आज सवाल ये नहीं है कि बच्चे इस बार इम्तिहानों में पास होंगे या नहीं, सवाल ये है कि यह देश और हम हिंदुस्तानी उनकी निगाहों में कितना फेल होते जा रहे है.
ये सवाल आने वाले लंबे समय तक उन लोगों से पूछा जाता रहेगा, जिनकी शिक्षा की गाड़ी इस साल कीचड़ में फंस गई है. सबसे बड़ा ख़ामियाज़ा शायद यही वर्ग चुका रहा है हर उस बदइंतज़ामी का, जिससे भारत गुजर रहा है.
ये भारत का भविष्य है. और एकमात्र अवसर और रास्ता जो भारत को उस गर्त में तेज़ी से ले जाने से रोक सकता है, जिसका मार्ग अच्छे दिन के नाम पर शुरू किया गया था और आत्मनिर्भर होने के नाम पर सरेंडर कर दिया गया.
ख़ास तौर पर उन बच्चों के लिए जो इस साल बारहवीं पास कर रहे हैं, अपनी डिग्रियां लेने वाले थे, उनके लिए ये समय बहुत सारी अनिश्चितताओं और चुनौतियों से भरा हुआ है.
कुछ तो परिस्थिति की वजह से, बहुत कुछ व्यवस्था की वजह से.
इस साल यू ट्यूब ने 7 जून को मुख्य तौर पर अमेरिकी छात्रों के लिए डियर क्लास ऑफ 2020 नाम से एक विशेष कार्यक्रम किया था क्योंकि इस साल ज़्यादातर जगह कार्यक्रम नहीं हो सके.
इसमें बराक ओबामा, सुंदर पिचाई, लेडी गागा, कोंडालिजा राइस, रिहाना और दूसरी हस्तियां इस साल के ग्रेजुएट्स को उम्मीद और शुभकामनाओं के संदेश दे रहे हैं.
वे बता रहे हैं कि ये साल दिक्कतों का है, पर साथ ही ये भी कि अगर दुनिया इन चुनौतियों के पार जाएगी, तो इन्हीं नौजवानों की बदौलत.
वे कह रहे हैं खुद पर यकीन करो, और उसके लिए लड़ो. वे उनसे इंसाफ की बात कर रहे हैं. इसे दुनियाभर में साढ़े 6 लाख लोगों ने लाइव देखा और जल्द ही उसके एक करोड़ से ज़्यादा व्यूज हो जाएंगे.
हर साल भारत में एक करोड़ से ज़्यादा बच्चे बारहवीं की परीक्षा देते हैं और बीस लाख से ज़्यादा स्नातक होते हैं. लाखों लोग रोजगार के लिए दरवाजों पर दस्तक देते हैं.
देश क्या कह रहा था 2020 के बैच से
हमारे नौजवानों के लिए बाकी देश का क्या संदेश है? यह वर्ग इस साल किस तरह से अपनी जिंदगी, दुनिया, रास्तों, सरकार, शिक्षकों को देख रहा होगा?
परीक्षा देने से लेकर अगले दाखिलों, नौकरियों से लेकर उच्च शिक्षा के मौकों तक, कोई रास्ता साफ नहीं दिख नहीं रहा.
जिस देश की मीडियन आयु इस साल 28 की हो, उसके पास कोई भी प्रभावी और युक्तिपूर्ण रास्ता नहीं है, इस नौजवान पीढ़ी के लिए आगे का रास्ता प्रशस्त करने का.
न वह तसल्ली से परीक्षा की तारीखें तय कर पाए, न उसके तरीके. जहां से एक विचारशील समाज के शुरुआती सलीके तय होने चाहिए, वहां पर सिवाय भ्रम, अफरा-तफरी और अनिर्णय की स्थिति के अलावा और क्या दिखलाई दे रहा है.
सबसे अजीब बात तो ये है कि इस पूरे विन्यास के केंद्र में विद्यार्थी हैं या शिक्षा संगठन, ये ही तय करना मुश्किल है.
ऑनलाइन परीक्षा को लेकर ही भयानक भ्रम की स्थिति है. फिर ये कि जहां और जिनके पास कनेक्टिविटी का इंतज़ाम नहीं है, उनका क्या होगा?
जिन युवाओं ने अपने आगे के रास्ते तय कर रखे थे, उनके लिए भी ये संकट का समय है. वे रास्ते या तो बंद हो रहे हैं या बदल रहे हैं या संकरे हो रहे हैं.
पढ़ने और आगे बढ़ने के मौके बनाने से तय होता है कि कोई भी देश अपनी तकदीर किस तरह लिखना चाहता है. उसी से तय होता है कि लंबे दौर के लिए कोई संरचना, प्रक्रिया और व्यवस्था कैसे खड़ी होती है.
उसके साथ कौन खड़ा है, कौन समाधान की तरफ है, कौन समस्या की तरफ? जो क़तार का आख़िरी है, जो कर्ज लेकर गांव से शहर आया है, जो भारत से इंडिया आ रहा है, हमारे पास उनके लिए क्या प्रावधान है.
दरअसल सरकार, शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय पंक्चर दुकानों में तब्दील होते दिखलाई दे रहे हैं. वे एक से दूसरी मुसीबत को टालने की कोशिश कर रहे हैं, वह फैसले लेने से बच रहे हैं, वह इस नौजवान को किसी भी तरह आश्वस्त करने में असमर्थ हैं.
संकट के हर समय में लोग अपनी छवि, नौकरी, पद, प्रतिष्ठा को बचाने की कोशिश पहले करते हैं, बजाय जो ज़रूरी हो वह करने के.
वे 2020 में क्या देख रहे हैं
जितने भी किशोर और नौजवानों से बात करो तो पता चलता है वह देश, भविष्य, जीवन के बारे में किस तरह से सोच रहा है. वह देख रहा है कि देश के अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में क्या हो रहा है.
समाज अपने डॉक्टरों के साथ कैसे पेश आ रहा है. वह देख रहा है उसका शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय उसे, उसके सपने, उसकी प्रगति, उसकी प्रतिभा, उसके पोटेंशियल को किस तरह से देख रहा है और कितना मददगार है.
वह देख रहा है कि कितने फीसदी नौजवान इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद भी नौकरी के लायक नहीं समझे जाते. वह देख रहा है सरकारी क्षेत्र में नौकरियां उस तरह और तेज़ी से नहीं बढ़ रहीं, जैसे एक पीढ़ी पहले बढ़ रही थीं.
वह देख रहा है कि प्राइवेट क्षेत्र की नौकरियां भी कोई बहुत ठोस ज़मीन पर नहीं खड़ी हैं. हिंदुस्तान का एक बड़ा वर्ग अपने सपने नौकरियों के ज़रिये देखता रहा है. पढ़ाई फिर नौकरी.
अगर उसे कुछ और करना है, तो उसके लिए उसके पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. चाहे कोई धंधा खड़ा करना हो या स्वरोज़गार का रास्ता तलाशना.
उसने अभी कोरोना के दौरान ही देखा कि सरकार किस तरह से अपनी लेबर फोर्स के साथ पेश आती है. कितना बड़ा वर्ग गरीबी और जहालत से बाहर आने के लिए शहर आया था और वह वापस जाने को मजबूर हुआ है.
वह देख रहा है कि फौज, रोटी और धर्म- तीनों का चुनावीकरण हो रहा है. वह देख रहा है छठ को जिक्र में लाने को और ईद को न लाने को. वह देख रहा है कि सरकार देश से सच और आंकड़े छुपा रही है.
वह यह भी देख पढ़ सुन रहा है कि पुलिस ने किस तरह इस साल विद्यार्थियों को बिना सही और काफी सबूत और कारणों से हवालातों में डाला हुआ है. और उनमें से बहुत से ऐसे हैं जो हाथ में संविधान लेकर सत्याग्रह करने सड़क पर उतरे थे.
वे देख रहे हैं कि सरकार को सवाल किए जाने वालों से परेशानी है और वह उन पर डंडे चलाने से गुरेज नहीं करने वाली.
वह यह भी देख रहा है कि जो लोग इस मुल्क में नफरत फैला रहे हैं, खुले आम दंगे भड़का रहे हैं, उनके खिलाफ पुलिस चूं भी नहीं कर रही.
उन्होंने अपने कैंपस में भी यही होता देखा और बाहर भी. वे देख रहे हैं कि मारपीट करने वाली एक लड़की खुलेआम घूम रही है और एक डॉक्टर कहीं और जेल में बंद है.
वह देख रहा है कि सिर्फ एक तरह के हुल्लड़बाज बच्चों पर पुलिस का क़हर नहीं टूट रहा है. साथ ही वह पढ़ रहा है कि देश के नेता गांधी और मंडेला जैसे नेताओं की जय-जयकार भी कर रहे हैं.
बहस, चर्चा और विमर्श की जगह कम होती हुई वे देख रहे हैं. वह शिक्षा की जगह पर बहस किए बिना चुपचाप निकलने की नसीहत सुन रहा है.
असहमति का मतलब वह देशद्रोह की तरह पढ़ने लगा है. वह देश से प्यार करता है, पर देख रहा है कि देश के कर्ताधर्ता साफ-साफ बता नहीं रहे कि चीन ने घुसपैठ की है या नहीं.
अगर नहीं की तो उसका टिकटॉक हटवाने की क्या ज़रूरत थी, ये बताने वाला भी कोई नहीं है.
विरोधाभासों का शिकार और गवाह भी
वह देख रहा है कि हर राजनीतिक और सरकारी बात इतिहास और अतीत की बातों पर अड़ी, टिकी और फंसी हुई है. उसके लिए सवाल भविष्य का है, उसके अवसरों, उम्मीद, आकांक्षा, रास्ते, भविष्य का है.
उसके पास स्मार्टफोन है और वह इंटरनेट पर है. वह देख रहा है कि वह देश, सरकार, राजनीति, व्यवस्था के लिए कितना प्राथमिक और महत्वपूर्ण है.
वह ऑनलाइन क्लासेज से खानापूरी होता देख रहे हैं. वह कुछ शोर का शिकार है और हिस्सेदार भी. पर क्या ये हमेशा रहने वाला है, इस पर गौर करने का वक़्त ये है.
क्या देश का भविष्य भी एक वोट बैंक है? या सारी फसल अतीत के धर्म, जाति, वर्ग के नाम पर काटी जाती रहेगी? उनके सपनों, उम्मीदों, ताकत, संभावना, उत्पादकता की कीमत पर.
सवाल ये नहीं है कि सारे बच्चे इन इम्तिहानों में पास होंगे या नहीं, सवाल ये है कि यह देश और हम हिंदुस्तानी उनकी निगाहों में कितना फेल होते जा रहे है.
अगर हम उनकी आबादी का हिस्सा देखें, तो ये समझना मुश्किल नहीं कि कितना बड़ा संसाधन और ऊर्जा पुंज है जिसे अगर चैनलाइज नहीं किया गया तो न सिर्फ उनके बल्कि देश के लिए भी वह विध्वंसकारी साबित होगा.
उनकी आंखों में सपने नहीं होंगे, हाथों में काम नहीं होगा, सामने का रास्ता नहीं होगा, तो फिर और क्या होगा. उन्हें वोट भी देना है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)