उन्मादी भीड़ के ख़िलाफ़ खड़े अकेले व्यक्ति ने ही इतिहास की धारा मोड़ी है…

समाज या विज्ञान को देखें, तो बार-बार इस बात से रूबरू होंगे कि चीज़ें इसीलिए बदल सकीं कि चंद लोगों ने पहले से चली आ रही गति की दिशा को लेकर प्रश्न किए और नतीजन वे अक्सर अकेले ही इस लड़ाई को लड़ते हुए दिखाई दिए.

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Art by: Wassily Kandinsky/Wikimedia Commons

समाज या विज्ञान को देखें, तो बार-बार इस बात से रूबरू होंगे कि चीज़ें इसीलिए बदल सकीं कि चंद लोगों ने पहले से चली आ रही गति की दिशा को लेकर प्रश्न किए और नतीजन वे अक्सर अकेले ही इस लड़ाई को लड़ते हुए दिखाई दिए.

Art by: Wassily Kandinsky/Wikimedia Commons
Art by: Wassily Kandinsky/Wikimedia Commons

‘Whenever you find yourself on the side of the majority, it is time to pause and reflect.’ 

– Mark Twain

कालजयी रचनाएं समय स्थान की सीमाओं को लांघकर किस तरह आप को अपनी लगने लगती हैं, इसको बयां करना मुश्किल है.

हांस क्रिश्चियन एंडरसन (2 अप्रैल 1805- 4 अगस्त 1875) महान डैनिश लेखक, जिन्होंने नाटकों, यात्रा वृतांतों, उपन्यासों और कविताओं के रूप में प्रचुर लेखन किया- अपनी परिकथाओं के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं.

उनकी परिकथाएं नौ खंडों में प्रकाशित हुई हैं और दुनिया की 125 जबानों में अनूदित भी हुई हैं. उनकी एक ऐसी अदभुत रचना है ‘राजा के नए कपड़े’ – जिसे हम ‘निर्वस्त्र राजा’ के तौर पर अधिक जानते हैं.

जब-जब किसी मुल्क में अधिनायकवाद की हवाएं चलने लगती हैं और लोगों पर अधिनायक की अजेयता का जादू सिर चढ़कर बोलने लगता है और उसके खिलाफ बोलना भी कुफ्र में शुमार किया जाने लगता है, यह कहानी नए सिरे से मौजूं हो जाती है.

विशाल जुलूस में निर्वस्त्र निकल पड़ा राजा, जो कथित तौर पर जादुई वस्त्र पहना है- जिन्हें देखकर अधिकतर लोग खूब गुणगान किए जा रहे हैं- और उसकी सच्चाई को बताने वाले उस नन्हे बच्चे का रूपक आज भी मन को मोहित करता रहता है, एक संवेदनशील, न्यायप्रिय व्यक्ति को अंदर ही अंदर ताकत देता रहता है.

ऐसी ही एक अन्य रचना है ‘द एनिमी ऑफ द पीपल’ (जनता का दुश्मन- 1882). जिस नाटक की रचना नॉर्वे के महान नाटककार हेनरिक इब्सेन (20 मार्च 1928-23 मई 1906) ने की थी.

बताया जाता है कि शेक्सपियर के बाद दुनिया भर में इन्हीं के नाटक आज भी खेले जाते हैं. नाटक का प्रमुख संदेश यही है कि एक व्यक्ति, जो अकेला खड़ा रहता है, वह जनता की भीड़ से अधिक ‘सही’ होता है.

अपने दौर की उस धारणा को कि समुदाय/समाज बहुत महान संस्था है और जिस पर भरोसा किया जाना चाहिए, उसी को वह चुनौती देता है.

नाटक का फोकस एक डॉक्टर, डॉ. स्टोकमैन हैं, जो किसी सैरगाह के ठिकाने पर तैनात है और वह सार्वजनिक स्नान स्थल- जो टूरिस्टों के जबरदस्त आकर्षण का केंद्र है- में कुछ खामी देखता है.

डॉक्टर को पता चलता है कि वह पहुंच रहा पानी स्थानीय टैनरी से प्रदूषित हो रहा है, जो लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर डाल सकता है.

वह इस बात को प्रशासन के निगाह में लाता है और उम्मीद करता है कि उसे इस खुलासे के लिए सम्मानित किया जाएगा, लेकिन स्थानीय आबादी उसे ही ‘जनता का दुश्मन’ घोषित करती है और उसके घर पर पथराव तक करती है.

उन्हें लगता है कि अगर इस बात का खुलासा होगा तो नगर में आने वाले तमाम पर्यटक यहां से हमेशा के लिए मुंह मोड़ लेंगे और नगरवासियों की आमदनी खत्म हो जाएगी.

नाटक का अंत डॉक्टर के पूरे अलगाव में होता है. यह एक तरह से नगर पर आने वाली भयानक आपदा का खतरनाक संकेत भी है.

अलबत्ता वह घोषित करता है कि वह नगर नहीं छोड़ेगा और लोगों को यह समझाने की कोशिश करेगा कि ‘मुनाफे का आकर्षण किस तरह मनुष्य की नैतिकता और न्याय की समझदारी को सिर के बल खड़ा कर देता है.’(…that considerations of expediency turn morality and justice upside down.)

नाटक के आखिरी संवाद में डॉ. स्टोकमैन अपने आप को दुनिया का सबसे मजबूत शख्स घोषित करता है.

अपनी रचना के 140 साल बाद भी यह नाटक अलग अलग परिवेशों में, अलग-अलग जबानों और रूपों में में आज भी खेला जा रहा है और किसी न किसी रूप में लोगों के दिलों के तार को झकझोर रहा है.

20 वीं सदी के मध्य में आर्थर मिलर ने इस नाटक को अंग्रेजी में रूपांतरित किया, नाटक इतना कामयाब हुआ कि उसी साल इसी पर एक फिल्म भी बनी और बाद में 80 के दशक में उस पर एक टीवी सीरियल भी रचा गया.

महान फिल्मकार सत्यजित रे ने 1989 में एक फिल्म बनाई थी ‘गणशत्रु,’ जो इसी पर आधारित थी. नाटक में डॉक्टर की भूमिका सौमित्रा चटर्जी ने की थी.

इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई के शुरुआत में इस नाटक का एक अरबी रूपांतरण मिस्र में भी खेला गया. यह वही समय था जब मिस्र जबरदस्त सामाजिक उथल-पुथल से गुजर रहा था, जिसे बाकी दुनिया अरब बसंत के नाम से जान रही थी.

लंबे समय से गद्दीनशीन तानाशाह होस्नी मुबारिक के खिलाफ जनता बगावत पर उतरी थी और सत्ता पलट हुआ था.

इस नाटक की इस अद्भुत यात्रा का प्रसंग चीन के जिक्र के बिना अधूरा लगेगा. यह मशहूर है कि इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई के अंत में यह नाटक चीन में भी खेला गया.

बीजिंग में इसके शो का जबरदस्त स्वागत हुआ और बाद में नानचिंग में उसके शो प्रस्तावित थे. सब पहले से तय था चूंकि नाटक खेलने आई टीम बर्लिन के किसी नाटय समूह से ताल्लुक रखती थी.

अचानक तकनीकी दिक्कत बताते हुए शो को कैंसिल कर दिया, कोई औपचारिक वजह बताई नहीं गई.

अनौपचारिक हल्कों में आज भी यही समझा जाता है कि चीनी हुकूमत को यह चिंता थी कि ‘डॉ. स्कोटमैन’ का प्रसंग चीन की प्रबुद्ध जनता को नए सिरे से उद्वेलित करेगा.

मैं अक्सर समझने की कोशिश करता हूं कि कालजयी रचना में ऐसा क्या होता है कि वह अलग परिवेश में भी मौजूं मालूम पड़ती हैं.

क्या इस वजह से कि वह मनुष्य की, व्यक्ति की अहमियत को केंद्र में रखती हैं, कभी जिंदगी पर कोई फलसफाना बयान देती है और बाज़ वक्त समाज की तमाम बंदिशों को चुनौती देती रहती हैं?

15वीं सदी में कबीर की बानी में ऐसे ही कालजयी होने के तत्व बोलते हैं. एक बानी में वह बोलते हैं कि,

सुखिया सब संसार है खावे और सोवै
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवें

ऐसा लगता है कि 15 वीं सदी के यह किसी संत की जुबां नहीं है, बल्कि मौजूदा हालात से चिंतित एक विचारक, एक कार्यकर्ता अपनी पीड़ा साझा कर रहा है.

‘द एनिमी ऑफ द पीपल’ नाटक में जब पूरा नगर- इतना ही नहीं कुछ आत्मीयजन – डॉ.स्कोटमैन की मुखालिफत में उतर आते हैं और वह अपने आप को दुनिया का सबसे मजबूत शख्स घोषित करते हैं, तब आप चाहे न चाहें आप की निगाहें इतिहास में दूर-दूर तक निकलती जाती हैं.

आप पाते हैं कि अज्ञानी और आज्ञाकारी जनता की उन्मादी भीड़ के खिलाफ खड़े अकेले व्यक्तियों ने तो इतिहास की धारा मोड़ने के औजार गढ़े हैं.

ब्रूनो को ही देखें. इतालवी दार्शनिक और वैज्ञानिक र्गिओडानो ब्रूनो (जन्म 1548) ,जिन्हें 16 फरवरी 1600 की अलसुबह चर्च के आदेश पर रोम के चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था.

बताया जाता है कि इनकी विद्धता एवं इनकी लोकप्रियता से चर्च इतना आतंकित था कि जलाए जाने के पहले उन्होंने ब्रूनो की जीभ भी बांध दी थी ताकि आखिरी वक्त में वह ऐसा कुछ न कहे कि जनता बगावत पर उतर आए.

इसके पहले उसे आठ साल तक बंदी बनाकर रखा गया था और उस पर लंबा मुकदमा चला था और उस पर दबाव डाला गया था कि वह अपने विचारों से तौबा करे; वह इस बात का प्रचार बंद करे कि ब्रह्मांड की जो अवधारणा कॉपरनिकस (1473-1543) ने पेश की थी, वह गलत है.

वही अवधारणा कि सूर्य पृथ्वी के चक्कर नहीं लगाता, बल्कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है. आज की तारीख में साधारण विज्ञान की बात मगर बाइबिल मानने वालों के लिए किसी विप्लवी बात से कम नहीं थी!

कोई नहीं जानता कि ब्रूनो को जिंदा जलाने का आदेश देने वाले चर्च के अधिकारियों नाम और न ही उस वक्त रोमन कैथोलिक चर्च के पोप के पद पर कौन विराजमान था और उसको जिंदा जलाए जाते वक्त जश्न की मुद्रा में खड़ी उस जनता को.

विचारों की हिफाजत के लिए उसकी शहादत को लोग आज भी याद करते हैं. ऐसी शहादत जिसने कॉपरनिकस के क्रांतिकारी कदम की रोशनी में न केवल प्राकृतिक विज्ञान के धर्मशास्त्र की जकड़ से मुक्ति के रास्ते को सुगम किया था, बल्कि प्राकृतिक विज्ञान के विकास के समानांतर आधुनिक दर्शन ने भी अपने डग भरे थे.

आधुनिकता का एक नया युग जनता के सामने हाजिर था, ऐसा युग जैसा पहले कभी देखा नहीं गया था.

आप समाज को देखें या विज्ञान को, बार-बार इसी सबक से रूबरू होंगे कि चीजें इसीलिए बदल सकीं जब चंद लोगों ने, मुट्ठीभर समूहों ने या व्यक्तियों ने समाज की पहले से चली आ रही गति की दिशा को प्रश्नांकित किया था या विज्ञान की उपलब्ध जानकारी पर सवाल उठाए थे.

आप पाते हैं कि स्कोटमैन की जुबां से इब्सेन जो कह रहे हैं, वह सच्चाई हमारी निगाहों से अभी तक ओझल क्यों थी, क्यों हम लीक से हटकर मन में उठते खयाल तक को दफनाते हुए भीड़ की तरफ भागने के लिए हमेशा आतुर रहते हैं.

वही भीड़, वही समुदाय, वही समाज, जिसके बारे में स्कोटमैन का आकलन है कि वह अज्ञानी और भेड़नुमा होती है.

आज हम लोग ज्योतिबा सावित्राीबाई फुले और उनकी सहयोगिनी फातिमा शेख का नाम बहुत फक्र से लेते हैं. लेकिन क्या यह हकीकत नहीं कि शेष समाज ने, उनकी कोशिशों का समर्थन करना दूर रहा, उन पर पत्थर बरसाए थे.

ज्योतिबा के अपने पिताजी गोविंदराव भी उनके सामाजिक कामों से खिन्न थे और इसी के चलते उन्होंने उन दोनों को घर से निकाल दिया दिया था.

अगर फातिमा शेख के भाई उस्मान शेख ने इन दोनों के लिए अपने घर के दरवाजे नहीं खोले होते, तो उनकी मुश्किलें और बढ़तीं.

21 वीं सदी की इस दूसरी दहाई में यह दरअसल फिर एक बार भीड़ का समय है. एक ऐसा समय जबकि झुंड हिंसा और राज्य हिंसा के बीच की दूरियां समाप्त हो चली हैं.

15 साल का एक बच्चा (जुनैद) जो ईद की तैयारियों में खुशी मनाने घर जा रहा है, उसे सरेआम रेल के डिब्बे में पीट-पीटकर मार डाला जा सकता है और प्लेटफार्म पर खड़ी 200 लोगों की भीड़ इस बात से साफ इनकार कर सकती है कि उसने कुछ देखा ही नहीं.

विगत कुछ वर्षो में भीड़ द्वारा हिंसा की घटनाओं ने अमेरिकी इतिहास के एक स्याह दौर की यादें ताजा की हैं.

वर्ष 1877 से 1950 के दरमियान श्वेत वर्चस्ववादी गिरोहों ने लगभग 4,000 अफ्रीकी अमेरिकियों की इसी तरह हत्या की, जबकि सरकार और पुलिस ने ऐसी घटनाओं की पूरी तरह अनदेखी की.

जेम्स बाल्डविन, जिनका निबंध संग्रह ‘डार्क डेज’ इस विकसित होती हिंसा का शब्दांकन करता है, लिखते हैं, ‘भीड़ कभी स्वायत्त नहीं होती. वह सत्ता में बैठे लोगों की वास्तविक इच्छा को पूरा करती है.’

वर्ष 1888 में श्वेत वर्चस्ववादियों ने किसी कुएं से पानी पीने के लिए सात अफ्रीकी अमेरिकियों की हत्या की, जो उनके हिसाब से सिर्फ, ‘श्वेतों के लिए’ था.

बाल्डविन उस कहानी को दोहराते हुए लिखते हैं, ‘इन मासूमों का खून अलाबामा राज्य के हाथों पर लगा है जिसने राज्य की इच्छा की पूर्ति के लिए इन झुंडों को सड़कों पर उतार दिया.’

भारत के संदर्भ में जबकि भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्याओं में उछाल आया है तब बकौल बाल्डविन इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि वह ‘सत्ता में बैठे लोगों की वास्तविक इच्छा किस तरह पूरी कर रही है’ या यहां की सड़कों पर बहता मासूमों का खून किस ‘राज्य के हाथों पर लगा है.’

तयशुदा बात है कि उन्मादी हो चुकी भीड़ के सामने समर्पण करने की नहीं बल्कि तनकर खड़ा रहने की जरूरत है, भले ही उसके लिए अपने आप को जोखिम में डालना पड़े !

रवींद्रनाथ टैगोर अपनी मशहूर रचना ‘एकला चलो रे’ में जुबां देते हैं,  ‘जोदि तोर डाक शुने केउ न तोबि एकला चोलो रे… (अगर कोई तुम्हारी आवाज सुनने को तैयार नहीं है तो अकेले ही चल दो)

मुझे मालूम नहीं कि शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक पैट्रिशिया मुखिम ने टैगोर को पढ़ा है या नहीं लेकिन आज की तारीख में वह उन लोगों में शुमार की जा सकती है, जो भीड़ के खिलाफ खड़े रहने के लिए तैयार है, भले ही उसके लिए कितना भी जोखिम उठाना पड़े.

पैट्रिशिया पहली दफा तब सुर्खियों में आईं, जब 2018 में उनके घर पर बम से हमला हुआ. अवैध खदन में मुब्तिला गिरोहों के बारे में उनकी स्टोरी तमाम लोगों को नागवार गुजरी थी.

इन दिनों वह नए सिरे से सुर्खियों में है, जिसमें वह आदिवासी बहुल मेघालय में- जहां लगभग 75 फीसदी आदिवासी हैं- आदिवासियों द्वारा गैर-आदिवासियों पर किए जा रहे हमलों के खिलाफ बोलती दिख रही हैं.

बेसबॉल कोर्ट में पांच गैर-आदिवासियों की हुई इस पिटाई के खिलाफ वह यह कहती दिख रही हैं कि अपराधियों की कोई जाति नहीं होती.

यह अलग बात है कि यह कहने से चंद लोगों को लगता है कि उन्होंने उनका, उनके समुदाय का अपमान किया है और उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए.

विडंबना ही है कि कथित मुख्यधारा के भारत में उत्तर पूर्व हमेशा ही अनुपस्थित रहा है, क्या पैट्रिशिया मुखिम का यह अलग किस्म का संघर्ष भी इसी उपेक्षा का शिकार होगा?

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)