दिल्ली दंगों संबंधी मामले में दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद से पूछताछ के बाद कई मीडिया रिपोर्ट्स में दिल्ली पुलिस द्वारा लीक जानकारी के आधार पर उन्हें ‘दंगों का मास्टरमाइंड’ कहा गया. प्रामाणिक तथ्यों के बिना आ रही ऐसी ख़बरों का मक़सद केवल उनकी छवि धूमिल कर उनके ख़िलाफ़ माहौल बनाना लगता है.
क्या फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा, जिसमें 53 से अधिक लोगों की दर्दनाक मौत हुई, सैकड़ों लोग घायल हुए, के पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र था?
आजाद भारत में सांप्रदायिक दंगों के बारे में काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि कोई भी दंगा अचानक से घटित नहीं होता है. इसके लिए पहले सांप्रदायिक संगठन भड़काऊ भाषण देते हैं, अफवाहें फैलाई जाती हैं और उसके बाद हमला बोला जाता है.
एक आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार के तौर पर अपने पुराने अनुभवों और साथ में सालों के अध्ययन के आधार पर मैंने अक्सर दावा किया है कि अगर सरकार ऐसा चाहे तो कोई भी दंगा कुछ घंटे से अधिक नहीं चल सकता है.
दिल्ली में हुए भयानक दंगे से कुछ हफ्ते पहले भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं, केंद्रीय मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने विधानसभा चुनाव का प्रचार करते हुए खूब जहर उगला.
इन सबका मुख्य निशाना नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ शाहीन बाग, जामिया मिलिया इस्लामिया और दिल्ली की कई जगहों पर धरने पर बैठी मुस्लिम औरतें थीं.
परंतु दिल्ली पुलिस ने दंगों के पीछे षड्यंत्र का एक अलग ही पैटर्न ढूंढ निकाला है. पुलिस ने सत्ताधारी भाजपा के किसी नेता के बयान को न भड़काऊ माना है और न ही कोई एफआईआर दर्ज की है. जबकि यह खुले तौर पर दिखता है कि किस तरह के उकसाऊ नारे भाजपा के नेता लगा रहे थे.
दिल्ली पुलिस का कहना है कि दिल्ली हिंसा के पीछे सीएए के खिलाफ धरने पर बैठे लोग जिम्मेदार हैं. उसका कहना है कि प्रदर्शन में शामिल लोगों ने मुसलमानों के भीतर डर पैदा किया कि सीएए लागू होने के बाद मुसलमानों की नागरिकता छिन जाएगी, जबकि कानून में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा गया है.
दिल्ली पुलिस कहती है कि सीएए के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोग शांतिपूर्ण होने का सिर्फ दिखावा कर रहे थे जबकि उनकी योजना थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के समय हिंदुओं पर हमला किया जाए.
पुलिस के मुताबिक प्रदर्शनकारियों की मंशा थी कि ट्रंप के भारत दौरे के वक्त ऐसा करने से अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान इस ओर जाएगा और इसके बाद नरेंद्र मोदी की सरकार को अस्थिर किया जा सकेगा.
जांच का बढ़ता दायरा
इस कथित साजिश की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल एफआईआर संख्या 59/20 के तहत कर रही है. स्पेशल सेल अमूमन आतंकवाद जैसे गंभीर मामलों की जांच करती है.
क्राइम ब्रांच ने 6 मार्च 2020 को एफआईआर संख्या 59/20 दर्ज कराया. इस एफआईआर में कहा गया कि उत्तर पूर्वी दिल्ली का दंगा पूर्व नियोजित था और एक साजिश के तहत इसे अंजाम दिया गया.
मूल एफआईआर में दो नाम हैं- (1) उमर खालिद, जिन पर आरोप है कि उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के दौरे के वक्त कई अन्य लोगों के साथ धरने पर बैठकर भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि धूमिल करने की कोशिश की. (2) दानिश, जिन्होंने अलग-अलग जगहों से लोगों को बुलाकर उत्तर-पूर्वी दिल्ली में इकट्ठा किया और उनके लिए हथियारों का इंतजाम किया.
शुरुआत में इस मुकदमे में आईपीसी की धारा 147/148/149/120बी लगाई गई थी, लेकिन अप्रैल में क्राइम ब्रांच ने इसमें आर्म्स एक्ट और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) भी जोड़ दिए.
शुरू में जिन तीन लोगों (मो. दानिश, मो. इलियास और मो. परवेज अहमद) को गिरफ्तार गिया गया था, उन्हें जमानत मिल गई क्योंकि तब यूएपीए का मुकदमा नहीं लगा था.
एफआईआर संख्या 59 के तहत गिरफ्तार किए गए लोगों में आम आदमी पार्टी के पूर्व पार्षद ताहिर हुसैन, कांग्रेस की पूर्व पार्षद इशरत जहां, सामाजिक कार्यकर्ता खालिद सैफी, एमबीए छात्रा गुलफिशा फातिमा, पीएचडी कर रहे मीरान हैदर, एमफिल छात्राएं सफूरा जरगर, नताशा नरवाल और शोधार्थी देवांगना कलीता शामिल है.
कानून के मुताबिक पुलिस को इस मामले की तहकीकात तीन महीने में पूरी करनी थी और जून में चार्जशीट दायर कर देनी थी, लेकिन पटियाला हाउस कोर्ट से क्राइम ब्रांच को 14 अगस्त तक के लिए समय मिल गया. जब 14 अगस्त की तारीख नजदीक आने लगी तो कड़कड़डूमा कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को एक महीने का और समय दे दिया.
इस अवधि के दौरान पुलिस के स्पेशल ब्रांच ने सीएए के खिलाफ प्रदर्शन से जुड़े युवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बुलाकर घंटों तक कड़ी पूछताछ की.
इसी क्रम में दिल्ली पुलिस के स्पेशल ब्रांच ने जाने-माने सामाजिक चिंतक और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर अपूर्वानंद से लोधी रोड स्थित कार्यालय में पूछताछ की.
पांच घंटे तक चली पूछताछ के बाद प्रो. अपूर्वानंद ने अपना एक छोटा-सा बयान जारी कर कहा,
‘पुलिस अथॉरिटी के अधिकारक्षेत्र और घटना की पूर्ण रूप से निष्पक्ष जांच के विशेषाधिकार का सम्मान करते हुए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पूरी तफ्तीश का उद्देश्य शांतिपूर्ण नागरिक प्रतिरोध और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के निर्दोष लोगों के खिलाफ हिंसा भड़काने और उसकी साजिश रचने वालों को पकड़ना होगा.’
इस जांच का मकसद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) 2019, राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीकरण (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन (एनआरसी) के खिलाफ संवैधानिक अधिकारों और तरीकों से देश भर में अपना विरोध दर्ज करने वाले प्रदर्शनकारियों व उनके समर्थकों का उत्पीड़न करना नहीं होना चाहिए.
यह परेशान करने वाली बात है कि एक ऐसा सिद्धांत रचा जा रहा है जिसमें प्रदर्शनकारियों को ही हिंसा का स्रोत बताया जा रहा है. मैं पुलिस से यह अनुरोध करना चाहता हूं और यह उम्मीद करता हूं कि उनकी जांच पूरी तरह से निष्पक्ष और न्यायसंगत हो ताकि सच सामने आए.’
प्रो. अपूर्वानंद से हुई पूछताछ की पूरी देश में निंदा की गई. 1,500 से अधिक बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बयान जारी कर इसकी भर्त्सना की.
यहां तक कि सर्वाधिक प्रसारित और कभी-कभार ही आलोचनात्मक होने वाले अंग्रेजी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इस मुद्दे पर संपादकीय लिखा.
इसके बाद सत्ताधारी भाजपा के समर्थक दक्षिणपंथी चैनलों ने प्रो. अपूर्वानंद के ऊपर वीभत्स हमले शुरू कर दिए. कहा गया कि दिल्ली पुलिस को जांच के दौरान अपूर्वानंद के खिलाफ कई तथ्य मिले हैं, जिनमें दिल्ली दंगों में उनकी संलिप्तता साबित होती है.
11 अगस्त 2020 को अपने एक कार्यक्रम में जी न्यूज़ ने प्रो. अपूर्वानंद को ‘दिल्ली दंगों का प्रोफेसर’ बताया.
चैनल ने दिल्ली पुलिस के स्पेशल ब्रांच के किसी अधिकारी के बयान को आधार बनाते हुए कहा कि जांच से पता चला है कि अपूर्वानंद ने सीएए विरोधी प्रदर्शनों में शामिल होकर दंगों की बड़ी साजिश रची है.
इसके बाद चैनल ने गुलफिशा नामक युवा कार्यकर्ता जिन्हें दिल्ली पुलिस ने दंगों की साजिश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया था, के हवाले से कहा कि प्रो. अपूर्वानंद ने उमर ख़ालिद और राहुल रॉय जैसे अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर उनसे कई बार गुप्त बैठकें कर दंगों की योजना तैयार की थी. इसी तरह की रिपोर्ट दूसरे चैनलों जैसे कि आज तक में भी दिखाई गईं.
इसके बाद जी मीडिया ने एक प्रिंट रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें सूत्रों के हवाले से कहा गया कि गुलफिशा ने दिल्ली पुलिस से कबूला है कि प्रो. अपूर्वानंद हिंसा भड़काने वाले मुख्य लोगों में शामिल थे और उन्होंने प्रदर्शन में शामिल होने के लिए गुलफिशा की तारीफ भी की थी.
रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘प्रो. अपूर्वानंद ने दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शन आयोजित करने और विश्व में भारत की छवि खराब करने के लिए गुलफिशा को उकसाया था. अपूर्वानंद ने दंगों से पहले उन्हें पत्थर, खाली बोतल, एसिड और चाकू रखने की भी सलाह दी थी. साथ ही उन्होंने महिलाओं से कहा था कि अपने पास मिर्च पाउडर जरूर रखें.’
बेतुके दावों की श्रृंखला
इसके बाद दिल्ली पुलिस से लीक जानकारी पर आधारित अपनी रिपोर्ट में गुलफिशा को उद्धृत करते हुए ऑप इंडिया ने कहा, ‘प्रो. अपूर्वानंद ने गुलफिशा से कहा था कि जामिया कोआर्डिनेशन कमेटी दिल्ली के 20-25 जगहों पर एक आंदोलन आयोजित करने जा रही है जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय फलक पर यह दिखाना होगा कि भारत सरकार आक्रामक है और वह अपने मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव कर रही है. और यह तभी संभव हो सकेगा जब प्रदर्शन की आड़ में दंगे किए जाएं.’
ये सभी रिपोर्ट दावा करते हैं कि उन्हें दिल्ली पुलिस के सूत्रों से जानकारी मिली है. ध्यान देने वाली बात यह है कि दिल्ली पुलिस ने अभी तक सूत्रों के हवाले से चल रही ख़बरों का खंडन भी नहीं किया है.
ऐसे में यह माना जा सकता है कि पुलिस ने जानबूझकर प्रो. अपूर्वानंद की छवि बिगाड़ने और उनके खिलाफ जनमत तैयार करने के लिए जानकारियां लीक की हैं.
शायद प्रो. अपूर्वानंद को मिले जनसमर्थन से बौखलाकर दिल्ली पुलिस ने अपने विश्वस्त मीडिया घरानों को गुप्त जानकारियां लीक कीं. इसी वजह से एक न्यूज़ रिपोर्ट ने तो अपूर्वानंद को ‘आतंकी प्रोफेसर’ तक करार दिया.
दिल्ली पुलिस ने कानून और नियमों को ताक पर रखते हुए जांच से जुड़ी जानकारियों को सनसनीखेज तरीके से लीक किया है. पुलिस की इन करामातों को समझने के लिए कुछ पहलुओं पर विचार करना होगा.
पहला तो यह कि दिल्ली पुलिस ने उस महिला का बयान उद्धृत किया है जो पहले से ही हिरासत में है, जो पुलिस के बयान पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सकती.
गुलफिशा फातिमा को 9 अप्रैल 2020 को जाफ़राबाद प्रदर्शन में सड़क बंद करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. एफआईआर संख्या 48/20 में उनके ऊपर आईपीसी कई धाराएं लगाई गईं.
इस एफआईआर पर उन्हें 13 मई को जमानत भी मिल गई. लेकिन, इसके बाद आर्म्स एक्ट और यूएपीए जैसी धाराएं लगाकर पुलिस ने उन्हें जेल में बंद किया है.
दूसरी बात यह कि अगर यह सच भी मान लें कि गुलफिशा ने दिल्ली पुलिस को ऐसा बयान दिया है तो भी यह पता होना चाहिए कि पुलिस के सामने दिए गए बयान को कोर्ट यूएपीए के मामले में सबूत के तौर पर स्वीकार नहीं करती.
इसलिए यह जानते हुए भी कि कोर्ट के समक्ष गुलफिशा के इन कथित बयानों का कोई मतलब नहीं है, दिल्ली पुलिस ने प्रो. अपूर्वानंद की छवि ख़राब करने के लिए उन बयानों को मीडिया के सामने लीक किया.
एफआईआर संख्या 59/20 में दिल्ली पुलिस ने अभी तक कोई चार्जशीट दायर नहीं की है. पुलिस के सामने गुलफिशा का नाम दंगे के एक अन्य आरोपी ने अपने बयान में दिया था.
उस शख्स ने बाद में द हिंदू अखबार को बताया कि फरवरी में हुए दंगे में उसकी आंखों की रोशनी खत्म हो गई जिस वजह से वह नहीं देख पाया कि पुलिस ने उससे किस बयान पर दस्तखत कराए हैं.
उसने यह भी कहा कि उसने किसी भी व्यक्ति (गुलफिशा का भी) का नाम आज तक नहीं सुना था, जिसके बारे में कहा गया कि जानकारी उसने दी है.
एक जैसे बयान
यह मामला और उलझाऊ तब हो गया जब यह पाया गया कि पुलिस के विभिन्न चार्जशीट में अलग-अलग लोगों के बयान बिल्कुल एक जैसे पाए गए.
- एफआईआर संख्या 60/20 (हेड कॉन्सटेबल रतन लाल की हत्या) के चार्जशीट में 7 बयान एक तरह के पाए गए.
- एफआईआर संख्या 50/20 (25 फरवरी 2020 को जाफराबाद में हिंसा) की चार्जशीट में 10 बयान बिल्कुल एक जैसे थे.
- आईबी कर्मचारी अंकित शर्मा के हत्या संबंधी 65/20 चार्जशीट में चार बयान एक जैसे थे.
और अंतत: दिल्ली पुलिस ने उस कथित बयान को देने वाले गुलफिशा या प्रो. अपूर्वानंद को इस आरोप पर जवाब देने का एक भी मौका दिए बगैर मीडिया के सामने इन जानकारियों को लीक कर रही है.
जबकि गृह मंत्रालय और ऊपरी अदालतें कई बार कह चुकी हैं कि जब किसी मुकदमे की जांच चल रही हो तो चुनिंदा जानकारियों को मीडिया के सामने लीक नहीं किया जा सकता.
12 अगस्त 2020 को केरल उच्च न्यायालय ने जीतेश बनाम केरल सरकार मामले में निर्देश देते हुए कहा था-
‘यह हमारी मानी हुई राय है कि किसी भी अपराध की जांच में शामिल कोई अधिकारी जांच के दौरान मीडिया के सामने जानकारियों को लीक नहीं करेगा. पुलिस अधिकारियों को ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी मामले पर अंतिम फैसला कोर्ट द्वारा ही किया जाना है. पुलिस को अपने व्यक्तिगत विचार या लाभ जांच से दूर रखने चाहिए.
पुलिस से यह उम्मीद नहीं की जाती कि किसी भी अपराधी की स्वीकारोक्ति को मीडिया में प्रसारित करे. हमें मालूम है कि पुलिस अधिकारियों द्वारा मीडिया में जानकारियों को लीक करने का मामला बढ़ता जा रहा है.’
दिल्ली दंगे के मामलों को देखें, तो दिल्ली पुलिस मीडिया के सामने शुरुआत से ही चुनिंदा बयान लीक कर रही है.
पिंजड़ा तोड़ संगठन की देवांगना कलीता को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर दंगे की साजिशकर्ता बताते हुए भी दिल्ली पुलिस ने मीडिया में एक संक्षिप्त नोट जारी किया था.
देवांगना ने इसपर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की. तब 27 जुलाई 2020 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को निर्देश दिया था कि जब तक आरोप तय न हो जाए तब तक मीडिया में कोई बयान जारी न करें.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा 1 अप्रैल 2010 को जारी पुलिस की मीडिया नीति का संज्ञान लिया था.
इस निर्देश में गृह मंत्रालय ने कहा था कि पुलिस सिर्फ आवश्यक तथ्यों को ही मीडिया के सामने लाए और जांच के दौरान किसी भी तरह की अपुष्ट जानकारी पुलिस मीडिया को न दे.
यह भी कहा गया था कि पुलिस किसी मुकदमे के इन स्तरों पर ही सामान्यतया मीडिया से मुखातिब हो: (1) मुकदमे का पंजीयन; (2) आरोपियों की गिरफ्तारी; (3) मुकदमे की चार्जशीट दायर होने पर; (4) मुकदमे के आखिरी फैसले जैसे दोषी करार होने या रिहाई के समय आदि.
जैसा कि जाहिर है कि प्रो. अपूर्वानंद के मामले में पुलिस ने शायद ही कोई आधिकारिक बयान जारी किया है, बल्कि उनका भरोसा तो उन मीडिया घरानों पर है, जो बिना कोई सवाल पूछे पत्रकारिता के मूल्यों को धता बताकर पुलिस के वर्ज़न को ही अनाधिकारिक तौर पर जारी कर देंगे.
2018 में रोमिला थापर बनाम भारतीय संघ मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था,
‘किसी भी मुकदमे की जांच के दौरान राज्य की जांच इकाई अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से जनता की राय को प्रभावित करने की कोशिश करती है तो उससे जांच की निष्पक्षता पर असर पड़ता है.’
इन सभी निर्देशों के बावजूद भी दिल्ली पुलिस सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल युवाओं और सामाजिक चिंतकों-कार्यकर्ताओं के खिलाफ प्रोपगैंडा फैलाने में लगी है. इन तमाम कार्यकर्ताओं का कसूर बस इतना है कि इन्होंने सीएए के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन किया.
एक राष्ट्र के तौर पर आज हम किन हालातों में पहुंच गए हैं, ये सोचकर बेहद दुख और चिंता होती है. प्रो. अपूर्वानंद जैसे एक महत्वपूर्ण, बहादुर और सम्मानित बुद्धिजीवी को भी सत्ता के ताकत से डराने-धमकाने की कोशिश हो रही है.
दिल्ली पुलिस अफवाह, झूठ और मनगढ़ंत जानकारियों को सच का जामा पहनाकर बेशर्मी से प्रचारित कर सकती है क्योंकि उसे मालूम है कि देश की सबसे ताकतवर शख्सियत का हाथ उसके कंधे पर है.
पेंगुइन प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित मेरी किताब ‘पार्टिशंस ऑफ द हर्ट: अनमेकिंग द आईडिया ऑफ इंडिया’ में कई जगह मैंने प्रो. अपूर्वानंद का बयान शामिल किया था. इतनी बार कि अक्सर उनसे मजाक किया कि सह-लेखक के बतौर उनका नाम दे देना चाहिए.
इस लेख का अंत मैं अपूर्वानंद के उन्हीं कुछ शब्दों से करना चाहूंगा:
‘यह भारत के मुसलमानों के खिलाफ जंग है. इसे इन्हीं शब्दों में कहा जाना चाहिए. और इसका दायरा बहुत बड़ा है… हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत को इस जंग में सताधारी पार्टी ने धकेला है, वो सरकार, जिसे उन्होंने बनाया, जिसने समाज के एक बड़े वर्ग की ओर नफरत को प्रोत्साहन दिया और उनके खिलाफ हिंसा शुरू की.
यह भी दर्ज किया जाना चाहिए कि वे सबसे सर्वश्रेष्ठ युवा, जो हमारी सिविल सेवाओं और पुलिस का हिस्सा हैं, ने इसमें उन हत्यारों का साथ दिया.
यह भी कहा जाना चाहिए कि जब हमारे पड़ोसी दर्द और पीड़ा से कराह रहे थे, हम बेफिक्र होकर सो रहे थे और हमने उन्होंने खुलकर चीखने भी नहीं दिया.
भले ही यह जंग लंबी चले लेकिन एक न एक दिन हम इससे बाहर निकलेंगे और उस दिन हिंसा पर अपनी चुप्पी के लिए शर्म करने के सिवाय कोई और विकल्प हमारे पास नहीं बचेगा. आज पीड़ितों पर ही शिकार होने का दिखावा करने के इल्जाम लग रहे हैं; उन्हें अपने काल्पनिक पिंजरे से निकलने को कहा जा रहा है. इस दोहरेपन को किसी समय में तो दर्ज किया जाएगा.’
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
मूल अंग्रेजी लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित.