अवमानना की कार्रवाई के दौरान प्रशांत भूषण और उनके वकील ने कहा था कि 2018 में चार जजों द्वारा अदालत और सीजेआई पर सवाल उठाने को लेकर अवमानना की कार्रवाई क्यों नहीं हुई थी. जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ ने सोमवार को अपने फ़ैसले में लिखा कि वह इस तरह की पहली और आख़िरी प्रेस वार्ता थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को प्रशांत भूषण अवमानना के मामले की सुनवाई के दौरान आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा 12 जनवरी, 2018 को की गई प्रेस कॉन्फ्रेंस इस तरह की पहली और आखिरी प्रेस वार्ता थी.
ज्ञात हो कि 12 जनवरी, 2018 को शीर्ष अदालत के तत्कालीन चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सर्वोच्च अदालत की समस्याओं को उजागर किया था.
उस समय जस्टिस दीपक मिश्रा देश के प्रधान न्यायाधीश थे. तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश और चारों न्यायाधीश अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं.
जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने आपराधिक अवमानना के लिए अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर एक रुपये का सांकेतिक जुर्माना लगाने के अपने फैसले में कहा है कि भूषण ने इन चार न्यायाधीशों की प्रेस कॉन्फ्रेंस के आधार पर अपने कथन को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया था.
अवमानना की कार्रवाई के दौरान भूषण और उनके वकील लगातार यह सवाल उठा रहे थे कि उन चारों जजों द्वारा अदालत और सीजेआई पर सवाल उठाने को लेकर अवमानना की कार्रवाई क्यों नहीं हुई थी?
इसके अलावा सुनवाई में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल भी चारों जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस का उल्लेख करना चाहते थे, लेकिन जस्टिस अरुण मिश्रा द्वारा उन्हें बोलने से रोक दिया गया था.
पीठ ने कहा, ‘हम आशा करते हैं कि यह पहला और आखिरी अवसर था, जब न्यायाधीश प्रेस में गए. ईश्वर इस संस्थान की गरिमा की रक्षा आंतरिक व्यवस्था के माध्यम से करने का विवेक दे, विशेषकर ऐसी स्थिति में जब सार्वजनिक रूप से आरोप लगाए गए हों और इससे आहत न्यायाधीश इनका जवाब न दे सकें.
पीठ ने कहा, ‘सच्चाई न्यायाधीशों के लिए बचाव का उपाय हो सकती है, लेकिन वे अपने न्यायिक मानदंडों, शुचिता और आचार संहिता से बंधे होते हैं.’
न्यायालय ने कहा कि इसी तरह अधिवक्ताओं की आचार संहिता इस व्यवस्था का हिस्सा होने के कारण वकीलों पर भी समान रूप से लागू होती है.
पीठ ने इस तथ्य का भी जिक्र किया कि न्यायाधीशों को अपनी राय अपने फैसलों से व्यक्त करनी होती है क्योंकि वे सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं हो सकते और न ही मीडिया में जा सकते हैं.
पीठ ने कहा कि अख़बार और मीडिया में न्यायाधीशों के खिलाफ आरोप लगाना बहुत ही आसान होता है. न्यायाधीशों को खामोशी से इन आरोपों को सहना होता है और वे सार्वजनिक मंच, समाचार पत्र या मीडिया में जाकर ऐसे आरोपों का जवाब भी नहीं दे सकते और न ही ऐसे मामले विचार करते समय वे इन तमाम अनर्गल आरोपों के बारे में कुछ लिख सकते हैं.
शीर्ष अदालत ने कहा कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की भी प्रतिष्ठा होती है, जो उन्होंने कड़ी मेहनत और संस्थान के प्रति समर्पण से अर्जित की होती है.
न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों को भी प्रत्येक आरोप का जवाब देने और सार्वजनिक बहस में शामिल होने की जरूरत नहीं होती है, वे अपना जवाब अपने फैसलों के माध्यम से देते हैं.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)