विशेष: प्रेमचंद अगर आज के हालात, ख़ासकर तथाकथित संस्कृति बचाने वालों को देखते, तो शायद अवसाद में चले जाते. उन्हें संस्कृति राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए इस्तेमाल होने वाला महज़ साधन लगती थी और उनके अनुसार यही तथाकथित संस्कृति, सांप्रदायिकता को भी स्वार्थ पूरे करने के अवसर देती थी.
एक लेखक और पाठक होने की दृष्टि से कभी-कभी सोचती हूं कि आज जिस घोर-आधुनिक युग में हम जी रहे हैं, जहां पर आने वाले समय में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेटेड टेक्नोलॉजी से स्वयं मानव श्रम की आवश्यकता पर संदेह उठने लगेंगे, तो ऐसे में एक लेखक की और वह भी साहित्य के लेखक की, क्या प्रासंगिकता या आवश्यकता रह जाएगी?
आखिरकार इस समुदाय के पास जनता को देने के लिए क्या बचा रहेगा? क्योंकि आधुनिकता के परम स्तरों पर पहुंच गई इस मानव सभ्यता के पास तो हर एक समस्या का समाधान मिल जाया करेगा, ज्ञान के ऐसे कोई अंधेरे ब्लैकहोल नहीं बचेंगे जिस पर कि उसने अपनी दिमागी क्षमताओं से रोशनी नहीं फेर दी होगी.
तब एक रचनाकार के लिए समाज से अपनी रचना की प्रेरणा ग्रहण करने की संभावनाएं भी क्षीण हो जाएंगी या शायद साहित्य समाज का प्रतिनिधि है, जैसी उक्तियां भी अपनी सार्थकता खो देंगी.
खैर, सोचकर ही जिस बात से इतना डर लगे, सोचिए उसके असल हो जाने की स्थिति में क्या होगा? बहरहाल, लगभग इसी तरह की मनोदशा में रहते हुए एक दिन नज़र हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार और कथा सम्राट प्रेमचंद के एक आलेख पर पड़ी.
हिंदू-मुस्लिम एकता की थीम पर आधारित यह निबंध, 1931 में सबसे पहले ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ था, तो यह सोचें कि इस साधारण से दिखने वाले आलेख में वो सब कुछ पढ़ने और जानने को मिला जो पढ़कर एकबारगी लगा कि यह बातें तो 2020 के संदर्भ में कही जा रही हैं.
नब्बे साल बीत जाने के बाद भी अगर किसी के शब्दों और विचारों को पढ़कर ऐसा लगे कि वो आपके समय का यथार्थ है तो आश्चर्य ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर एक अजीब-सी प्रसन्नता का एहसास हुआ.
ऐसा लगा मानो मुझे मेरे संदेह, मेरे प्रश्नों का जवाब मिल गया हो. जब 1930 के हिंदुस्तान में जी रहे लेखक को अपने समय की स्थितियों को समझने और उनके समाधान के लिए साहित्य की आवश्यकता महसूस हुई, तो आज आज़ादी के सत्तर साल बीत जाने के बाद भी जबकि परिस्थितियां कमोबेश वहीं हैं, तो साहित्य और समाज के संबंध कैसे कमज़ोर हो सकते हैं?
क्योंकि जिस सांप्रदायिक वातावरण पर अपनी चिंता प्रेमचंद 1930 में ज़ाहिर कर रहे थे, वो माहौल तो आज भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है.
अभी कुछ ज्यादा अरसा भी तो नहीं बीता है, देश की राजधानी दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा और दंगों को, जिसमें मस्जिदों को आग लगाई गई थी.
तब वस्तुतः ही यह लगता है कि आधुनिकता या सभ्यता के स्तर सही अर्थों में शायद केवल हमारे भौतिक या बाहरी आवरण को ढकने या रंगने का काम करते हैं, जबकि मनुष्य की आंतरिक चेतना और उसके पूर्वाग्रहों से भरे मन की बनावट वही रहती है.
और यह मानवीय चेतना सिर्फ किसी राष्ट्र या क़ौम विशेष की ही बात नहीं है, बल्कि एक सार्वदेशिक और सार्वजनीन फिनॉमिना है, वरना क्या वजह है कि हम कभी अखबारों के पन्नों पर फिलिस्तीन के लोगों के उजड़े घरों को देखते हैं, तो कभी नितांत आधुनिक अमेरिकी समाज में नासूर की तरह फैली नस्लभेद की चेतना को पाते हैं, जिससे बेज़ार होकर ही शायद ब्लैक लाइव्स मैटर के बुलंद नारों का ईजाद हुआ है.
सोचती हूं, प्रेमचंद अगर आज के हालात को और खासकर आज के तथाकथित संस्कृति बचाओ वातावरण को देखते तो शायद अवसाद के शिकार हो जाते.
क्यों? क्योंकि वो तो एक ऐसे लेखक और विचारक थे जिन्हें संस्कृति महज एक राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रयोग किए जाने वाले उपकरण के अलावा कुछ नहीं लगती थी और यही तथाकथित संस्कृति, सांप्रदायिकता को भी अपने स्वार्थ पूरे करने के अवसर देती थी.
तभी तो प्रेमचंद लिखते हैं, ‘सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति है, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था.’
प्रेमचंद के धर्म और संस्कृति संबंधी ये विचार उनके अपने समय के राष्ट्रवादी आंदोलन की उपज होने के साथ ही बहुत आधुनिक और प्रगतिशील थे.
1930 का दशक एक तरह से भारतीय परिप्रेक्ष्य में सांप्रदायिकता के उभार का दौर था, जिसकी चरम परिणति 1947 के विभाजन पर जाकर होती है.
ऐसे में प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील लेखक के लिए अपने समय से निरपेक्ष रहकर लेखन करना असंभव था.
वैसे भी उन्हें अपने दौर के प्रगतिशील यथार्थवादी लेखकों में सर्वप्रमुख माना जाता है, जिसने साहित्य के पाठक को, मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में फंतासी और तिलिस्म की दुनिया से निकालकर सेवासदन जैसी सामाजिक रचना का पाठक बनाया.
ऐसे में प्रेमचंद के धर्म और संस्कृति संबंधी विचार आंदोलनकारी लगते हैं. वह अपने निबंध में लिखते हैं,
‘हिंदू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं हिंदू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति.
अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं, हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं.’
सच ही तो कहा जा रहा है कि जिस धर्म और संस्कृति की रक्षा की दुहाई भारत जैसे हिंदू बहुसंख्यक देश में हिंदुओं द्वारा ही दी जाती है और इसे धर्म से ऊपर उठाकर राष्ट्र और देशभक्ति के स्तर तक पहुंचा दिया जाता है, वहां एक नितांत विशुद्ध संस्कृति की बात करना तो निहायत ही मूर्खता और विडंबना की बात है.
सदियों से साथ रहते-बसते आने वाले दो धर्म अगर विशुद्ध संस्कृति की बात करें तो यह महज राजनीतिक और सियासी बिसात के अलावा और कुछ नहीं है.
कमोबेश यही बात प्रेमचंद भी उस समय कर रहे थे जब उन्हें लगता था कि न केवल ब्रिटिश शासक बल्कि इन दोनों धर्मों के कुछ राजनीति से प्रेरित उच्च वर्ग ही धर्म और संस्कृति के आधार पर जनता में अलगाव खड़ा करना चाहते थे.
प्रेमचंद लिखते हैं,
‘… फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए सांप्रदायिकता इतना जोर बांध रही हैं. वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड. यह सीधे आदमियों को सांप्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मंत्र है और कुछ नहीं.
हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनंत तक एक ऐसी शक्ति की जरूरत समझते हैं, जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे.’
और सच ही जब हम आम जनता को रातों-रात तथाकथित गोरक्षकों में तब्दील होते और दादरी या पहलू खान जैसे लिंचिंग की घटनाओं को अंजाम देते हुए देखते हैं तो लगता है कि हमेशा से कितना आसान रहा है, धर्म और संस्कृति के नाम पर लोगों को हत्यारी भीड़ में तब्दील कर देना.
प्रेमचंद के हिंदू-मुस्लिम एकता या सांप्रदायिकता संबंधी विचारों को आज उनके जन्म के 140 वर्ष बाद याद करने की क्या आवश्यकता है, यह तो अब शायद प्रश्न का विषय नहीं रहा.
पर अब सवाल और विचार के दायरे थोड़े और विस्तृत करने की जरूरत है. प्रेमचंद पर किए गए अपने शोध के दौरान बहुत सारे ऐसे भी लेख या आलोचक मिले, जो प्रेमचंद के धर्म और हिंदू-मुस्लिम एकता संबंधी विचारों में एक असंबद्धता भी देखते हैं.
हिंदी ही नहीं बल्कि अंग्रेजी के भी कुछ आलोचक प्रेमचंद पर इन अर्थों में गंभीर आरोप लगाते हैं कि प्रेमचंद के सांप्रदायिकता विरोधी विचार एक तरह से उस समय के राष्ट्रवादी आंदोलन की जरूरत के तौर पर उभरे थे न कि उनके सहज विश्वास के कारण.
ब्रिटिश से भारत की मुक्ति के लिए आवश्यक था कि दोनों ही क़ौमें एकजुट होकर लड़ें और सांप्रदायिकता की लहरें इस आंदोलन को कमजोर न कर दें इसलिए प्रेमचंद भी लोगों को जोड़ने की बात कर रहे थे.
इसके समर्थन में आलोचक गीतांजलि पांडे ने जबरदस्त मिसालें दी हैं और यह भी लगभग सिद्ध कर दिया है कि प्रेमचंद जिस राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए सांप्रदायिक सहिष्णुता की मांग कर रहे थे, वह एक हिंदू राष्ट्र था, जहां हिंदू का अर्थ-विस्तार होकर राष्ट्र की तरह हो गया था. वो लिखती हैं,
‘In spite of his liberal outlook, he remained at heart a Hindu to the extent of bypassing the Muslims as a whole in his idealised vision of what India was, and also, to some extent, in his vision of what she would become’
(उनके उदारवादी नजरिए के बावजूद वह हृदय से हिंदू रहे और वह अपनी वैचारगी में मुस्लिमों को नजरअंदाज करते रहे.)
वह अपनी चर्चा में इस बात को रेखांकित करती हैं कि हिंदुओं और मुस्लिमों की साझी संस्कृति की वकालत में प्रेमचंद अपनी रचनाओं, कहानियों और उपन्यासों में हर जगह ये जरूर दिखाते हैं कि मुस्लिम पात्र हिंदुओं के त्योहारों, होली-दीवाली में हर्षोल्लास मनाते दिखते हैं, पर कहीं भी हिंदू पात्र मुस्लिमों की ईद में सेवइयां खाते और मुहर्रम में शोक मनाते नहीं दिखते…
भला संस्कृतियों का यह कैसा आदान-प्रदान था, जहां सारी शहादतें और समझौते एक धर्म विशेष से ही करने को कहे जा रहे थे.
इन तर्कों को पढ़ते हुए एकबारगी ऐसा लगता है कि हां, सोचने के लिए तो एक आलोचक के पास हर प्रकार की स्वतंत्रता होती है कि वह अपने प्रिय लेखक पर भी आक्षेप उठाए और अगर कहीं ऐसे बिंदु मिलते हों जो लेखक के विचारों में एक विरोधाभास को पुष्ट करते हों, तो उसे प्रकाश में लाए.
लेकिन सही मायनों में लेखकीय प्रतिबद्धता भी वास्तव में वही है जो गुण और दोष को उसके यथार्थ रूप में देख पाने में सक्षम हो.
प्रेमचंद जैसे रचनाकार व्यक्तित्व के लिए इस प्रकार की वैचारिक असंबद्धता को हमें उनके समय के प्रभावों के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए, न कि किसी पूर्वाग्रह के रूप में.
क्योंकि उस दौर के राष्ट्रवादी नेता भी कहीं-न-कहीं इस विरोधी चेतना से प्रभावित थे और अपनी चिंताओं को समुदाय से बढ़ा कर राष्ट्र-मुक्ति की ओर केंद्रित करने में लगे हुए थे.
पर इन सब बातों के बावजूद भी प्रेमचंद की प्रासंगिकता और उनके रचनाओं में हर स्तर पर दिखने वाली सांप्रदायिक सहिष्णुता की छटा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
उनका मुखर विरोधी भी इस बात से मुंह नहीं मोड़ सकता कि एक ऐसे समय में जब समाज में दो समुदायों के बीच धर्म और संस्कृति के नाम पर जहर घोला जा रहा था, तब प्रेमचंद अपनी गुरबत में भी एक बने रहने की बात कर रहे थे.
प्रेमचंद का विपुल साहित्य इस बात का प्रमाण है कि केवल भाषा के स्तर पर उन्होंने उर्दू और हिंदी में कोई पूर्वाग्रह नहीं किया, जो हम आज के दौर में देखते हैं, बल्कि अपनी रचनाओं में मुस्लिम समुदाय और पात्रों के माध्यम से उनके संसार, उनके स्वप्नों, उनके दुखों को आवाज़ दी.
चाहे फिर वो कहानियों के माध्यम से (ईदगाह, पंचायत, जुलूस, क्षमा, मंदिर और मस्जिद) हों या कर्बला जैसे नाटकों या उपन्यास जैसे प्रेमाश्रम और रंगभूमि से, प्रेमचंद एक ऐसे मानवतावादी लेखक के रूप में नजर आते हैं, जिसने दोनों ही समुदायों के आंतरिक जीवन को एक समान रूप में चित्रित किया.
इनमें कहीं भी प्रेमचंद आपको किसी समुदाय विशेष का पक्ष लेते हुए नहीं दिखेंगे. एक सच्चे प्रगतिशील लेखक होने के ही प्रमाण में उनकी गोमांस संबंधी अवधारणा है, जो हम यहां उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं.
यहां उनके विचारों को जानकर ऐसा लगता है कि वो अपने समय से आगे के लेखक थे. प्रेमचंद लिखते हैं,
‘हां, मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं और उनका मांस खाते हैं लेकिन हिंदुओं में भी ऐसी जातियां मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहां तक कि मृतक का मांस भी नहीं छोड़तीं.
संसार में हिंदू ही एक जाति है, जो गोमांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है तो क्या इसलिए हिंदुओं को समस्त विश्व से धर्मसंग्राम छेड़ देना चाहिए? हिंदू गाय की पूजा स्वयं कर सकते हैं, पर उन्हें दूसरों को भी ऐसे ही करने को बाध्य करने का तो कोई अधिकार नहीं है.’
इसी तरह से प्रेमचंद के विचारों पर हर दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि कोई भी महान लेखक या विचारक अपने समय के सत्य से जुड़कर ही अपनी रचना में अर्थवत्ता ला सकता है.
और प्रेमचंद तो एक ऐसे समय की उपज थे जहां पर आज सरीखे बुद्धिजीवी नहीं हुआ करते थे, जिनका जमीन से कोई वास्ता न हों, पर बातें भले ज़मीनी करते हों.
प्रेमचंद तो अपने सादगी भरे जीवन और फटे हुए जूतों में ही गरीबों की, शोषितों की बात कर रहे थे और इस दृष्टि से एक सच्चे यथार्थवादी थे और अपनी बात कहने के लिए किसी राजनीतिक उपकरण या अस्त्र नहीं बल्कि साहित्य का ही उपयोग कर रहे थे.
ऐसे में सच में दिल को तसल्ली होती है कि साहित्य और उसकी विधाएं आने वाले युगों में भी अपनी अर्थवत्ता बनाए रखेंगे और समाज को अपनी समस्याओं के समाधान इन्हीं पन्नों में मिलेंगे क्योंकि मानव सभ्यता कितनी भी आधुनिक क्यों न हो जाए, उसकी समस्याएं आदम और शाश्वत ही रहेंगी.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)