मार्च से अब तक कुल 25 कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं. दो हफ़्ते से भी कम समय में कांग्रेस के तीन और विधायक पार्टी और विधायकी छोड़ भाजपा में आ चुके हैं. भाजपा का दावा है कि अभी और कई कांग्रेसी विधायक पार्टी छोड़कर आएंगे.
‘हम शपथ लेते हैं कि अब कोई भी विधायक पार्टी छोड़कर नहीं जाएगा.’ 19 जुलाई, रविवार को मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के भोपाल स्थित आवास पर सभी कांग्रेसी विधायकों को कुछ ऐसी ही शपथ दिलाई गई.
यह नौबत तब आई जब हफ्ते भर के अंदर दो कांग्रेसी विधायक पार्टी और अपनी विधायकी से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए.
सबसे पहले 12 जुलाई को बड़ा मलहरा विधानसभा क्षेत्र के कांग्रेसी विधायक प्रद्युमन सिंह लोधी ने भाजपा का दामन थामा.
यह घाव अभी भरा भी नहीं था कि 17 जुलाई को नेपानगर की कांग्रेसी विधायक सुमित्रा कास्डेकर भी पार्टी और विधायकी से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गईं.
नतीजतन कमलनाथ को विधायकों को रोकने का जो तरीका दिखा, वह यह था कि उनसे पार्टी न छोड़ने की शपथ दिलाई जाए. लेकिन, यह तरीका भी कारगर साबित नहीं हुआ और महज चार दिनों के भीतर एक और कांग्रेस विधायक पार्टी से त्याग-पत्र देकर भाजपा में शामिल हो गया. इस बार मंधाता के विधायक नारायण पटेल की बारी थी.
इस तरह राज्य में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के बाद शुरू हुआ विधायकों के जोड़-तोड़ का सिलसिला अब भी बदस्तूर जारी है.
गौरतलब है कि मार्च माह में हुए कांग्रेस सरकार के तख्तापलट के समय सिंधिया समर्थक 6 मंत्रियों समेत 22 कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी और विधायकी छोड़कर भाजपा की सदस्यता ली थी.
अब इस तरह मार्च से अब तक कांग्रेस के कुल 25 विधायक पार्टी से बगावत करके भाजपा के खेमे में चले गए हैं. वहीं, दो सीटें विधायकों के निधन के चलते पहले से ही खाली थीं.
बहरहाल, तीन और विधायकों के पार्टी छोड़ कर जाने के बाद अब कांग्रेस के लिए आगे की राह और मुश्किल हो गई है. जबकि भाजपा की ओर से लगातार दावे किए जा रहे हैं कि अभी और भी कांग्रेसी विधायक उनके संपर्क में हैं.
सुमित्रा कास्डेकर को भाजपा में शामिल कराने की पटकथा लिखने वाले प्रदेश के सहकारिता मंत्री अरविंद भदौरिया ने सुमित्रा को पार्टी की सदस्यता दिलाते वक्त ही दावा किया था, ‘अभी तो कुछ और भी कांग्रेसी विधायक भाजपा में शामिल होंगे.’
गौरतलब है कि अरविंद भदौरिया ही नारायण पटेल को भाजपा में लाए हैं. उसी दौरान, भाजपा में आकर परिवहन मंत्री बने सिंधिया समर्थक गोविंद सिंह राजपूत ने भी दावा किया था कि अभी तीन कांग्रेस विधायक और भाजपा के संपर्क में हैं.
इसी तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खास माने जाने वाले पूर्व मंत्री और विधायक रामपाल सिंह ने एक समारोह में कहा कि अनेक कांग्रेसी विधायक भाजपा के संपर्क में है.
इसी के चलते कमलनाथ अपने सभी विधायकों को पार्टी न छोड़ने की शपथ दिला रहे थे. लेकिन, जानकारों का मानना है कि कांग्रेसी विधायकों का भाजपा में शामिल होने का यह सिलसिला फिलहाल थमने वाला नहीं है.
राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘कांग्रेस के पांच-छह विधायकों के अभी भाजपा के संपर्क में होने की पक्की जानकारी है. इनमें से कम से कम दो-तीन तो भाजपा के प्रलोभन में आ ही जाएंगे.’
राज्य में वर्तमान में 203 सदस्यों की विधानसभा है क्योंकि 27 सीटें खाली हैं. भाजपा के पास 107 विधायक हैं, साथ ही दो बसपा, एक सपा और चार में से तीन निर्दलीय विधायकों का समर्थन भी भाजपा के पास है जिससे उसके कुल 113 विधायक हो जाते हैं.
उपचुनावों के बाद उसे सरकार में खुद के दम पर बने रहने के लिए 27 में से 9 सीटों और गठबंधन की स्थिति में केवल तीन सीटें जीतने की जरूरत है.
इसलिए सवाल उठता है कि बहुमत के इतने करीब होते हुए भी क्यों भाजपा कांग्रेस के विधायकों पर नजर गढ़ा रही है और उनसे दल-बदल करवा रही है?
इस पर प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना कहते हैं, ‘सिंधिया के साथ बगावत करने वाले विधायकों की जीत का अंतर 2018 के विधानसभा चुनावों में बहुत कम रहा था. कोई हजार मतों से जीता, कोई दो-ढाई हजार से और ज्यादा से ज्यादा पांच हजार मतों से. अब जब वे उपचुनाव के प्रचार के लिए क्षेत्र में जा रहे हैं तो दल बदलने के चलते इनको जनता की नाराजगी भी झेलनी पड़ रही है.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘इसलिए भाजपा को डर है कि इन 22 में से अधिकांश हार गए तो सत्ता संकट में आ जाएगी. नतीजतन वे एक नया गेम प्लान लाए हैं कि हमारे लालची किस्म के विधायकों को टारगेट कर रहे हैं. सुबह दल बदल करवाते हैं और शाम को उन्हें कोई बड़ा पद थमा देते हैं.’
(गौरतलब है कि विधायक प्रद्युम्न सिंह लोधी को कांग्रेस छोड़ने के एवज में भाजपा में शामिल होते ही नागरिक आपूर्ति निगम का अध्यक्ष बनाते हुए कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया गया है. वहीं, सुमित्रा को भी जल्द ही किसी निगम या मंडल का अध्यक्ष बनाए जाने पर विचार चल रहा है.)
रवि सक्सेना आगे कहते हैं, ‘इस तरह होगा यह कि जितनी ज्यादा सीटों पर चुनाव होंगे, भाजपा के लिए बहुमत लायक विधायक जुटाना उतना ही ज्यादा आसान होगा और हमारे लिए उतना ही मुश्किल. कुछ दिन पहले तक उन्हें 24 में से 9 सीटें जीतनी थीं और अब 27 में से 9 सीटें जीतनी हैं. जबकि हमें पहले 24 जीतनी थीं और अब 27 जीतनी हैं.’
अपनी बात पूरी करते हुए वे कहते हैं, ‘वे विधायकों को खरीदने में सत्ता में होने का हर लाभ उठा रहे हैं, धन और पद के प्रलोभन के सहारे हमारे विधायक तोड़ते जा रहे हैं. ताकि इस तरह लोकतंत्र की हत्या करके विपक्ष को सरकार में आने का कोई अवसर ही न बचे.’
हालांकि, एक तथ्य यह भी है कि सिंधिया पर निर्भर शिवराज सरकार अब आत्मनिर्भर बनना चाहती है जिसके चलते फिर से उसे कांग्रेसी विधायकों को तोड़ने की जरूरत आन पड़ी है और इसके पीछे भी विधानसभा का अंक गणित है जिसे फिर से समझना होगा.
230 सदस्यीय सदन में सरकार बनाने के लिए 116 विधायकों की जरूरत होती है. भाजपा के पास 107 हैं. उपचुनावों में उसे 9 सीटों पर जीत की जरूरत होगी और ये 9 सीटें सिंधिया समर्थक विधायक ही उसे जिताएंगे.
इन विधायकों की निष्ठा भाजपा में न होकर सिंधिया में है. इस तरह शिवराज सरकार सिंधिया की बैसाखी पर ही टिकी होगी. नतीजतन, सिंधिया की मांगें मानना भाजपा की विवशता होगी.
गौरतलब है कि हालिया मंत्रिमंडल विस्तार और मंत्रियों में विभागों के आवंटन में सिंधिया की ही मनमानी चली है.
सिंधिया के दबाव के आगे शिवराज और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व तक को झुकना पड़ा और सरकार के 34 मंत्रियों में से 14 मंत्री उन 22 विधायकों में से बनाए गए जो कि सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर आए थे.
इसी तरह मंत्रियों में जब विभागों का बंटवारा किया गया तब भी सिंधिया ने दबाव बनाया और अपने समर्थक विधायकों को मलाईदार विभाग दिलाने में सफल रहे.
सिंधिया की यही मनमानी अब भाजपा को खटक रही है और उसने सरकार में सिंधिया का हस्तक्षेप कम करने के लिए यह फॉर्मूला निकाला है कि वह कांग्रेस के कुछ और विधायक तोड़े. फिर इन गैर सिंधिया समर्थकों को अपने टिकट पर चुनाव जिताए.
राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘कांग्रेस के तीन और विधायक भाजपा ने तोड़ लिए हैं. अब अगर वह इन तीन सीटों को जीतती है तो उसके विधायक हो जाते हैं 110. इसी तरह अगर भाजपा कांग्रेस के चार-पांच विधायक और तोड़ ले और पूरा जोर लगाकर उन्हें उपचुनाव में जिता दे तो सिंधिया समर्थक विधायकों के बिना ही सदन में उसके 114-115 विधायक हो जाएंगे. दो बसपा, एक सपा और तीन निर्दलीय विधायकों का साथ उसके पास पहले से ही है, तो संख्या पहुंचती है 120-121 पर. फिर उसे सिंधिया के सहारे की जरूरत नहीं रह जाएगी. इस तरह भाजपा सरकार सदन में बहुमत भी पा लेगी और सिंधिया के दबाव से मुक्त भी हो जाएगी.’
वे आगे कहते हैं, ‘सिंधिया के रवैये को लेकर भाजपा में नाराजगी है. जयभान सिंह पवैया, अजय विश्नोई और गौरीशंकर शेजवार खुलकर बयान दे रहे हैं. वहीं, शिवराज भी खुद को दबाव में पा रहे हैं. इसलिए अब भाजपा एक तीर से कई शिकार कर रही है. पहला, सरकार से सिंधिया का दबाव कम हो जाए. दूसरा, सिंधिया के पर कतर जाएं. तीसरा, सरकार भी सुरक्षित रहे और चौथा कि कांग्रेस भी कमजोर हो जाए और चुनाव तक उसका मनोबल ही टूट जाए.’
यहां हैरानी की बात यह है कि अपने इस एजेंडा को पूरा करने में भाजपा को कांग्रेस ने भी एक तरह से वॉक ओवर दे दिया है.
एक वक्त 20 भाजपा विधायकों के संपर्क में होने का दावा करने वाले कमलनाथ अब अपने विधायकों को ही नहीं बचा पा रहे हैं. उन्हें पार्टी छोड़कर जाने से रोकने के बजाय कमलनाथ कहते नजर आ रहे हैं, ‘जाने वालों की मुझे कोई चिंता नहीं है.’
कमलनाथ का यह बयान कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि उन्होंने सरकार में रहते हुए सिंधिया को लेकर दिया था कि सिंधिया को उतरना है तो उतर जाएं सड़कों पर. नतीजतन कांग्रेस की सरकार ही गिर गई थी.
बहरहाल, कमलनाथ यह भी कहते हैं कि उन्हें पता था कि कुछ विधायक पार्टी छोड़कर जाएंगे. यहां सवाल उठता है कि जब पता था तो उन्हें रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया गया?
जब हफ्ते भर में दो विधायक पार्टी छोड़ गए थे, तब कमलनाथ कोई कदम उठाने के बजाय या तो इस तरह के बयान दे रहे थे या फिर उम्मीद कर रहे थे कि पार्टी न छोड़ने की शपथ लेने के बाद विधायक कहीं नहीं जाएंगे.
कमलनाथ के इस लापरवाह रवैये की अब पार्टी के अंदर ही आलोचना होने लगी है. राज्य के कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि कमलनाथ का यही अहंकार पार्टी को नुकसान पहुंचा रहा है.
नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता बताते हैं, ‘ऐसा बर्ताव नहीं होना चाहिए. हमें तो उन विधायकों के प्रति उत्साह दिखाना चाहिए जो हमारे साथ हैं. उनमें जोश भरना चाहिए. लेकिन जैसा कमलनाथ बोल रहे हैं, वैसा ही चलता रहा तो विधायक पार्टी से दूर होंगे ही.’
गोपनीयता की ही शर्त पर एक अन्य कांग्रेसी बताते हैं, ‘हमारी सरकार गिरी भी तो इसलिए ही क्योंकि कमलनाथ सभी पदों पर कुंडली मारकर बैठ गए थे. करीब दो सैकड़ा पद ऐसे थे कि अगर तब उन्हें पार्टी के पहली पंक्ति के नेताओं और असंतुष्ट विधायकों में बांट दिया गया होता तो शायद पार्टी के लिए हालात इतने नहीं बिगड़ते.’
बहरहाल, अपने विधायकों को रोकने के लिए कांग्रेस उन्हें शपथ तो दिलवा ही रही है, साथ ही यह भी नीति बनाई है कि राज्य इकाई के सभी बड़े नेता अपने-अपने खेमे के विधायकों की बाड़ेबंदी करेंगे.
इस तरह कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अजय सिंह, अरुण यादव, सुरेश पचौरी जैसे नेताओं ने जिन-जिन विधायकों को अपनी सिफारिश से टिकट दिलाया था, उन विधायकों की पार्टी न छोड़ने की जिम्मेदारी इन्ही नेताओं पर होगी.
लेकिन, इस नीति के बावजूद भी अरुण यादव खेमे के नारायण पटेल 22 जुलाई को फोन बंद करके गायब हो गए और 23 जुलाई को वही किया, जिसका डर था.
वहीं, कांग्रेसी विधायकों के पार्टी छोड़ने के पीछे के कारणों की पड़ताल करें तो सामने आता है कि करीब 50 फीसदी विधायक ऐसे हैं जो पहली बार के विधायक हैं.
सिंधिया खेमे के 19 में से 9 विधायक पहली बार जीतकर विधानसभा पहुंचे थे, वहीं हाल में इस्तीफा देने वाले प्रद्युम्न सिंह लोधी, सुमित्रा कास्डेकर और नारायण पटेल भी पहली ही बार के विधायक हैं.
इसलिए तर्क यह भी दिया जा रहा है कि कांग्रेस ने सत्ता में वापसी के लिए ऐसे-ऐसे लोगों को चुनाव लड़ाया था जिनका पार्टी की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था. नतीजतन जहां उन्हें पैसा दिखा, वे वहां के हो लिए,
गोपनीयता की शर्त पर प्रदेश कांग्रेस संगठन में हस्तक्षेप रखने वाले एक कांग्रेसी नेता बताते हैं, ‘पहली बात कि हमारे नेता पार्टी से बड़ा अपने समर्थकों को समझते हैं, उनके ही हित देखते हैं और उन्हें प्राथमिकता देते हैं. दूसरी बात कि वर्तमान दौर की राजनीति का हाल यह हो गया है कि धनबल और बाहुबल से यह ज्यादा प्रभावित है. जिसके पास ये दोनों हैं उसे ही चुनाव लड़ा दिया जाता है. ऐसे लोगों में वैचारिकता नहीं होती, पार्टी की विचारधारा से उन्हें मतलब नहीं होता. उनका जहां बिजनेस चलेगा, सत्ता बदलने पर बदली सत्ता के साथ खड़े हो जाएंगे.’
यहां गौर करने वाली बात है कि विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण के समय स्वयं कमलनाथ ने ही एक मौके पर कहा था, ‘किसी उम्मीदवार पर चाहे कितने ही मामले दर्ज हों, उम्मीदवार जीतने वाला होना चाहिए.’
संभवत: जीतने की उसी छटपटाहट में कमलनाथ उम्मीदवार तो जीतने वाले खोज लाए लेकिन पार्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता नहीं देख पाए.
प्रद्युम्न सिंह लोधी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं. वे विधानसभा चुनावों के ठीक पहले कांग्रेस से जुड़े थे, चुनाव जीते भी और जब तक सरकार रही कांग्रेस के साथ रहे, सरकार बदलते ही भाजपा के पास पहुंच गए और दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री बन गए.
राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘कांग्रेस के जो विधायक चुनकर आए हैं वे विचारधारा वाले नहीं हैं. इनमें से कितनों को मालूम है कि नेहरू की विचारधारा क्या थी और इंदिरा की क्या? वे तो बस इस हवा में पार्टी में आ गए कि भाजपा के खिलाफ माहौल है.’
बहरहाल, प्रद्युम्न और सुमित्रा के दल बदल के पीछे कुछ और भी कारण हैं. प्रद्युम्न सिंह लोधी जिस बड़ा मलहरा सीट से चुने गए थे, उसी सीट से पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती 2003 में चुनाव लड़ी थीं.
उमा भारती लोधी समाज की प्रदेश में सबसे बड़ी नेता हैं. मंत्रिमंडल विस्तार में लोधी समाज को प्रतिनिधित्व न मिलने के चलते वे नाराज थीं. प्रद्युम्न स्वयं स्वीकारते हैं कि उमा ही उन्हें भाजपा में लाई हैं.
राकेश दीक्षित के मुताबिक, इस कदम के पीछे उमा की मंशा है कि वे इस सीट से खुद उपचुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचें.
इसी तरह, सुमित्रा के मामले में गौर करने वाली बात यह है कि कुछ दिनों पहले ही सुमित्रा के विधायक प्रतिनिधि 10 लाख रुपये से अधिक के नकली नोटों के साथ पकड़े गए थे, जिसमें सुमित्रा का भी कनेक्शन जोड़ा जा रहा था और भाजपा लगातार उन पर हमलावर थी.
साथ ही, दैनिक भास्कर की एक खबर के मुताबिक, सुमित्रा के ऊपर फर्जी जाति प्रमाण-पत्र का भी एक मामला जबलपुर हाईकोर्ट में चल रहा है. जिसे पूर्व भाजपा विधायक मंजू दादू ने दर्ज कराया है.
कयास लगाए जा रहे हैं कि इन दोनों ही मामलों से बरी होने के लिए सुमित्रा ने भाजपा का दामन थामा है.
शायद इसलिए रवि सक्सेना कहते हैं, ‘भाजपा हमारे ऐसे विधायकों को टारगेट कर रही है जो या तो गरीब तबके से आते हैं या फिर कहीं न कहीं किसी विवाद में फंसे हुए हैं.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)