हम पराधीनता से स्वाधीनता तक पहुंच गए, पर स्वतंत्रता तक पहुंचना अभी बाकी है

पेरियार ने कहा था, 'हमें यह मानना होगा कि स्वराज तभी संभव है, जब पर्याप्त आत्मसम्मान हो, अन्यथा यह अपने आप में संदिग्ध मसला है.' भारतीय संविधान की उद्देशिका बताती है कि भारत अब एक संप्रभु और स्वाधीन राष्ट्र है, लेकिन इसे अभी 'स्वतंत्र' बनाया जाना बचा हुआ है.

क्या सरकार बच्चों और महिलाओं को भूखे-कमज़ोर रखकर भारत को आत्मनिर्भर बना सकती है?

लैंसेट के अध्ययन के अनुसार कोविड का मातृत्व मृत्यु और बाल मृत्यु दर पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. इसके अनुसार भारत में छह महीनों में 3 लाख बच्चों की कुपोषण और बीमारियों से 14 हज़ार से अधिक महिलाओं की प्रसव पूर्व या इसके दौरान मृत्यु हो सकती है. हालांकि वित्तमंत्री द्वारा घोषित 20.97 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भर पैकेज में कुपोषण और मातृत्व हक़ के लिए एक रुपये का भी आवंटन नहीं किया गया है.

मध्य प्रदेश: बच्चों के पोषण के लिए अंडा खिलाने की नीति पर भाजपा राजनी​ति क्यों कर रही है?

मध्य प्रदेश सरकार ने कुपोषण से निपटने के लिए पोषण आहार कार्यक्रम में बच्चों को अंडे उपलब्ध कराने की प्रक्रिया शुरू की है, लेकिन भाजपा ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है. भाजपा के एक नेता ने तो ये तक कह दिया कि इस परंपरा से बच्चों को एक दिन नरभक्षी बना दिया जाएगा.

क्यों 25 साल बाद भी हमें नहीं पता कि बच्चों को चमकी बुखार से कैसे बचाया जाए?

वर्ष 1995 में बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में यह एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम का पहला मामला सामने आने के बाद 25 साल गुज़र गए, इसके बाद भी इस बीमारी के सही कारणों और निदान का पता नहीं चल पाया है.

आर्थिक असमानता लोगों को मजबूर कर रही है कि वे बीमार तो हों पर इलाज न करा पाएं

सबसे ग़रीब तबकों में बाल मृत्यु दर और कुपोषण के स्तर को देखते हुए यह समझ लेना होगा कि लोक सेवाओं और अधिकारों के संरक्षण के बिना न तो ग़ैर-बराबरी ख़त्म की जा सकेगी, न ही भुखमरी, कुपोषण और बाल मृत्यु को सीमित करने के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकेगा.

उदारीकरण के बाद बनीं आर्थिक नीतियों से ग़रीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ती गई

जब से नई आर्थिक नीतियां आईं, चुनिंदा पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए खुलेआम जनविरोधी नीतियां बनाई जाने लगीं, तभी से देश राष्ट्र में तब्दील किया गया. इन नीतियों से भुखमरी, कुपोषण और ग़रीबी का चेहरा और विद्रूप होने लगा तो देश के सामने राष्ट्र को खड़ा कर दिया गया. खेती, खेत, बारिश और तापमान के बजाय मंदिर और मस्जिद ज़्यादा बड़े मुद्दे बना दिए गए.

क्या मोदी सरकार का आख़िरी बजट वास्तव में भारत की तरक्की की कहानी बयां करता है?

3000 करोड़ रुपये की मूर्ति, 1 लाख करोड़ रुपये की बुलेट ट्रेन उस देश की सबसे पहली ज़रूरतें हैं, जहां छह करोड़ बच्चे कुपोषित हैं, शिक्षकों के दस लाख पद ख़ाली हैं, सवा तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और 20 करोड़ लोग रोज़ भूखे सोते हैं.

आर्थिक मानकों पर देश के 10 करोड़ किसान परिवार बहुत ही असुरक्षित हैं

नाबार्ड के हालिया अध्ययन के मुताबिक भारत में 10.07 करोड़ किसानों में से 52.5 प्रतिशत क़र्ज़ में दबे हुए हैं. वर्ष 2017 में एक किसान परिवार की कुल मासिक आय 8,931 रुपये थी.

हमें राजनीतिक आज़ादी तो मिल गई, लेकिन सामाजिक और आर्थिक आज़ादी कब मिलेगी?

आज़ादी के 71 साल: सरकार यह महसूस नहीं करती है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा पर किया गया सरकारी ख़र्च वास्तव में बट्टे-खाते का ख़र्च नहीं, बल्कि बेहतर भविष्य के लिए किया गया निवेश है.

ऐसी कोई जगह नहीं, जहां बच्चों का लैंगिक शोषण न होता हो

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अध्ययन ‘चाइल्ड एब्यूज़ इन इंडिया’ के मुताबिक भारत में 53.22 प्रतिशत बच्चों के साथ एक या एक से ज़्यादा तरह का यौन दुर्व्यवहार और उत्पीड़न हुआ है. ऐसे में कौन कह सकता है कि मेरे घर में बच्चों का लैंगिक शोषण नहीं हुआ?

बलात्कार रोकने हैं तो पहले लड़कों के लैंगिक शोषण पर चुप्पी तोड़िए

पुरुषत्व और मर्दवाद की स्थापना के चलते लड़कों के लैंगिक शोषण को महत्वहीन विषय माना गया है. यदि कोई यह शिकायत करता है तो उसे अपमान झेलना पड़ता है और कमज़ोर माना जाता है.

बाल विवाह के पक्ष में होना महज़ एक विचार नहीं, बल्कि एक घातक विचारधारा है

इस विचारधारा में स्त्रियों, बच्चों, क़ानून, समाज में बराबरी, सहिष्णुता और सुरक्षा के प्रति कोई सम्मान नहीं है. बाल विवाह केवल लड़कियों के जीवन को संकुचित और दुरूह नहीं बनाता है, लड़कों के जीवन को भी उतना ही प्रताड़ित करता है.

बच्चे यौन हिंसा नहीं बल्कि यौनिक युद्ध का सामना कर रहे हैं, वे न घर में सुरक्षित हैं और न बाहर

विकास के दावों के बीच भारत के अनुभव और ज़मीनी सच्चाई बता रही है कि समाज और सरकारें बच्चों का संरक्षण सुनिश्चित कर पाने में तो नाकाम हैं ही आगे भी इनके नाकाम रहने की आशंका है.

क्यों हम दूसरे की पीड़ा महसूस नहीं कर पाते

वर्तमान समाज को सहानुभूति की नहीं, समानुभूति की ज़रूरत है. आज नीति बनाने वालों में ही 'समानुभूति' का तत्व खत्म हो चुका है. नीति बनाते समय उन्हें आंकड़े चाहिए होते हैं, एहसास नहीं.

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