भाजपा शासित राज्यों में गोशालाओं में बदइंतज़ामी के चलते लगातार गायों की मौत हो रही है, लेकिन वे गाय के प्रति अपना ‘प्रेम’ उजागर करने में नित नये क़दम बढ़ाते रहते हैं.
मथाना, हरियाणा की गोशाला में दो तीन के अंदर 35 गायों की मौत का प्रसंग रफ़्ता रफ़्ता पीछे चला गया है. चंद रोज़ पहले जब वह मामला सुर्ख़ियों में आया तब गायों की मौत की कई वजहें बताई गई थीं. कहा गया था कि बारिश के चलते जलभराव हो गया और उसी में धंस कर कुछ गायें मर गईं तो कुछ भूख से मर गईं.
मथाना ग्राम के निवासियों के हवाले से यह भी बात सामने आई थी कि विगत कुछ समय से राज्य के तमाम गोशाला में पशुओं की भीड़ बेतहाशा बढ़ गई है जिनके पास न रखने और न उनकी देखभाल करने के लिए संसाधन मौजूद हैं.
अब इस मामले में सुर बदल गया दिखता है. पशुओं के डाॅक्टर या अन्य वालेंटियर को उद्धृत करते हुए ‘मीडिया की अतिरंजकता’ आदि की बातें की जा रही हैं.
बहरहाल, इस बदले सुर में इस सच्चाई पर परदा नहीं गिरेगा कि मथाना की इस गोशाला में 600 से अधिक गायें रखी हुई थीं – जिनमें से कुछ को इन मौतों के बाद दूसरी गोशालाओं में भेज दिया गया था – जिन्हें सरकार की तरफ से हर साल प्रति गाय के हिसाब से डेढ सौ रुपये मिलते हैं. ज़ाहिर सी बात है कि इतने कम बजट में बाक़ी बची गायों का ज़िंदा रहना भी आश्चर्य ही है.
और न ही इस हक़ीकत पर परदा पड़ेगा कि राज्य में अत्यधिक सक्रिय स्वयंभू गोरक्षक – जिन्हें केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले ‘नरभक्षक’ नाम से संबोधित करते हैं – जो अपनी उन तमाम हिंसक कार्रवाइयों के लिए दुनिया भर में कुख्यात हो चले हैं, जिसके तहत वह दुधारू पशु ले जाने वाले वाहनों पर हमले करते हैं, अनधिक्रत वसूली करते हैं, निरपराध लोगों को पीटते हैं, गायों की इन अस्वाभाविक मौतों को लेकर बिल्कुल ख़ामोश रहे.
अभी पिछले ही साल उत्तर प्रदेश के मुस्तैन की स्वयंभू गोरक्षकों के हाथों कुरूक्षेत्र में हुई अस्वाभाविक मौत का मसला सभी को याद ही होगा, जिस मामले में अपराधियों पर कार्रवाई करने के लिए अदालत को आदेश देना पड़ा था.
किसी के पास महज बीफ होने की अफवाह के चलते उग्र होनेवाले यह समूह, न उद्वेलित हुए और न ही उन्होंने गोशाला के संचालक को या अन्य कर्मचारियों के ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा दर्ज करने की बात कही, न कुछ हंगामा किया.
गायों की मौत जब सुर्ख़ियां बनी थीं तब यह प्रश्न भी उछला था कि क्या हरियाणा की सरकार इस असामयिक एवं अस्वाभाविक मौतों के लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराने वाली है, किसी को दंडित करने वाली है या नहीं.
फ़िलवक्त़ वह सवाल भी बेमानी हो गया है. और यह सब इस तथ्य के बावजूद कि हरियाणा वह सूबा है जहां गायों की रक्षा के लिए मुल्क में सबसे सख़्त क़ानून बना है.
दिलचस्प है कि गोशाला में भूख से या प्रबंधन की लापरवाही से मरती गायें या प्लास्टिक के सेवन से आए दिन दम तोड़ती गायों को लेकर स्वयंभू गोरक्षकों की चुप्पी एक वास्तविकता है, मगर वह उस वक्त अत्यधिक सक्रिय हो उठते हैं, जब मीडिया में सुर्ख़ियां बटोरने की गुंजाइश हो.
दो साल पहले जयपुर में आयोजित कला प्रदर्शनी में जब एक कलाकार ने प्लास्टिक के सेवन से हो रही गायों की मौत के मसले को जब अपने इन्स्टालेशन के ज़रिये उजागर करना चाहा, तब उनका गोप्रेम जाग गया था.
कलाकार ने प्लास्टिक की बनी गाय लटका वहीं परिसर में लटका दी. प्रदर्शनी में शामिल तमाम लोग अन्य कलाकृतियों की तरह उसे भी निहार रहे थे, मगर प्लास्टिक की गाय को लटका देख कर शहर के स्वयंभू गोभक्तों की ‘भावनाएं आहत हुईं’ और उन्होंने न केवल प्रदर्शनी में हंगामा किया बल्कि पुलिस बुलवा ली, जिसने खास पुलिसिया अंदाज़ में कलाकार एवं प्रदर्शनी के आयोजक दोनों को पुलिस स्टेशन ले जाकर प्रताड़ित किया.
इन आहत भक्तों के लिए यह सच्चाई कोई मायने नहीं रखती थी कि गायों की अस्वाभाविक मौतों के तमाम अध्ययन यही बताते हैं कि उनकी असामयिक मौत का अहम कारण उनके द्वारा प्लास्टिक कचरे का सेवन करना है.
अगर हम यूटयूब पर उपलब्ध ‘प्लास्टिक काउ’ नामक लगभग आधे घंटे की डाक्युमेंट्री देखें – जिसका निर्माण पुट्टापर्थी नामक आंध्र प्रदेश की संस्था ने किया है तथा जिसे कुणाल वोहरा ने बनाया है, तो वह इस मसले पर अलग अलग कोणों से निगाह डालती है.
डाक्युमेंट्री में गाय की हुई मौत के बाद पशु सर्जनों द्वारा उस पर किए गए आपरेशन को भी दिखाया गया है, जिसमें एक गाय के पेट से लगभग 52 किलोग्राम प्लास्टिक के थैले निकालते दिखाए गए हैं.
मथाना गोशाला में गायों की मौत पर रफ़्ता रफ़्ता पसरते मौन ने बरबस जयपुर की हिंगोनिया गोशाला में हुई गायों के मौत के मसले की यादें ताज़ा की हैं. पिछले साल अगस्त माह में वहां दो सप्ताह में वहां 500 से अधिक गायें मरी थीं. (एनडीटीवी, 6 अगस्त 2016)
मामला इतना गंभीर था कि राजस्थान उच्च अदालत ने भी इस मामले का संज्ञान लिया था और अपनी टीम भेजी थी. अगर बारीक़ी से पड़ताल करें तो नज़र आ सकता है कि हिंगोनिया एवं मथाना दोनों ही स्थानों पर हुई मौतों में काफ़ी समानता रही है.
दोनों स्थानों पर पशुओं को जहां बांधा जाता है वही जगहें उनके लिए मौत का शिकंजा बन गईं क्योंकि वहां गोबर एवं कीचड़ से जो दलदल मची है, उसमें ही वह फंस गए थे.
चाहे हरियाणा हो या राजस्थान, इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि भाजपा शासित राज्यों में तड़प कर गायों का मरना या सरकार का इसके प्रति बेसुध होना कोई अपवाद नहीं है.
दो साल पहले देश के अग्रणी अख़बार (द हिंदू, 7 दिसम्बर 2015) में उपरोक्त हिंगोनिया गोशाला के प्रभारी मोहिउद्दीन के साक्षात्कार के साथ लंबी रिपोर्ट छपी थी, जो बता रही थी कि जयपुर म्युनिसिपल कार्पोरेशन के तत्वावधान में उस वक्त संचालित इस गोशाला में – जहां नौ हजार से अधिक गायें रखी गयी हैं – ‘आए दिन लगभग 30 से 40 गायें मर रही हैं, मगर उनका कोई पुरसाहाल नहीं है. न खाने पीने के सही साधन हैं और न बीमार गायों के इलाज का कोई ठीक उपाय; लिहाजा, 200 से अधिक कर्मचारियों वाली इस गोशाला में गायों की मौतों पर काबू नहीं हो पा रहा है.’
हिंगोनिया गोशाला के गो मरणशाला में हो रहे रूपांतरण के मद्देनजर यह सवाल भी उन दिनों उठा था कि राज्य में स्वतंत्र गोपालन मंत्रालय होने के बावजाूद इस मसले पर कुछ करना उसके लिए क्यों नहीं संभव हो पाया, तब पता चला था कि असली मामला बजट का था और जबसे मोदी सरकार बनी है उसने जिस तरह सामाजिक क्षेत्र के मामलों की सबसिडी में कटौती की है, उसका असर पशुपालन, डेयरी तथा मत्स्यपालन विभाग पर भी पड़ा है.
दो साल पहले की तुलना में बीते साल 30 फ़ीसदी की कटौती की गई थी. वैसे अपनी सार्थकता दिखाने के लिए उपरोक्त गोपालन मंत्रालय द्वारा गोमूत्र से बने एक द्रव्य का इस्तेमाल फिनाइल की जगह किया जाने लगा है, जिसे जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में प्रयोग किया जाने लगा है.
भले ही अपनी हुक़ूमत में गायों की मौत पर काबू नहीं हो पा रहा हो, सरकार द्वारा समर्थित गोशालाओं में बदइंतजामी के नए नए सबूत सामने आ रहे हों, यह देखने में आ रहा है कि भाजपा शासित राज्य गाय के प्रति अपने ‘प्रेम’ को उजागर करने के दिशा में नित नये क़दम बढ़ाते रहते हैं. वह जानते हैं कि उसी बहाने वह विशिष्ट समुदायों के प्रति नफरत की भावना को अपने हक़ में इस्तेमाल कर सकते हैं.
इस सूची में ताज़ा नाम महाराष्ट्र का जुड़ा है, जहां आसानी से प्रयुक्त होने वाले बीफ डिटेक्शन किट अर्थात गोमांस की जांच करने वाले छोटे उपकरण अब राज्य के पुलिसकर्मियों को सौंपे जाएंगे.
कहा जा रहा है कि इस उपकरण के प्रयोग से महज तीस मिनट के अन्दर कोई यह पता लगा सकता है कि मीट किस जानवर का है. सूचना मिली है कि महाराष्ट्र सरकार के अपराध विज्ञान प्रयोगशाला इस उपकरण/किट को विकसित कर रही है, जो आठ हजार रुपये में मिलेगा.
तर्क यह दिया जा रहा है कि किसी मीट के बीफ होने या न होने को लेकर जांच में कुछ दिन लग जाते हैं जबकि इन उपकरणों से वक्त की बचत होगी.
गोरक्षा के नाम पर खड़े उग्र समूह हों या पुलिस के हाथों सौंपी जा रही बीफ डिटेक्शन किट हो, कोई भी देख सकता है कि इसी बहाने बीफ बैन और कथित गोरक्षा के नाम पर जारी घृणित राजनीति को ही मज़बूत किया जा रहा है.
बीते साल ऊना, गुजरात में हिंदू शिवसेना से जुड़े गोरक्षकों द्वारा दलितों को पीटे जाने को लेकर जो आंदोलन की स्थिति बनी थी, इस मसले पर बात करते हुए गुजरात सरकार के चीफ सेक्रेटरी जनाब जीआर ग्लोरिया ने गोरक्षा के नाम पर चल रही इसी गुंडागर्दी को रेखांकित किया था.
उन्होंने बताया था कि समूचे गुजरात में दो सौ से ऐसे गोरक्षा समूह उभरे हैं जो ‘अपने आक्रमण के चलते तथा जिस तरह वह कानून को अपने हाथ में लेते हैं उसके चलते क़ानून और व्यवस्था का मसला बने हैं. उन्होंने यह भी जोड़ा था कि ऐसे समूहों के ख़िलाफ़ हम सख़्त कार्रवाई करने वाले हैं क्योंकि भले ही यह ‘स्वयंभू गोभक्त हों मगर वास्तव में गुंडे हैं.’ (देखें, द हिंदू, 22 जुलाई 2016)
ऊना की घटना के बहाने चली चर्चा में जदयू के सांसद शरद यादव ने सवाल उठाया था कि ‘इन गोरक्षकों का निर्माण किसने किया? सरकार ऐसे समूहों पर पाबंदी क्यों नहीं लगा सकती है? यह क्या तमाशा चल रहा है? हम तालिबान की बात करते हैं लेकिन हमारी जाति व्यवस्था का ढांचा भी तालिबान जैसा है, उसके बारे में भी हमें बात करनी चाहिए.’
यह वही समय था जब पंजाब हरियाणा उच्च अदालत ने भी इसी बात को रेखांकित किया था. अदालत का कहना था कि ‘गोरक्षा की दुहाई देते हुए बने हुए कथित प्रहरी समूह जिनका गठन राजनीतिक आंकाओं एवं राज्य के वरिष्ठ प्रतिनिधियों की शह पर हो रहा है, जिनमें पुलिस भी शामिल है, वह क़ानून को अपने हाथ में लेते दिख रहे हैं.’
दिलचस्प बात है कि गोभक्ति की कोई परिभाषा नहीं है. मनुष्य की तुलना में एक चतुष्पाद जानवर को महिमामंडित करने में दक्षिणपंथी संगठनों के मुखपत्रों कोई गुरेज नहीं है. याद करें कि झज्जर में 2003 में जब मरी हुई गायों को ले जा रहे पांच दलितों को जब पीट पीट कर ऐसे ही गोरक्षा समूहों की पहल पर मारा गया था, तब इन्सानियत को शर्मसार करने वाले इस वाकये को लेकर इन्हीं संगठनों के एक शीर्षस्थ नेता का बयान था कि पुराणों में इंसान से ज़्यादा गाय को अहमियत दी गई है.
वैसे गाय को लेकर अत्यधिक संवेदनशील तमाम ‘भक्तों’ को यह बताया जा सकता है कि जिन्हें वह अपना हीरो मानते हैं वह विनायक दामोदर सावरकर गाय को लेकर क्या कहते थे, ‘गाय एक तरफ़ से खाती है और दूसरी तरफ से गोबर और मूत्र विसर्जित करती रहती है. जब वह थक जाती है तो अपनी ही गंदगी में बैठ जाती है. फिर वह अपनी पूंछ (जिसे हम सुंदर बताते हैं) से यह गंदगी अपने पूरे शरीर पर फैला लेती है. एक ऐसा प्राणी जो स्वच्छता को नहीं समझता, उसे दैवीय कैसे माना जा सकता है? ईश्वर सर्वाेच्च है, फिर मनुष्य का स्थान है और उसके बाद पशु जगत है. गाय को दैवीय मानना और इस तरह से मनुष्य के ऊपर समझना, मनुष्य का अपमान है.’