नई शिक्षा नीति बाज़ार के रास्ते के बचे रोड़े हटाने की कवायद भर है

अगर सरकार शिक्षा व्यवस्था में सुधार को लेकर गंभीर है, तो उसे इस पर संसद में बहस चलानी चाहिए. किसी बड़ी नीति में बदलाव के लिए हर तरह के विचारों पर जनता के सामने चर्चा हो. इस तरह देश की विधायिका को उसके अधिकार से वंचित रख शिक्षा नीति बदलना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने जैसा है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

अगर सरकार शिक्षा व्यवस्था में सुधार को लेकर गंभीर है, तो उसे इस पर संसद में बहस चलानी चाहिए. किसी बड़ी नीति में बदलाव के लिए हर तरह के विचारों पर जनता के सामने चर्चा हो. इस तरह देश की विधायिका को उसके अधिकार से वंचित रख शिक्षा नीति बदलना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने जैसा है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

इस देश में नीतियां तो बहुतेरी बनती है, लेकिन जिस आम जनता के भले के नाम पर यह नीतियां बनती है न तो उन नीतियों को बनाने में और न उनके विश्लेषण उसकी कोई भूमिका होती है.

आमतौर पर किसी भी नीति की अच्छाई और बुराई को समझने का जिम्मा भी मीडिया, तथाकथित बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों के भरोसे छोड़ देते है.

यही हाल नई शिक्षा नीति के साथ हो रहा है. विश्लेषक कुछ भी कहे मगर आम आदमी को यह शिक्षा नीति पल्ले नहीं पड़ रही, वो भौंचक्का है! क्यों?

क्योंकि वो अपने आसपास लगातार बंद होते सरकारी स्कूलों और कुकरमुत्तों की तरह उगते हिंग्लिश माध्यम [इंग्लिश] के निजी स्कूलों को देख रहा है, जिनके पास न तो ढंग की बिल्डिंग है, न शिक्षा और न ही ढंग के शिक्षक.

वो तो इस चिंता में डूबा है कि उसे उसका रोजगार कब वापस मिलेगा? कब उसका बच्चा वापस स्कूल जा पाएगा? जा पाएगा भी या नहीं? अगर उसे रोजगार नहीं मिला, तो वो उसकी स्कूल की फीस कैसे भरेगा?

लेकिन इन सवालों के जवाब देने की बजाय मोदी सरकार ने उसे एक ऐसी शिक्षा नीति पकड़ा दी, जिसमे में पढ़ाई के तरीके, उसके माध्यम, सिलेबस, यहां तक कि उसका पूरा ढांचा ही बदल दिया गया.

आर्थिक दबाव से टूटता उसका परिवार और, पटरी से उतरी सरकारी और निजी शिक्षा व्यवस्था इस अचानक हुए इस बदलाव को कैसे ले पाएगी, यह उसकी समझ से परे है!

राज्य सरकारों, जिन्हें इस नीति को लागू करना है, के पास नियमित खर्चो के लिए बजट नहीं है, निजी स्कूलों को फीस न मिलने से उन्होंने अपने शिक्षकों को तनख्वाह तक देना बंद कर दिया है. और इनके आर्थिक हालात आने वाले दो साल के पहले तो सामान्य होते नहीं दिखते.

अगर मोदी जी सरकारी रिपोर्ट्स में दबे आंकड़ो को देखते, तो उन्हें समझ आता कि आज देश में शिक्षा के हालात क्या है.

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 75वें दौर (2017 से जून 2018) की रिपोर्ट- ‘भारत में शिक्षा पर पारिवारिक सामजिक उपभोग के मुख्य संकेतक, जो नवंबर 2019 में जारी हुई, के आंकड़ो को देखें तो हमें शिक्षा में ग्रामीण-शहरी क्षेत्र और महिला-पुरुष और क्षेत्रीय विषमताओं का एहसास होगा.

गांव, जहां देश की 70% जनसंख्या रहती है, वहां 15 साल से ऊपर की 41.2% महिलाऐं निरक्षर हैं, तो 20.4% प्राथमिक स्तर तक ही पढ़ाई कर पाती है. ग्रामीण पुरुषों में 22.2 निरक्षर हैं, तो 21.2 सिर्फ प्राथमिक स्तर पढ़े-लिखे हैं.

सब जानते हैं कि गांव के स्कूल में प्राइमरी होना मतलब नाममात्र का साक्षर. इसका मतलब लगभग 60% ग्रामीण महिलाओं और 42% ग्रामीण पुरुषों को आज भी लिखना पढ़ना नहीं आता.

इस देश में 90% बच्चे कॉलेज के स्तर तक आते-आते अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं. इसी रिपोर्ट के अनुसार देश में 15 साल से ऊपर की उम्र के सिर्फ 10.6% लोग ही स्नातक या उससे ऊपर तक पढ़े-लिखे हैं.

ग्रामीण व्यक्तियों में यह प्रतिशत 5.7 है, तो शहरी व्यक्तियों में यह 21.7 है. वही ग्रामीण महिलाओं में यह 3.9 प्रतिशत है, तो पुरुषों में 7.4 प्रतिशत.

अगर इन आंकड़ो को क्षेत्रीय और सामाजिक आधार पर देखें, तो यह विषमता और गहरी होती दिखेगी.

रिपोर्ट के अनुसार 3 से 35 वर्ष के पुरुषों में पढ़ाई छोड़ने का प्रमुख कारण आर्थिक है: 36.9% पुरुष किसी न किसी रोजगार में लगे होने के कारण, तो 24.3% आर्थिंक तंगी के चलते, यानी कुल लगभग 61% पुरुष आर्थिक कारणों से पढ़ाई छोड़ देते हैं.

जबकि इसी सर्वेक्षण की 2014 की रिपोर्ट में यह आंकड़े क्रमश: 31% और 23.6% हैं. यानी आर्थिक कारणों से स्कूल-कॉलेज न जा पाने वालों का प्रतिशत जो 2014 में 55% था, वो 2018 में बढ़कर 61% हो गया.

वहीं, आर्थिक कारणों के अलावा लड़कियां घरेलू काम और शादी होने के चलते पढ़ाई छोड़ देती हैं. लेकिन इस शिक्षा नीति में इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि मां -बाप आर्थिक रूप से कैसे सक्षम बने कि वो अपने बच्चों को बिना किसी रुकावट के स्कूल भेज सकें.

बल्कि इस नीति में ड्रॉप आउट से निपटने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने, काउंसलर और प्रशिक्षित कार्यकर्ता रखने और प्रवासी कामगारों के बच्चों के लिए एनजीओ के माध्यम से स्कूल खोलने की बात है.

इस नीति में पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा/ क्षेत्रीय भाषा/ स्थानीय भाषा में देने की बात जरूर है. यह अच्छा सुझाव है. मगर यह मात्र सुझाव भर रह जाएगा.

कारण, आज हालात यह है कि हर राज्य में वहां की प्रादेशिक भाषा के सरकारी स्कूल बड़ी संख्या में बंद होते जा रहे है, चाहे हिंदी भाषी प्रदेश हो या कोई अन्य भाषा बोलने वाला प्रदेश. सब जगह अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई करवाने वाले निजी स्कूल कुकरमुत्ते की तरह पैदा हो गए है.

किसी भी सरकार को अपने इलाके की मातृ भाषा/क्षेत्रीय भाषा/ स्थानीय भाषा का सही अंदाज नहीं है, उसकी पढ़ाई के लिए सामग्री और मानव संसाधन तैयार करना तो बहुत ही दूर की बात है.

उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश में बैतूल, हरदा, छिंदवाड़ा और खंडवा चारों जगह आदिवासी भाषा कोरकू को ही अलग-अलग तरह से बोला जाता है.

अगर सरकार वाकई इस बात के लिए गंभीर होती, तो उसके लिए बाकायदा राज्यों से चर्चा करती और पहले इस बात का आकलन करती.
यह संभव नहीं है, ऐसा नहीं है.

इसमें सबसे चर्चित उदाहरण प्रशांत महासागर में बसे एक छोटे से देश पापुआ न्यू गिनी का है. इसे 1975 में अंग्रेजों से संपूर्ण आजादी मिली.

इसकी जनसंख्या मात्र 52 लाख है, लेकिन भाषा और संस्कृति की विविधता में यह हमसे कई गुना आगे है.

वहां दुनिया की 6,000 भाषाओं का एक छठवां हिस्सा बोला जाता है. इस देश ने तमाम आर्थिक संकटों के बावजूद 1990 के दशक में अपनी औपनिवेश काल की शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव किया.

नर्सरी से दूसरी तक पांच साल की बुनियादी प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजी की बजाय स्थानीय भाषाओं में देना शुरू की. यहां लगभग 400 स्थानीय भाषाओं में यह प्राथमिक शिक्षा दी जाती है.

नई शिक्षा नीति में भारतीय संस्कृति और परपंरा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात है. सब जानते है कि भारतीय जनता पार्टी और उसकी आरएसएस की इस बारे में क्या सोच है.

वे वैसे ही लंबे समय से शिक्षा के भगवाकरण में लगे हैं, अब पूरा पाठयक्रम बदलने के नाम पर यह आसानी से हो जाएगा.

इसमें लोक विद्या और हर बच्चे को एक कोई पेशा सिखाने की बात भी कही गई है. जिस देश की दो तिहाई जनता मेहनतकश और किसी न किसी हुनर को जानने वाले वर्ग से आती हो और बेरोजगारी से जूझ रही हो, जिसके बच्चे अपने हुनरमंद पिता की माली हालात और तिरस्कार देख-देखकर उनका पेशा अपनाने से कतराते हो, वहां बच्चों को अपने घर की बजाय स्कूल में इस तरह का पेशा सिखाने की बात बेमानी है.

हमारे देश में कमी हुनर की नहीं, उसके सम्मान की है. असल में, सरकार नई शिक्षा नीति में कुछ बड़ी-बड़ी बातें कर शिक्षा के निजीकरण के रास्ते में जो रोड़े बचे है, उन्हें हटाना चाहती है और बाजार की मांग के अनुसार शिक्षा नीति को ढालना चाहती है.

आत्मनिर्भर बनाने की बातें करते-करते सरकार देश के दरवाजे अमेरिका और यूरोप के बड़े-बड़े निजी विश्वविद्यालयों के लिए खोलना चाहती है. इसलिए उन्हें न सिर्फ देश में अपने संस्थान खोलने की इजाज़त दे दी गई बल्कि उनके अनुरूप बदलाव किए गए.

इतना ही नहीं, सरकार पिछले दो सालों से यूजीसी का अस्तित्व खत्म करने में लगी है. इसके लिए सरकार ने हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया एक्ट, 2018 को मंजूरी भी दे दी थी.

इसमें विश्वविद्यालयों को ग्रांट देने के अधिकार छीन लेने की बात थी. लेकिन यह संसद में पेश नहीं किया गया.

अब इस नई शिक्षा नीति में हायर एजुकेशन ग्रांट काउंसिल को स्थापित करने की बात है. कुल मिलाकर इन संस्थाओ के जरिए स्वायत्तता देने के नाम पर आने वाले समय में उच्च शिक्षण संस्थानों को अपनी वित्तीय व्यवस्था खुद करने के लिए छोड़ दिया जाएगा.

अगर सरकार शिक्षा व्यवस्था में सुधार को लेकर वाकई गंभीर है, तो उसे देश की संसद में इस पर लंबी बहस चलानी चाहिए. अगर सरकार किसी भी नीति में कोई बड़ा परिवर्तन करती है, तो सवाल उसके सही या गलत होने का नहीं होता है.

असली सवाल उस पर चर्चा कर हर तरह के विचारों, सवालों, सुझावों और आलोचनाओं पर खुले में चर्चा कर उसे जनता के सामने लाने का होता है. यह काम देश की संसद और राज्यों की विधानसभा में ही हो सकता था.

देश की विधायिका को उसके अधिकार और कर्तव्य से वंचित रख शिक्षा नीति को बदलना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने जैसा है.

(लेखक समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)