बटुकेश्वर दत्त: जिन्हें इस मृत्युपूजक देश ने भुला दिया क्योंकि वे आज़ादी के बाद भी ज़िंदा रहे

बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद ज़िंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर भटकना पड़ता है तो कभी डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ता है.

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पुण्यतिथि विशेष: बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद ज़िंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर भटकना पड़ता है तो कभी डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ता है.

Batukeshwar Dutt
क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त. (जन्म: 18 नवंबर 1910 – मृत्यु: 20 जुलाई 1965)

(यह लेख मूल रूप से 20 जुलाई 2017 को प्रकाशित हुआ था.)

पिछले कुछ सालों से जब फेसबुक पर भगत सिंह की शहादत को याद करने की रस्म अदायगी देखता हूं तो बटुकेश्वर दत्त याद आ जाते हैं.

वही बटुकेश्वर दत्त जिन्होंने 1929 में अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंक कर इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारों के साथ ज़िंदगी भर को काला-पानी तस्लीम किया था और वही बटुकेश्वर दत्त जिन्हें इस मृत्युपूजक और मूर्तिपूजक देश ने सिर्फ़ इसलिए भुला दिया, क्योंकि वे आज़ादी के बाद भी ज़िंदा बचे रहे थे.

शायद ये देश अपने नायकों के ज़िंदा रहते उनकी क़द्र करना नहीं जानता. तभी बटुकेश्वर जैसे क्रांतिकारी को आज़ादी के बाद ज़िंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ता है तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ता है.

जिस आदमी के ऐतिहासिक क़िस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर होने चाहिए थे, उसे ख़ुद एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर गुज़र-बसर करनी पड़ती है.

पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने की ख़ातिर पटना के कमिश्नर से मिलते हैं तो कमिश्नर उनसे उनके बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण मांगता है.

ये अलग बात है कि जब ये बात देश के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को पता चलती है तो वे व्यक्तिगत रूप से इस पर खेद जताते हैं और कमिश्नर साहब भी माफ़ी मांग लेते हैं. भला हो उनकी पत्नी की नौकरी का जिसकी वजह से गाड़ी का कम से कम एक पहिया तो घूमता ही रहा.

1964 में बटुकेश्वर दत्त के बीमार होने पर उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल ले जाया जाता है जहां उन्हें बिस्तर तक नहीं नसीब होता.

इस पर उनके मित्र और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चमनलाल आज़ाद एक अख़बार के लिए गुस्से भरा लेख लिखते हैं कि हिंदुस्तान इस क़ाबिल ही नहीं है कि यहां कोई क्रांतिकारी जन्म ले. परमात्मा ने बटुकेश्वर दत्त जैसे वीर को भारत में पैदा करके बड़ी भूल की है. जिस आज़ाद भारत के लिए उसने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, उसी आज़ाद भारत में उसे ज़िंदा रहने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है.

इसके बाद पंजाब सरकार ने अपनी तरफ़ से दत्त के इलाज के लिए एक हज़ार रुपये दिए और दिल्ली या चंडीगढ़ में उनका इलाज करवाने की पेशकश भी की. लेकिन बिहार सरकार ने तब तक उन्हें दिल्ली नहीं जाने दिया, जब तक कि मौत उनके एकदम क़रीब नहीं पहुंच गई.

अंतत: हालत बिगड़ने पर 22 नवंबर, 1964 को उन्हें दिल्ली सफदरजंग हॉस्पिटल लाया गया. यहां दत्त ने पत्रकारों से कहा कि मैंने सपने में ही नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फेंक कर इंक़लाब ज़िंदाबाद की हुंकार भरी थी वहीं मैं अपाहिज की तरह लाया जाऊंगा.

दिसंबर में उन्हें एम्स में भर्ती करा दिया गया, जहां उन्हें कैंसर होने की बात पता चली. यहीं जब पंजाब के मुख्यमंत्री बटुकेश्वर दत्त से मिलने पहुंचे और उनसे मदद की पेशकश की तो दत्त ने सिर्फ़ इतना कहा कि हो सके तो मेरा दाह संस्कार वहीं करवा देना, जहां मेरे दोस्त भगत सिंह का हुआ था.

20 जुलाई, 1965 को बटुकेश्वर दत्त ने अपनी आख़िरी सांसें लीं. उनकी आख़िरी इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा पर हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के अंतिम स्थल के पास ही किया गया.

शकील बंदायूनी का एक शेर है…

अब तो आंखों में गम-ए-हस्ती के पर्दे पड़ गए

अब कोई हुस्ने मुजस्सिम बेनक़ाब आया तो क्या

सवाल यही है कि क्यों हम अपने नायकों (जिनमें सेनानी, खिलाड़ी, शायर, समाज-सेवी आदि सभी हैं) के जीते जी उन्हें उनके हिस्से का सम्मान नहीं दे पाते और अपने हिस्से के दायित्व की इतिश्री सिर्फ़ मरने के बाद दो-चार शब्द कह कर मान लेते हैं.

बटुकेश्वर दत्त तो 1965 में गए थे, पर शायर अदम गोंडवी तो अभी लखनऊ वालों के ज़ेहन में ताजा होंगे.

(संदर्भ: बटुकेश्वर दत्त- भगत सिंह के सहयोगी, लेखक: अनिल वर्मा, नेशनल बुक ट्रस्ट)

(लेखक दास्तानगो हैं और लखनऊ की सांस्कृतिक विरासत के जानकार हैं.)