंद्र शुक्ला को अनूपपुर सीट जिताकर देनी है. सांची सीट का प्रभार रामपाल सिंह और सांवेर का प्रभार रमेश मैंदोला संभाल रहे हैं.
राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है. उसे बहुमत साबित करने के लिए 24 में से केवल 9 सीटें चाहिए जीतनी है. इसलिए ये नेता पूरा जोर लगाएंगे कि कुछ सिंधिया समर्थक हार जाएं ताकि मंत्रियों की जो जगह खाली हों, वहां इनके लिए जगह बने.’
वे आगे कहते हैं, ‘आप स्वयं देखें कि कैलाश विजयवर्गीय को मालवा की पांच सीटों का प्रभार दिया है और उनके सगे रमेश मैंदोला को ही मंत्रिमंडल में नहीं लिया जबकि उनकी कट्टर विरोधी संघ समर्थित ऊषा ठाकुर को ले लिया. जाहिर सी बात है कि विजयवर्गीय वहां नुकसान पहुंचाएंगे. इस मामले में उनका तो पुराना इतिहास भी रहा है.’
गौरतलब है कि कुछ दिन पहले ही बदनावर से पूर्व भाजपा विधायक भंवर सिंह शेखावत ने भी कैलाश विजयवर्गीय पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने 2018 में 10-12 बागियों को भाजपा के अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़वाकर भाजपा को हरवाया था. अब वे फिर से शिवराज सरकार को अस्थिर करने के कोशिश कर रहे हैं.
उनके आरोपों का आधार यह था कि शेखावत विजयवर्गीय समर्थक बागी के निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरने के चलते चुनाव हार गए थे. इसके बाद भी वह बागी विजयवर्गीय की बदौलत पार्टी में वापस आ गया.
हालांकि लोकेंद्र सिंह का मानना है कि भाजपा के नेता चाहकर भी ऐसी गलती नहीं करेंगे क्योंकि इस स्थिति में यदि सरकार गिरती है तो नुकसान उनका ही है.
लोकेंद्र कहते हैं, ‘सरकार रही तो कैलाश के बेटे आकाश विजवर्गीय के लिए भी आगे संभावनाएं बनेंगी. सरकार जाने पर कोई फायदा नहीं होगा इसलिए विजयवर्गीय या अन्य नेता ऐसी भूल नहीं करेंगे.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘साथ ही, सभी के सामने 2018 के विधानसभा चुनावों में भितरघात करने वाले नेताओं का क्या हश्र हुआ, ये भी उदाहरण हैं. जैसे कि सरताज सिंह कांग्रेस में गए, चुनाव हार गए और हाशिए पर चले गए, फिर वापस भाजपा में आना पड़ा. रामकृष्ण कुसुमारिया के साथ भी यही हुआ. अन्य दूसरे भितरघातियों को भी न जनता पूछ रही है और न पार्टी.’
वहीं, अगर मंत्रिमंडल विस्तार को सिंधिया के नजरिए से देखें तो उनके साथ बगावत करके भाजपा में 22 विधायक आए थे.
इनमें 19 उनके समर्थक थे और 3 इसलिए कांग्रेस छोड़ आए क्योंकि उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया था. वे तीनों कैबिनेट मंत्री बन गए हैं.
19 सिंधिया समर्थकों में से 7 कैबिनेट और 4 राज्यमंत्री बन गए हैं जिसके चलते वर्तमान में मंत्रिमंडल में सिंधिया का दबदबा अन्य किसी भी गुट से कई गुना अधिक है.
हालांकि, जानकार मानते हैं कि यह दबदबा केवल उपचुनाव तक कायम रहेगा, क्योंकि सरकार बचाना भाजपा की मजबूरी है और उसके लिए सिंधिया व उनके समर्थकों को जनता के सामने मजबूती से पेश करना जरूरी है.
उपचुनाव के बाद की परिस्थितियों में मंत्रिमंडल में फिर से फेरबदल होगा. बहरहाल, इसी मजबूरी के चलते भाजपा ने सिंधिया खेमे से तीन मंत्री (सुरेश धाकड़, गिर्राज दंडोतिया और ओपीएस भदौरिया) तो ऐसे बनाए हैं जो कि पहली बार के विधायक हैं.
जबकि पिछली कांग्रेस सरकार में स्पष्ट नियम था कि कम से कम दो बार के विधायक को ही मंत्री बनाया जाएगा. हालांकि, मंत्री बने मूल भाजपाईयों में से कोई भी पहली बार का विधायक नहीं है. लेकिन सिंधिया के सामने पार्टी को घुटने टेकने पड़े हैं.
राजधानी भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘भाजपा ने एक तरह से नया प्रयोग किया है. 10-15 सालों तक मंत्री सुख भोग चुके पुराने नेताओं से पीछे छुड़ाना जरूरी था. सिंधिया के लोगों को लेना मजबूरी थी.’
वे आगे कहते हैं, ‘सबसे खास बात कि सालों से चले आ रहे जातीय, क्षेत्रीय और महिलाओं के प्रतिनिधित्व के प्राचीन फॉर्मूले को ध्वस्त कर दिया. मंत्रिमंडल में भाजपाई और सिंधिया समर्थकों का 60-40 का फॉर्मूला है. पहले भी जो पांच मंत्री बनाए थे उनमें 2 सिंधिया के थे. यानी पार्टी उसी पुरानी फॉर्मूले पर चली. पूरी कैबिनेट में दो तिहाई नये चेहरे हैं और हर उम्र के हैं. इसलिए इसे पार्टी में पीढ़ीगत बदलाव नहीं ठहराया जा सकता है.’
बहरहाल, वर्तमान मंत्रिमंडल इस मामले में ऐतिहासिक है कि इसमें करीब 40 फीसदी मंत्री विधायक ही नहीं हैं. ऐसा पहली बार हुआ है.
इस बीच विपक्षी कांग्रेस ने इस मंत्रिमंडल को असंवैधानिक करार दिया है. कांग्रेस नेता विवेक तन्खा का इस संबंध में कहना है, ‘भाजपा बार-बार संवैधानिक प्रावधानों को धता बता रही है. पहले तो बिना कैबिनेट के सरकार चलाई. जब हमने राष्ट्रपति को शिकायत की तो 5 मंत्री बनाए. यह भी असंवैधानिक था क्योंकि सरकार चलाने के लिए कम से कम 12 मंत्रियों की जरूरत होती है. और अब फिर नियमों को ठेंगा दिखाया है.’
वे आगे कहते हैं, ‘वर्तमान में मध्य प्रदेश विधानसभा में विधायकों की प्रभावी संख्या 206 है. नियमानुसार भाजपा अधिकतम 15 प्रतिशत यानी 31 मंत्री बना सकती थी लेकिन आज उसके मंत्रिमंडल में 34 लोग हैं जो गैरकानूनी है. इसके खिलाफ हम अदालत का रुख करेंगे.’
साथ ही, मंत्रिमंडल में क्षेत्रीय असंतुलन के चलते विवेक तन्खा इसे मध्य प्रदेश की नहीं, चंबल-मालवा की सरकार करार देते हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)