एक कंपनी द्वारा श्रमिकों को वेतन न देने के मामले की सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि गृह मंत्रालय के आदेश के तहत उन्हीं कर्मचारियों या कामगारों को लाभ मिलेगा, जो लॉकडाउन लगने वाले दिन तक नौकरी पर थे और उन्हें तनख़्वाह मिल रही थी.
नई दिल्ली: बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत लॉकडाउन के दौरान सभी कर्मचारियों को सैलरी देने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी आदेश ऐसे श्रमिकों पर लागू नहीं है जो लॉकडाउन से पहले बेरोजगार थे या जिन्हें लंबे समय से सैलरी नहीं मिल रही थी.
जस्टिस उज्जल भूयां और रियाज छागला की पीठ ने औद्योगिक कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई करते हुए ये बात कही, जिसमें कोर्ट ने मई 2019 से भुगतान नहीं किए गए श्रमिकों को सैलरी देने का निर्देश दिया था.
लाइव लॉ के मुताबिक इसे लेकर पुणे स्थित मैन्युफैक्चरिंग कंपनी मेसर्स प्रीमियर लिमिटेड ने याचिका दायर की थी.
इसके अलावा कर्मचारी संघ ने गृह मंत्रालय के 29 मार्च 2020 के आदेश का अनुपालन कराने के लिए भी याचिका दायर किया था. कोर्ट ने इन दोनों याचिकाओं को एक साथ सुना.
हाईकोर्ट ने औद्योगिक कोर्ट द्वारा 20 मार्च 2020 को दिए गए आदेश में थोड़ा परिवर्तन किया और कहा कि कंपनी को मजदूरों को हर महीने की 10 तारीख से पहले आधी सैलरी (औद्योगिक कोर्ट ने पूरी सैलरी देने को कहा था) देनी होगी.
कंपनी को एक मार्च 2020 से शुरू करके शिकायत पूरी होने तक सैलरी देनी होगी.
दरअसल कंपनी ने अपने मूल स्थान से प्लांट को शिफ्ट करने के लिए महाराष्ट्र के श्रम आयुक्त से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) प्राप्त किया था.एनओसी की शर्त ये थी कि कंपनी को श्रमिकों को पूरी सैलरी और बकाये का भुगतान करना होगा और उन्हें नौकरी से नहीं निकाला जाएगा.
हालांकि आगे चलकर कंपनी ने तीन मार्च 2020 को एक पत्र जारी कर श्रमिकों और कर्मचारियों से कहा कि वे अगले आदेश तक पूरा काम बंद कर रहे हैं.
इसे लेकर औद्योगिक कोर्ट में शिकायत दर्ज की गई और दलील दी गई कि कंपनी ने ये नोटिस जारी कर श्रम कानूनों का उल्लंघन किया है.
कोर्ट ने पाया कि नोटिस जारी करते हुए कंपनी ने तय प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है और कोर्ट इस नतीजे पर पहुंची कि उन्होंने श्रम नियमों का उल्लंघन किया है.
इस मामले में फैसला देते हुए औद्योगिक कोर्ट ने कंपनी को निर्देश दिया कि एक मार्च, 2020 से या हर महीने के दसवें दिन वे मजदूरों का पूरा वेतन देंगे.
इस कोर्ट के आदेश के बाद भी वेतन नहीं मिलने के कारण मामला हाईकोर्ट पहुंचा और याचिकाकर्ता ने कहा कि कंपनी ने भविष्य निधि (पीएफ), रिटायर्ड कर्मचारियों की गैच्युटी और मेडिकल बीमा के प्रीमियम का भी भुगतान नहीं किया है.
याचिकाकर्ता ने अपनी दलीलों में लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को पूरा वेतन देने के लिए गृह मंत्रालय के 29 जनवरी 2020 के आदेश का सहारा लिया.
मालूम हो कि आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (एनईसी) के अध्यक्ष के रूप में केंद्रीय गृह सचिव ने 29 मार्च को एक आदेश जारी कर कहा था कि लॉकडाउन के दौरान सभी कंपनियों, उद्योगों इत्यादि को अपने श्रमिकों को पूरी सैलरी देनी होगी.
इस आदेश में कहा गया था, ‘चाहे इंडस्ट्री हो या शॉप हो या कॉमर्शियल प्रतिष्ठान हो, सभी को अपने श्रमिकों को समय पर पूरी सैलरी देनी होगी, बिना किसी कटौती के, उस समय तक जब तक कि लॉकडाउन के दौरान उनकी कंपनी बंद है.’
वहीं कंपनी की ओर से पेश हुए वकीलों ने कहा कि मजदूर संघ द्वारा सहयोग न करने और काम में बाधा डालने के कारण कई ग्राहकों ने अपने ऑर्डर वापस ले लिए, जिसके कारण कंपनी को काफी घाटा हुआ.
उन्होंने कहा कि काम को जारी रखने के लिए कंपनी को 330 करोड़ रुपये का लोन भी लेना पड़ा. कंपनी के वकील ने कहा कि 29 मार्च द्वारा जारी गृह मंत्रालय का आदेश यहां पर लागू नहीं होगा.
दोनों पक्षों को सुनने के बाद कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी किया गया आदेश लॉकडाउन के कारण उत्पन्न हुए संकट से उबरने के लिए था. इसके तहत उन्हीं कर्मचारियों या कामगारों को लाभ मिलेगा जो लॉकडाउन लगने वाले दिन तक नौकरी पर थे और उन्हें सैलरी मिल रही थी.
कोर्ट ने कहा कि यदि कोई मामला या विवाद पहले से ही चलता चला आ रहा है, तो तत्कालीन व्यवस्था के तहत ही उस विवाद का निस्तारण किया जाएगा. ऐसे मामलों में लॉकडाउन को लेकर गृह मंत्रालय और महाराष्ट्र सरकार के आदेश को लागू नहीं किया जा सकता है.
इसके बाद कोर्ट ने कंपनी द्वारा कर्मचारियों को सैलरी नहीं देने के मामले पर विचार किया और यह माना कि कंपनी ने श्रम नियमों का उल्लंघन किया है. हालांकि हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि इस मामले में औद्योगिक कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश में विरोधाभास है.
कोर्ट ने कहा कि यह स्थापित कानून है कि किसी भी अंतरिम आदेश के जरिए अंतिम राहत नहीं दी जाती है. उन्होंने कहा कि अंतरिम राहत देने की शक्ति विवेकाधीन होती है.
इस बात को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट ने औद्योगिक कोर्ट के आदेश में संशोधन किया और कहा कि मजदूरों को 50 फीसदी सैलरी दी जाए.
इसके अलावा कोर्ट ने औद्योगिक कोर्ट को निर्देश दिया कि मामले का छह महीने में निपटारा किया जाए.