जिस जगह पर 500 से अधिक सालों तक एक मस्जिद थी, वहां भव्य मंदिर बनेगा. इस मंदिर की आलीशान इमारत की परछाई में मुझे वो भारत डूबता दिख रहा है, जहां मैं पला-बढ़ा. फिर भी मेरा विश्वास है कि यह देश अपने मौजूदा शासकों की नफ़रत से कहीं अधिक बड़ा है.
धीमी गति के किसी उल्का पिंड की तरह धरती की ओरबढ़ने की तरह ही ये दिन भी कई सालों से हमारी ओर बढ़ रहा था और हम जानते थे कि इसे आना ही था. फिर भी 5 अगस्त 2020 को भारतीय लोकतंत्र के लिए एक त्रासदी और क्षति के रूप में याद किया जाएगा.
इतिहास इस तारीख को उस रूप में याद करेगा, जब तमाम विसंगतियों के बावजूद भी भारत के लोकतंत्र की विविधता पर यहां की मौजूदा सरकार ने ग्रहण लगा दिया.
घमंड की भावना से भरी हुई हिंदू वर्चस्ववाद के सिद्धांत पर खड़ी सरकार ने संविधान के मूल्यों के बिल्कुल विपरीत जाकर भारत की नींव हिला दी.
क्या यह त्रासद घटना पहले से तय थी? 30 जनवरी 1948 की दोपहर जब एक प्रार्थना सभा के बाहर महात्मा गांधी के शरीर पर 3 गोलियां दागी गईं, क्या अंतत: जीत उसी विचारधारा की होने वाली थी?
क्या हर मजहब, जाति, वर्ग, लिंग, भाषा और वर्ण के लोगों के साथ समानता का व्यवहार करने वाले देश का निर्माण करना वास्तव में असंभव था? क्या हमने इंसानियत और समान नागरिकता के देश का निर्माण करने के सपने को कई पीढ़ियों तक समाप्त कर दिया?
जब प्रधानमंत्री संविधान की मूल भावनाओं को चोट पहुंचाते हुए मध्यकालीन मस्जिद की जगह पर बनाए जाने वाले हिंदू मंदिर के निजी कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे हैं तो स्पष्ट रूप से उनका ये कृत्य हिंदू धर्म के उग्रवादी और पुरुषवादी तत्वों की जीत है.
इन सभी कार्यक्रमों को इसलिए डिज़ाइन किया गया है ताकि भारत के धार्मिक अल्पसंख्यक समझ जाएं कि डर और दूसरे दर्जे की नागरिकता ही उनका स्थायी ठौर है, यही उनका भविष्य है.
नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी व्यक्ति इस भव्य कार्यक्रम से दूर रहे. वो एक ऐसे वायरस की चपेट में हैं जो न कोई धर्म देखता है न मजहब. लेकिन इतिहास उनकी अनैतिक और क्रूर राजनीति को हमेशा याद रखेगा.
2002 से लेकर राम मंदिर के शिलान्यास तक उसी इंसान ने नरेंद्र मोदी की सबसे अधिक मदद की है. प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे करीबी और नफरत की राजनीति के झंडाबरदार योगी आदित्यनाथ इस महोत्सव को ऐतिहासिक बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी.
यह एक क्रूर तथ्य और विडंबना है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस आंदोलन के कर्ता-धर्ता रहे लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी आज नेपथ्य में चले गए हैं.
आडवाणी की रथयात्रा की तस्वीरें आज भी जिंदा हैं. आडवाणी का टोयोटा रथ जहां-जहां से भी गुजरा, वहां ख़ौफ का मंजर पसरा और लाशें बिछीं.
नरेंद्र मोदी उस आंदोलन के समय जूनियर स्वयंसेवक के तौर पर जाने जाते थे. आज जब भारत को बहुसंख्यकवादी देश बनाने का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सपना सच होने जा रहा है, नरेंद्र मोदी इसका गौरव अपने किसी भी पुराने-बुजुर्ग नेताओं से साझा नहीं करना चाहते.
मोदी -अमित शाह- आदित्यनाथ की तिकड़ी ने तो दशकों से चले आ रहे आंदोलन को सिर्फ अंजाम पर पहुंचाया है.
एक सदी से अधिक समय से हिंदू महासभा और आरएसएस जैसे संगठनों के लाखों समर्थक भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की लड़ाई लड़ रहे थे जहां मुसलमानों और ईसाइयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा सके.
बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने और ठीक उसी जगह पर राम मंदिर के निर्माण की मांग रखकर हिंदू राष्ट्र की कल्पना को साकार करने की कोशिश की गई.
बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर निर्माण के आंदोलन ने देश को आजादी के बाद का सबसे भयावह सांप्रदायिक हिंसा दिखाया.
आज जब प्रधानमंत्री राम मंदिर के नींव की औपचारिकता पूरी कर चुके हैं तब हमें याद रखना चाहिए कि आज से दशकों पहले ही यह नींव रखी जा चुकी है.
भागलपुर से लेकर बॉम्बे और भोपाल से लेकर गुजरात तक के दंगे में मारे गए लोगों के खून से यह नींव पहले ही रखी जा चुकी है. इन दंगों के दोषियों और संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले लोगों को बचाकर इस नींव को मजबूत किया गया है.
हालांकि बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर की नींव पड़ने के दोषी (या फिर, अगर आप चाहें, इस शुभ काम में योगदान देने वाले) सिर्फ आरएसएस-भाजपा और उसके समर्थक नहीं हैं.
अगर विपक्षी दल खासकर कांग्रेस ने आजादी की विरासत को बचाए रखने की कोशिश की होती तो आज हमारे देश की ऐसी दुर्गति नहीं हो रही होती.
कांग्रेस पार्टी के नेता समय-समय पर दोमुंही बात बोलते रहे और देश को इस स्थिति में लाने का खुला समर्थन देते रहे.
बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाले प्रधानमंत्री कांग्रेस के ही थे और कांग्रेसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में ही बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया.
कई कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की आंखों के सामने ही सांप्रदायिक दंगों का भयावह दौर चला लेकिन इस पार्टी ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की.
अब भी, जब प्रधानमंत्री द्वारा राम मंदिर की आधारशिला रखी गई, तब ज्यादातर विपक्षी दलों की स्थिति जाल में फंसी हुई मछली की भांति हो गई है. वे इसी उलझन में रहे कि आखिर क्या स्टैंड लिया जाए.
जैसा कि हन्ना अरडेंड्ट ने कहा था, ‘यह दुखद सत्य है कि ज्यादातर गलतियां ऐसे लोग करते हैं जो भ्रम की स्थिति में होते हैं और तय नहीं कर पाते कि सही करें या गलत.’
कांग्रेस में ऐसे कई धड़े हैं जो खुलेआम तौर पर राम मंदिर निर्माण का समर्थन करना चाहते हैं. कांग्रेस की बड़ी नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने ट्विटर पर लिखा, ‘ भगवान राम और माता सीता के संदेश और उनकी कृपा के साथ रामलला के मंदिर के भूमिपूजन का कार्यक्रम राष्ट्रीय एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का अवसर बने.’
वामपंथी दलों को छोड़कर किसी भी पार्टी की हिम्मत यह कहने की नहीं हुई कि प्रधानमंत्री सिर्फ हिंदुओं के नहीं हैं बल्कि पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं और जिस जगह पर एक मस्जिद को तोड़कर मंदिर का निर्माण कराया जा रहा है, वह कभी भी एकता, बंधुत्व और सांस्कृतिक समागम का अवसर नहीं बन सकता.
सच तो यह है कि शिलान्यास का यह महोत्सव देश की विविधता और सांस्कृतिक विरासत को ब्राह्मणवादी और कट्टपंथी हिंदुओं के हाथों में सौंपे जाने का प्रमाण है. कोई नेता आज मुसलमानों को इतना भी नहीं कह पा रहा है कि वो बहुसंख्यकवादी तत्वों से उनके अधिकारों और संस्कृति की रक्षा के लिए खड़ा होगा.
सत्ताधारी दल के समर्थक कह सकते हैं कि यह लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार है जिसके कामों पर मुहर लगाते हुए जनता ने लगातार दूसरी बार अपार समर्थन दिया है इसलिए वो अपनी विचारधारा और मंशा के अनुसार बदलाव कर सकती है.
अगर हम भाजपा के वोट शेयर को गौर से देखें तो पता चलेगा कि इस पार्टी को कुल वोट का 37.6 प्रतिशत हासिल हुआ है जिसमें 36 प्रतिशत वोटर हिंदू हैं.
52 प्रतिशत हिंदू वोटरों ने भाजपा नीत एनडीए को वोट दिया था. साथ ही ऊंची जातियों के अधिकतर वोटरों ने भाजपा का साथ दिया. 2019 के चुनाव में हर तीसरे दलित वोटर ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया.
2014 में जिस नरेंद्र मोदी ने विकास और रोजगार का सपना दिखाया था उन्होंने 2019 का चुनाव कट्टर हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ा. इसलिए मोदी जी का ऐसा मानना लाजिमी है कि ज्यादातर हिंदू वोटरों ने उन्हें हिंदू राष्ट्र की थ्योरी पर ही काम करने के लिए चुना है.
लेकिन हमारे सामने 1930 के दशक में नाजी जर्मनी का उदाहरण पड़ा है. जहां हम देख सकते हैं कि एक चुनी हुई सरकार एक खास धर्म और वर्ण को तुष्ट करने के लिए कैसे मानवतावादी लोकतंत्र का गला घोंटती है.
उस लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं है जो अपने हरेक अल्पसंख्यक को बहुसंख्यकों की हिंसा और अत्याचार से नहीं बचा सके.
मैंने इस लेख के शुरुआत में पूछा था कि क्या हम पहले से ही तय था कि एक न एक दिन प्रेम के ऊपर नफ़रत की जीत होगी?
राम मंदिर की आधारशिला रखकर प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीतिज्ञ अशोक वार्ष्णेय के शब्दों में एक ‘अनुदार लोकतंत्र’ की नींव रखी है.
जिस जगह पर 500 से अधिक सालों तक एक मस्जिद थी, वहां एक भव्य मंदिर बनेगा अब एक सच्चाई है. इस मंदिर की आलीशान इमारत की परछाई में मुझे वो भारत डूबता होता दिख रहा है, जहां मैं पला-बढ़ा.
फिर भी मेरा विश्वास है कि यह देश अपने मौजूदा शासकों के नफ़रत से कहीं अधिक बड़ा है और इसका मोहब्बत और इंसानियत का सूरज हमेशा के लिए अस्त नहीं हुआ है.
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
(मूल अंग्रेज़ी लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित)