इस देश में कोई भी बोल-बोलकर कुछ भी बेच सकता है, कुछ भी खरीद सकता है. मसलन वो लोगों का ज़मीर खरीद लेता है, सपने बेच देता है. जो नहीं बोल पाता, उसे इस देश में मूर्ख समझा जाता है, शायद इसीलिए कम बोलने वाले, सच्चे, ईमानदार और प्रकृति के साथ चलने वाले किसी भी समुदाय को कमज़ोर समझा जाता है.
कोविड-19 को लेकर भारत में नए कदम उठाने और हवाई यात्राएं स्थगित करने के ठीक पहले मार्च में मेरा फ्रांस की राजधानी पेरिस जाना हुआ, अपने पहले कविता संग्रह ‘अंगोर’ के फ्रेंच अनुवाद के प्रकाशन के बाद आयोजित परिचर्चा में हिस्सा लेने.
फ्रांस की सरकार ने कोरोना को देखते हुए 2020 का पेरिस बुक फेयर, जिसमें भारत अतिथि देश था, पहले ही कैंसल कर दिया था. लेकिन शहर में छोटे समूहों में होने वाले कार्यक्रम पर पाबंदी नहीं थी.
इसलिए पेरिस में लोग एक दूसरे से थोड़ी दूरी बनाकर कविताओं के माध्यम से आदिवासी समाज के संघर्ष और उनके जीवन को समझने के लिए आए.
तीन दिनों का कार्यक्रम ख़त्म हो चुका था और शहर बंद करने का आदेश जारी हो चुका था. देर रात तक चमकता हुआ शहर एक दिन अचानक सुनसान हो गया.
पर कुछ दिनों तक बसों का परिचालन जारी था. तो मैंने पेरिस की सुनसान गलियों में एक दिन खाली बस में शहर का पूरा चक्कर लगाया.
खाली-खाली सड़कें देखी, ऊंची-ऊंची मीनारें, एफिल टावर और बंद घरों की बंद दीवारें भी देखीं, जिनके पीछे पेरिस के सारे लोग कहीं छुप गए थे.
जर्मन शुभचिंतक जोहानेस लापिंग जर्मनी से मुझे लेने के लिए पेरिस आए थे. हम पेरिस से जर्मनी की ओर रवाना हुए और खबर मिली दूसरे दिन जर्मन बॉर्डर बंद कर दिए जाएंगे.
फ्रांस से 50 किलोमीटर दूर जर्मनी की सीमा के करीब हार्ट नामक पहाड़ी रेंज है. राइन प्लाटिनेट राज्य के नौसडट शहर के हार्ट नामक गांव में उसी हार्ट नामक पहाड़ी रेंज के पास लॉकडाउन के दौरान पांच महीने तक रुकना हुआ.
इस पहाड़ी रेंज में ही एक पहाड़ है ‘किंग्स माउंटेन,’ जहां आज से तीन हजार साल पहले, प्रथम इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार के सेल्टिक समुदाय के लोगों के होने का प्रमाण मिलता है.
पहाड़ पर उनकी कब्र हैं जो बड़े और चौड़े पत्थर की शक्ल में हैं और उस पर इतने सालों में घास बिछ गई है. लॉकडॉउन के दौरान मैं इन्हीं पहाड़ों पर घंटों बैठी रहती.
लगता जैसे शाम ढलने के बाद जंगल में जिस तरह आदिवासी परिवार का एक सदस्य अपने पहाड़ी खेत पर बने मचान में चला जाता है, उसी तरह अपने समाज से दूर किसी दूसरे देश के पहाड़ पर होना जैसे किसी मचान पर होना, जहां से देश और समाज दोनों को दूर तक देखा जा सकता है.
और देखते – देखते यह सवाल मन में उठता है कि भारत इतना वाचाल क्यों है? और एक वाचाल देश में आदिवासियों के कम बोलने का अर्थ क्या है?
क्यों देश की आधी से अधिक जनता उसका ही मुंह ताकती है जो सबसे अच्छा बोलता है. चाहे झूठ ही को पूरे आत्मविश्वास से क्यों न बोलता हो.
अच्छा बोलकर कोई भी यहां सत्ता में बैठ सकता है. वह चोर-उच्चका, गुंडा या हत्यारा ही क्यों न हो. इससे समाज को कोई फर्क नहीं पड़ता है.
बोल-बोलकर कोई भी इस देश में कुछ भी बेच सकता है और कुछ भी खरीद सकता है. मसलन वह लोगों की ज़मीर खरीद लेता है और सपना बेच देता है.
यहां कोई सबकुछ बेच सकता है बड़ी सफाई से बोलते हुए. यहां कुछ लोगों की बोलने की ही नौकरी है. वे दिन-रात बोलते रहते हैं. बोलते कम और चीखते-चिल्लाते ज्यादा हैं.
यहां बोलते रहने वालों की टीआरपी सबसे आगे है. जो नहीं बोल पाता, उसे इस देश में मूर्ख समझा जाता है. जो ईमानदार, सच्चा, दिल की आवाज़ सुनने वाला और प्रकृति के साथ चलने वाला हो, ऐसा कोई भी समाज, समुदाय, आदमी कमज़ोर समझा जाता है.
और यही वजह है कि बहुत बोलने वाले कथित मुख्यधारा के लोग तय करते हैं कि आदिवासियों का विकास किस तरह किया जाए?
आदिवासियों की जगह कथित मुख्यधारा ही बोलता है, उन पर लिखता है, शोध करता है. वह कभी सुनने और संवाद करने की कोशिश नहीं करता कि ज़मीन पर खड़े लोगों के पास भी अपनी ज़बान है, उनकी भाषा है.
उस भाषा का कोई अर्थ भी है. वे भी बोल सकते हैं, बात कर सकते हैं. उनके पास संवाद का तरीका है. वे जो बोलते हैं, पहले से ही बहुत वाचाल कथित मुख्यधारा को उनकी बात समझ में नहीं आती.
वे अपने सिवा किसी को सुन नहीं पाने की गंभीर बीमारी से पहले ही ग्रस्त होते हैं. फिर ऐसे वाचाल देश में असल में काम कौन करता है?
मजदूर और किसान ही चुपचाप असल काम करते हैं. वही जीवन में ज़रूरी काम कर रहे होते हैं, लेकिन उनका समाज और देश में कोई सम्मान नहीं है न ही उनकी देश को परवाह है.
फिर ऐसे किसी वाचाल देश में आदिवासियों के कम बोलने का अर्थ क्या है? आदिवासी, जंगल पहाड़ों और प्रकृति के निकट रहते हुए, लगभग धरती की तरह खामोश रहने की कोशिश करते हैं.
बोलते कम और गीत ज्यादा गाते हैं. बोलने का अर्थ वे जरूरी भर बोलना और जरूरत पड़ने पर बोलना समझते हैं. जंगल पर निर्भर लोग बोलते कम और हंसते ज्यादा हैं.
उनके बीच बिना भाषा के भी सिर्फ़ हंसना जानने भर से भी रहा जा सकता है. वे कहते हैं जो हंसता है वहीं ज़मीन पर रहता है.
वे बदलते मौसम को देखते हैं और बता सकते हैं कि कब बारिश होगी और कब अकाल पड़ेगा. कठिन परिस्थितियों में चुपचाप मर जाते अपने परिवार के सदस्यों की मृत्यु को लोग स्वीकार कर लेते हैं. उनकी आत्मा को घर वापस बुला लेते हैं.
उनका विश्वास है कि देह मिट्टी में चली जाती है पर आदमी की ऊर्जा प्रकृति में रह जाती है. पुरखों की ऊर्जा प्रकृति के साथ मिलकर, प्रकृति के संतुलन में अपना योगदान देती है. इसलिए उनका निगेटिव, पॉजीटिव ऊर्जा या आत्माओं पर यक़ीन है.
उनके चुप रहने की भाषा जब कोई नहीं समझ पाता और यह उनके लिए अस्तित्व का खतरा हो जाता है तब ही हूल और उलगुलान जैसे आंदोलन शुरू होते हैं.
आज एक वाचाल देश के भीतर आदिवासी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं. वे कथित मुख्यधारा की ज़बान में कुछ बोलने, लिखने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी सारी व्यवस्था टूट रही है. उनका अपने आप पर से भरोसा ख़त्म हो रहा है.
दुनिया में होमोसेपियंस और होमो डेयस जैसी किताब से चर्चा में आए इजराइल के इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोवा हरारी कहते हैं कि दुनिया में इतनी बड़ी संख्या में मौजूद कथित मुख्यधारा के लोगों का प्रकृति के संतुलन में कोई योगदान नहीं है. वे दिमाग से खड़ी की गई धारणाओं के सहारे लगातार आदिवासियों से मूल चीजें छीन लेने का काम कर रहे हैं जो जीवन की मूल चीज़ों के सहारे बचे हुए हैं.
वे जोर देते हैं कि एक दिन दुनिया को आदिवासी दुनिया से ही सीखना होगा. उन लोगों से जो ज्यादा सच्चाई और वास्तविकता के साथ खड़े हैं, जिनका प्रकृति के संतुलन में बड़ी भूमिका है.
वे कहते हैं किसी भी देश की जनता को सरकार से जरूरी चीज़ों पर सवाल करना आना चाहिए. जैसे पर्यावरण संबंधी सवाल, रोजगार, बीमारी, शिक्षा आदि से संबंधित सवाल. लेकिन लोग खुद को ठीक से नहीं जानते.
लोगों से ज्यादा कंपनियां उनको जानती हैं मसलन वे क्या पसंद करते और क्या पसंद नहीं करते हैं. लोगों की ऐसी की भावनाओं का डेटा जमा किया जा रहा है. जिसके पास ज्यादा डेटा है असल में वही किसी देश के लोगों पर शासन कर रहा है.
कंपनियों के पास यह डेटा है इसलिए वे सरकार को भी नियंत्रित कर रही हैं. सरकार खुद भी ऐसा ही डेटा जमा करने की लगातार कोशिश कर रही है.
कथित मुख्यधारा हर तरह से आदिवासियों का खुद के ऊपर से ही विश्वास ख़त्म करने का काम करती है. आधुनिक शिक्षा, आदिवासी नज़रिया नहीं देती. वह उन्हें उनकी मूल भाषा-संस्कृति से अलग करती है.
देश में लंबे समय से एक ओर सांस्कृतिक रूप से आदिवासियों को उजाड़ देने का लंबा प्रोजेक्ट चल रहा है और दूसरी ओर सरकार और कंपनी विकास के नाम पर उनसे संसाधन छीनकर उन्हें पूरी तरह बाज़ार के इर्द-गिर्द फेंक देने का काम करती है ताकि वे जबरन शहरों में निम्न स्तर के कामों में खपाए जा सकें.
इस तरह पिछड़े वर्ग के लोग निम्न कामों में खपकर चुपचाप किसी शहर को, उसके जीवन को गति देते रहते हैं और कोई देश और उसका अभिजात वर्ग निरंतर वाचाल बना रहता है.
(जसिंता केरकेट्टा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)