पेरियार ने कहा था, ‘हमें यह मानना होगा कि स्वराज तभी संभव है, जब पर्याप्त आत्मसम्मान हो, अन्यथा यह अपने आप में संदिग्ध मसला है.’ भारतीय संविधान की उद्देशिका बताती है कि भारत अब एक संप्रभु और स्वाधीन राष्ट्र है, लेकिन इसे अभी ‘स्वतंत्र’ बनाया जाना बचा हुआ है.
क्या स्वाधीनता और स्वतंत्रता (या आज़ादी) दोनों शब्दों के मायने एक ही हैं? मुझे लगता है कि इन दोनों शब्दों के मायने एक नहीं है.
स्वाधीनता का मतलब है अपने राज्य, अपनी व्यवस्था के अधीन होना. कोई दूसरा राष्ट्र हमारा कानून, नियम और व्यवस्था नहीं बनाता है, न ही हम पर शासन करता है.
मुल्क के स्वाधीन होने का मतलब होता है कि वहां के लोगों को अपनी व्यवस्था बनाने के लिए सरकार चुनने का राजनीतिक अधिकार मिल गया.
देश के स्वाधीन हो जाने का मतलब है कि लोग अपने लिए जिस सरकार को चुनेंगे, वह सरकार देश के लोगों को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकारों के साथ जीवन जीने के अवसर, संसाधन और स्वतंत्रता का अधिकार उपलब्ध करवाएगी.
लेकिन केवल स्वाधीन होने का मतलब यह नहीं है कि अपनी सरकार बन जाने के बाद भी एक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार मिल जाए. इसका मतलब यह भी नहीं है कि नागरिक अपनी सरकार की नीतियों की समीक्षा करने के लिए स्वतंत्र हो जाए.
जब व्यक्ति को अपने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक अधिकारों का उपयोग करने का अधिकार न मिले, तब तक वह स्वाधीनतापूर्ण नहीं है.
हम पराधीनता से स्वाधीनता पर पहुंच गए हैं, लेकिन स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक पहुंचना अभी बाकी है क्योंकि छुआछूत बाकी है, भेदभाव बाकी है, भारी आर्थिक असमानता है. भुखमरी और बेकारी भी बाकी है.
रामासामी पेरियार ने वर्ष 1927 में कहा था कि ‘हमें यह मानना होगा कि स्वराज (यानी अपना राज) तभी संभव है, जब पर्याप्त आत्मसम्मान हो, अन्यथा यह अपने आप में संदिग्ध मसला है.’
वर्ष 1600 में जब से भारत में पुर्तगाली, फ्रांसीसी और ब्रिटिश उपनिवेशवादी समूह आए तब से लेकर 15 अगस्त 1947 तक लगातार भारत की राज्य और राज व्यवस्था कमजोर होती गई.
पहले पुर्तगालियों ने और फिर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत की उत्पादन व्यवस्था (कपड़े, मसाले, अनाज, हथकरघा आदि) को अपने नियंत्रण में लेकर उसे कमजोर किया, और फिर वर्ष 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने ईस्ट इंडिया कपनी से प्रत्यक्ष रूप से भारत को अपने नियंत्रण ले लिया.
इसके बाद ही ब्रिटिश सम्राट के मातहत भारत में पुलिस कानून, वन विभाग जैसे ढांचे खड़े किए गए ताकि व्यवस्था पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण मजबूत बना रहे.
हमें यह याद रखना होगा कि शासन चाहे अपनी सरकार का हो, या फिर बाहरी सरकार का, शासन के लिए नियम-कायदे जरूर बनाए जाते हैं.
महत्वपूर्ण यह होता है कि उन कायदों और कानूनों का मकसद क्या है और उन्हें किस तरह से लागू किया जाता है?
भारत अंग्रेजों के बनाए कई कानूनों का उनकी मूल भावना के साथ अब भी पालन करता है, मसलन 22 मार्च 1861 को बना हुआ पुलिस अधिनियम, जिसका मकसद ब्रिटिश सम्राट के खिलाफ होने वाले विद्रोह को कुचलना था.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872, शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 और भारतीय दंड संहिता, 1860, जो सरकार से असहमत हो, उसे राजद्रोही मानने वाला कानून अब भी जारी है.
यानी स्वाधीन भारत ने उपनिवेशवाद के कुछ टुकड़े तो बचाकर रख ही लिए थे.
संविधान सभा ने दिसंबर 1946 में संविधान का मूलभूत अधिकारों वाला हिस्सा सबसे तैयार किया गया. आज़ाद होने से पहले ही संविधान सभा ने मूलभूत अधिकारों का ढांचा स्वीकार भी कर लिया था.
भारतीय स्वतंत्रता के राष्ट्रवादी आंदोलन और संविधान सभा ने यह माना था कि भारत के नागरिक स्वतंत्र होने का एहसास तभी कर पाएंगे, जब उन्हें यह विश्वास हो जाएगा कि अब उन्हें कारागार में नहीं डाला जाएगा, उनका शोषण नहीं होगा, वे देश में कहीं भी आ-जा सकेंगे, अपने विचारों को बेखौफ अभिव्यक्त कर सकेंगे, बच्चों को शिक्षा और सुरक्षा का अधिकार मिलेगा, उनकी अपनी सरकार होगी, जो नागरिकों की संपत्ति नहीं छीनेगी और उन्हें लोगों को गरीबी के जाल से मुक्त कराएगी.
स्वाधीन भारत ने एक अपने लिए एक सपना बुना, भारत के संविधान की उद्देशिका यह बताती है कि भारत अब एक संप्रभु और स्वाधीन राष्ट्र है, लेकिन इसे अभी ‘स्वतंत्र’ बनाया जाना बाकी है.
सत्ता का हस्तांतरण एक प्रक्रिया रही, लेकिन भारत के लोगों को यह एहसास हो पाए कि वे एक स्वतंत्र राष्ट्र के स्वतंत्र नागरिक हैं, इसके लिए बहुत संघर्ष और परिश्रम की जरूरत थी.
उद्देशिका की इस पंक्ति पर गौर कीजिए- ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’
26 जनवरी 1950, यानी स्वाधीन होने के लगभग 28 महीनों बाद, को आत्मार्पित उद्देशिका में यह नहीं लिखा है कि हम संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य ‘बन गए हैं,’ बल्कि उद्देशिका बताती है कि ‘स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता और समता जैसे मूल्य अभी हासिल नहीं हुए हैं, ‘अर्जित’ किए जाने हैं, जिसके लिए संविधान बना है.
यह उद्देशिका कहती है ‘बनाने, प्राप्त करने और बढ़ाने के लिए.’ मतलब साफ है कि संविधान को लागू करने के लिए नागरिक मूल्यों की शिक्षा को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था का आधार बनाने के लिए सघन पहल करने की जरूरत थी, पर यह पहल बिल्कुल नहीं हुई.
भारत वर्ण और वर्गवादी बंटवारे से ऊपर उठकर संविधान को भारतीय शिक्षा और राजनीतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा नहीं बना पाया.
एक तरफ संविधान छुआछूत-जाति व्यवस्था को खत्म करने का वादा कर रहा था, तो वहीं भारत में पंच से लेकर उच्चतम राष्ट्रीय और संवैधानिक पदों तक जाति और छुआछूत के आधार पर ही जन-प्रतिनिधियों का चुनाव किया जाता रहा.
आज के हालात यह हैं कि दुविधा, दुख और विपन्नता के जाल में फंसा व्यक्ति यदि अपने जनप्रतिनिधि, राज्य के मुखिया और मंत्री या न्यायाधीश की आलोचना कर देता है, तो उसे ‘अपराधी’ करार दिया जाता है.
सरकारें विकास के नाम पर लगातार ऐसी नीतियों को लागू कर रही हैं, जिनसे भारतीय राष्ट्र के नागरिक गहन संसाधन आधारित गरीबी (भूमि, वन, जल, खनिज, वायु और कौशल) की खाई की तरफ धकेला जा रहा है, लेकिन उन नीतियों का नैतिक-राजनीतिक प्रतिरोध करने का अधिकार भी भारत के नागरिकों को या उनके संगठनों को नहीं है.
पर्यावरण संरक्षण का नारा बुलंद करने पर उन्हें कारागार में डाल दिया जाता है और न्यायपालिका, जिससे संविधान निर्माताओं ने अपेक्षा की थी, कि वह संवैधानिक मूल्यों को जन और राष्ट्रहित में परिभाषित करेगी, भी ऐसे विकास के पक्ष में जा खड़ी हुई, जिससे भारत संकट की तरफ और तेजी से बढ़ने लगा है.
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1895 में स्वराज बिल, कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया विधेयक 1925, नेहरू रिपोर्ट 1928, पूर्ण स्वराज घोषणा पत्र 1929 , भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन का घोषणा पत्र (1931), तेज बहादुर सप्रू, बीएन राव, एमएन राय, डॉ. बीआर आंबेडकर के द्वारा बनाए गए दस्तावेजों समेत संविधान या कानून के 24 प्रारूप प्रस्तुत किए गए थे.
इन सभी में सबसे महत्वपूर्ण साझा बात यही थी कि ये देश की स्वाधीनता और व्यक्ति की स्वतंत्रता (जिन्हें मूलभूत अधिकारों के रूप में परिभाषित किया गया) को अलग-अलग रूप में परिभाषित कर रहे थे.
इनके लिए भारत की आज़ादी का मतलब था कि भारत के नागरिकों, बच्चों, महिलाओं, आदिवासियों, अनुसूचित जाति के समुदायों, अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं होगा, उन्हें गरिमा के साथ शोषणमुक्त जीवन जीने का अधिकार हासिल होगा.
भारत से छुआछूत और अस्पृश्यता का खात्मा हो जाएगा, पर ऐसा हुआ नहीं. संविधान बनाने वालों को यह अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि वर्ष 2018 में भारत के केवल 100 अरबपतियों (जिनकी संपदा रुपये में नहीं डॉलर में मापी जाती है) की कुल संपदा 32,964 अरब रुपये (492 अरब डॉलर) होगी, जो उस साल के लगभग 30 करोड़ भारतीयों की एक साल की कमाई के बराबर होगी.
यानी गुलामी की एक नई और बड़ी इबारत स्वाधीन भारत में रची जाएगी. गांव और किसानों के राष्ट्र में वर्ष 2017 में किसान की मासिक आय 8,931 रुपये थी, जिसमें से खेती से 3,140 रुपये अर्जित हो रहे थे, जबकि 3,025 रुपये मजदूरी से.
यानी श्रम करने वाला किसान अब किसान मजदूर बन गया है, क्या किसान स्वतंत्र हुआ? नहीं, 52% किसान कर्जे में दबे हुए हैं.
साल 2020 आते-आते तक भारत में 20 करोड़ लोग मनोरोगों के शिकार हो गए. 19.50 करोड़ लोग भूख के साथ जीवन जीते हैं.
6 करोड़ से ज्यादा बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं. 23 सालों में 3.50 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली. भारत में एक वक्त में 6 से 7 करोड़ लोग रोजगार विहीन होते हैं.
नवंबर 2019 की स्थिति में भारत के उच्चतम न्यायालय में 59867, विभिन्न उच्च न्यायालयों में 44.75 लाख और निचली अदालतों में 3.14 करोड़ मामले लंबित थे.
नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के अनुसार भारत में 37 लाख मामले न्यायालयों में 10 साल से ज्यादा समय से लंबित हैं.
भारत की न्याय व्यवस्था का एक दुखद चरित्र है समानुभूति का अभाव, जो व्यवस्था को यह महसूस नहीं होने देता है कि न्याय मिलने में देरी अपने आप में बहुत बड़ा अन्याय है.
वर्ष 2018 में भारतीय दंड संहिता के कुल 1.21 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हो गए. इनमें केवल 10.54 % मामलों का ही निपटारा हुआ इनमें से भी केवल पचास फीसदी मामलों में सजा सुनाई गई.
भारत की शिक्षा में भेदभावपूर्ण है. जिनके पास साधन और संपन्नता है, वे बच्चे ऐसे स्कूलों में पढ़ते हैं, जहां शिक्षक भी हैं, परामर्श, खेल, तकनीक, किताबें और माहौल भी.
वहीं जो बच्चे गांव में रहते हैं, उन्हें पढ़ाई करने के लिए 2 से 10 किलोमीटर का सफर करना पड़ता है, उन स्कूलों में अमूमन अप्रशिक्षित शिक्षक होते हैं, किताबें और कलम का स्थान इंतज़ार में होता है.
यानी उनके लिए शिक्षा हासिल करना अपने आप में जीवन का एक बड़ा संघर्ष है. आंकड़े बताते हैं कि लगभग 1 करोड़ बच्चे मजदूरी में धकेले जाते हैं.
द लांसेट में प्रकाशित अध्ययन ‘एपिडेमिक ऑफ पुअर हेल्थकेयर’ के मुताबिक भारत में एक वर्ष में 50 लाख लोगों की मृत्यु होती है, इनमें से एक तिहाई यानी 16 लाख की मृत्यु खराब स्वास्थ्य सेवाओं के कारण होती है.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट- मल्टी डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स- 2019 के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 में 64.50 करोड़ गरीब थे, जो वर्ष 2016-17 में घटकर 37 करोड़ हो गए पर हमारे देश में अब भी गरीबी की सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं हो पाई.
जब तक मौलिक अधिकारों की स्थापना नहीं होती, तब तक उपनिवेशवाद की समाप्ति संभव नहीं होती है. संविधान सभा ने इसे सबसे महत्वपूर्ण माना और जिस विषय पर परामर्श समिति ने सबसे पहली रिपोर्ट प्रस्तुत की, वह विषय था- मौलिक अधिकार.
आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी मौलिक अधिकारों के मांग की जा रही थी. आज़ादी का संघर्ष और मौलिक अधिकारों की स्थापना भारत में समानांतर रूप से चलने वाली प्रक्रिया रही है.
आज़ादी का सबसे अहम् अनुष्ठान महात्मा गांधी ने रचा था. उन्होंने स्वराज्य के मायनों को स्पष्ट करते हुए कहा था कि
‘स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करते रहना. फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का.
यदि स्वराज हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुंह ताकना शुरू कर दें तो वह स्वराज सरकार किसी काम की नहीं होगी’.
विदेशी सत्ता से मुक्त होकर आज़ादी का एक अनुष्ठान पूरा हो चुका था, पर बाकी के तीन अनुष्ठानों को पूरा किया जाना बाकी था.
हम भारत को प्रजातांत्रिक मुल्क के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि उपनिवेशवाद के अनुभवों ने हमें अन्याय, शोषण, असमानता और सत्ता की हिंसा से मिलने वाले दर्द का एहसास करवाया था.
संविधान सभा में 17 दिसंबर 1946 को एमआर मसानी ने कहा था कि,
‘हमारी दृष्टि में प्रजातंत्र का यह अर्थ नहीं है कि पुलिस का शासन हो और लोगों को बिना मुकदमा चलाए ही खुफिया पुलिस गिरफ्तार कर ले या जेल में डाल दे.
प्रजातंत्र का मतलब यह नहीं है कि राज्य ही सब कुछ हो और प्रजा मानो महज राज्य का आदेश मानने के लिए हो, और एक दल का शासन चले और विरोधी दलों को कुचल दिया जाए.
इसका मतलब ऐसा राज्य या समाज नहीं है, जहां व्यक्ति को राज्य की बड़ी मशीनरी का महज छोटा आज्ञा-वाहक पुरजा ही समझा जाए.’
पंडित नेहरू ने कहा था कि,
‘मैं तो यह कहूंगा कि संविधान बना देने से ही इस सभा का काम पूरा नहीं होगा, इसका पहला काम होगा कि इस संविधान के जरिये हिंदुस्तान में आज़ादी को फैलाएं, भूखों को रोटी दें और नंगों को कपड़ा दें और हिंदुस्तान में रहने वालों को मौका मिले कि वह पूरी तौर पर तरक्की कर सकें.
मुझे विश्वास है कि जो संविधान हम बनायेंगे, वह हमें असली आज़ादी देगा, जिसके लिए हम इतने दिनों से रट लगा रहे थे और वह आज़ादी हमारी भूखी जनता को खाना, कपड़ा और रहने की जगह देगी, उनकी उन्नति के लिए हर तरह के मौके देगी.’
जब भारत में मार्च-जून 2020 में दो करोड़ मजदूर (जिनकी हर सांस श्रम की धौंकनी से चलती है) पूंजीपतियों की तरफ से बाहर धकेले जाने लगे, जब उनके लिए घर जाने के कोई साधन शेष न रहने दिए गए, जब उन्हें भूख के साथ पद संचलन के लिए मजबूर कर दिया गया, जब 400 लोग घर वापस पहुंचने की उम्मीद आंखों में लिए हमेशा के लिए सो गए, जब व्यवस्था ने महिलाओं को सड़कों पर प्रसव के लिए मजबूर कर दिया, तब एक सवाल यह था कि हम कोविड-19 की महामारी से कैसे निपटेंगे, लेकिन वास्तविक सवाल तो यही था कि क्या ये दो करोड़ लोग वास्तव में स्वाधीन भारत स्वतंत्र नागरिक हैं?
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और कार्यकर्ता हैं.)