बहुजनों और मुस्लिमों के लिए इंसाफ की राह मुश्किल क्यों है

एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के अनुसार जेलों में बंद दलित, आदिवासी और मुस्लिमों की संख्या देश में उनकी आबादी के अनुपात से अधिक है, साथ ही दोषी क़ैदियों से ज़्यादा संख्या इन वर्गों के विचाराधीन बंदियों की है. सरकार का डॉ. कफ़ील और प्रशांत कनौजिया को बार-बार जेल भेजना ऐसे आंकड़ों की तस्दीक करता है.

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डॉ. कफ़ील ख़ान और प्रशांत कनौजिया. (फोटो साभार: फेसबुक)

एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के अनुसार जेलों में बंद दलित, आदिवासी और मुस्लिमों की संख्या देश में उनकी आबादी के अनुपात से अधिक है, साथ ही दोषी क़ैदियों से ज़्यादा संख्या इन वर्गों के विचाराधीन बंदियों की है. सरकार का डॉ. कफ़ील और प्रशांत कनौजिया को बार-बार जेल भेजना ऐसे आंकड़ों की तस्दीक करता है.

डॉ. कफ़ील ख़ान और प्रशांत कनौजिया. (फोटो साभार: फेसबुक)
डॉ. कफ़ील ख़ान और प्रशांत कनौजिया. (फोटो साभार: फेसबुक)

‘मुझे पांच दिन भूखा प्यासा रखा गया. झूठा केस फाइल किया गया. आठ महीने तक मुझे बिना अपराध के जेल में रखा गया. मैंने हमेशा देश को जोड़ने की बात की है.’

एक सितंबर की देर रात डॉ. कफील खान को मथुरा जेल से रिहा कर दिया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनकी तुरंत रिहाई के आदेश दिए थे.

ऊपर दी हुई  बात उन्होंने जेल से बाहर आकर अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर साझा की. उनकी इस बात से ही पता लगाया जा सकता है कि वे इतने दिन किस तरह से प्रताड़ित किए गए होंगे!

गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज से जुड़े रहे डॉ. कफील खान को नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), एनआरसी और एनपीए के विरोध के दौरान कथित रूप से भड़काऊ भाषण देने के आरोप में उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

हालांकि हमारे देश में झूठे आरोपों में फंसाने का ये पहला मामला नहीं है. हाल ही में एनसीआरबी ने एक रिपोर्ट पेश की है, जिससे साफ पता चल रहा है कि किस तरह से प्रशासन औ रसरकार मिलकर उन लोगों को जेल में डाल देती है, जो दूसरों के लिए एक आवाज बनते हैं या सरकार और प्रशासन की पोल खोलते हैं.

इसी तरह महाराष्ट्र के रहने वाले एक्टिविस्ट और पत्रकार प्रशांत कनौजिया भी इस समय जेल में हैं. प्रशांत दलित समुदाय से आते हैं.

बहुजन समाज में उनकी एक छवि बनी हुई है कि वे उनके लिए आवाज बुलंद करने का काम करते हैं. लेकिन कुछ समय से उत्तर प्रदेश की पुलिस उनकी गतिविधियों पर नजर बनाए हुए हैं.

प्रशांत को दूसरी बार जेल भेजा गया है. उन पर आरोप है कि वे अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर फेक न्यूज़ फैलाते हैं और सरकार पर भद्दी टिप्पणी करते हैं.

इससे पहले प्रशांत को जून 2019 में भी इसी तरह गिरफ्तार किया गया था. उस समय उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर कथित आपत्तिजनक टिप्पणी की थी.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत को रिहा करते हुए कहा था कि किसी नागरिक की आज़ादी के साथ समझौता नहीं हो सकता. ये उसे संविधान से मिली है और इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता.

हालांकि प्रशांत को भविष्य में ऐसा न करने के लिए भी कहा गया था. इस बार अगस्त में प्रशांत को जब एक फेक न्यूज़ फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया, तो कई ‘सवर्ण लिबरल प्रोग्रेसिव लोगों’ ने अपनी खुशी ज़ाहिर करते हुए देर नहीं की.

हालांकि जिस पोस्ट पर बवाल किया गया था, वो एक हिंदू संगठन के नेता सुशील तिवारी का पोस्टर था जिसे कथित रूप से प्रशांत ने तोड़-मरोड़कर ट्वीट किया था.

हालांकि कहा जा रहा है कि वो पोस्ट सुशील तिवारी ने लिखी ही नहीं थी. उस पोस्टर को केवल प्रशांत ही नहीं बल्कि कई लोगों ने शेयर किया था लेकिन गिरफ्तारी केवल प्रशांत की हुई.

एफआईआर भी खुद सुशील तिवारी ने नहीं बल्कि लखनऊ के हज़रतगंज थाने के एसआई दिनेश शुक्ला ने लिखवाई थी, जिसमें लिखा गया था कि सुशील तिवारी की मानहानि हुई है.

लेकिन सवाल यहां ये उठता है कि अगर सुशील तिवारी की मानहानि हुई है, तो उन्होंने खुद एफआईआर क्यों नहीं लिखवाई! खुद सुशील तिवारी अपने सोशल मीडिया पर मुस्लिमों के खिलाफ भड़काऊ पोस्ट करते हैं लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होती है.

ऐसे कई संगठन और लोग हैं, जो मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलते हैं लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है. ऐसे में यह क्यों न कहा जाए कि ऐसे लोगों को सरकार का समर्थन प्राप्त है!

खैर, यहां बहस का मुद्दा ये नहीं कि एफआईआर किसने की और किसने नहीं की. बल्कि यहां हमें ये समझने की जरूरत है कि एक दलित-मुस्लिम-आदिवासी की गिरफ्तारी पर हमारे समाजके तथाकथित ‘ब्राह्मणवादी प्रोग्रेसिव-लिबरल प्रोग्रेसिव’ लोगों को कितनी खुशी होती है!

प्रशांत की गिरफ्तारी पर कई लोग तो ये भी कहने लगे कि कहीं रास्ते में ही पुलिस की गाड़ी न पलट जाए और प्रशांत का एनकाउंटर न हो जाए.

किसी ने कहा प्रशांत ने जो किया उसके लिए उसे सही सजा मिली है आदि. जानती हूं कि उसकी भाषा से परेशानी हो सकती है, लेकिन क्या ये सब हर उस आरोपी या उस व्यक्ति के साथ होता है जो भड़काऊ भाषण देते हैं, देश को तोड़ने की या संविधान के खिलाफ़ बात करते हैं?

गोडसे को पूजते हैं, गांधी को गाली देते हैं, दलित-मुस्लिम को गाली देते हैं, उनका अपमान करते हैं, महिलाओं को रेप की धमकी देते हैं, धर्म के नाम पर दंगे तक करवा देते हैं… शायद नहीं.

ऐसा मैं नहीं बल्कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी की गई रिपोर्ट कह रही है. एनसीआरबी की एक हालिया रिपोर्ट में जेल में बंद कैदियों से जुड़े आंकड़े दिए गए हैं.

ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं क्योंकि इनसे पता चलता है कि देश के दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों की क्या हालत है. इसमें बताया गया है कि दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों की जेल में संख्या देश में उनकी आबादी के अनुपात से अलग है.

यानी जितनी जनसंख्या उनकी है, उसके अनुपात के हिसाब से जेल में उनकी संख्या ज्यादा है, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और सवर्णों के मामलों के साथ ऐसा नहीं है.

हैरान करने वाली है कि वर्ष 2019 के आंकड़े यह भी बताते हैं कि हाशिए पर पड़े समूहों में मुसलमान एक ऐसा समुदाय है, जिनके दोषियों से ज्यादा विचाराधीन मामले हैं.

रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 के आखिर तक देश भर की जेलों में 21.7% फीसदी दलित बंद थे. जेलों में विचाराधीन कैदियों में 21 फीसदी लोग अनुसूचित जातियों से थे. जनगणना में उनकी कुल आबादी 16.6 फीसदी हैं. आदिवासियों के मामले में भी अंतर बड़ा था.

इनमें सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में देखे गए हैं. इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि सरकार उन लोगों पर हमला कर रही है जो सिस्टम के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं और अगर उनकी जाति और धर्म दलित, आदिवासी, मुस्लिम है, तो उनके लिए सजा का प्रावधान और सख्त कर दिया जाता है और जबरन उन्हें जेल में डाल दिया जाता है.

ऐसा करने पर जहां सरकार का विरोध होना चाहिए था वहीं कुछ तथाकथित लिबरल-प्रोग्रेसिव लोग इसका जश्न मनाते हैं क्योंकि कहीं न कहीं उनका मनुवाद जाग जाता है या फिर समाज के भय की वजह से वे ऐसा करते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर हेनी बाबू को 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में 21 अगस्त तक न्यायिक हिरासत में भेजा गया था.

ये मामला एक जनवरी 2018 को हुई हिंसा से जुड़ा है, जिसमें कोरेगांव युद्ध के 200वें वर्षगांठ समारोह के बाद हिंसा में एक व्यक्ति मारा गया था और कई लोग घायल हुए थे.

इस केस में 12 सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई है और सभी पर एल्गार परिषद नाम के आयोजन में शामिल होने का आरोप है, जिसे दलित और आंबेडकर समर्थकों ने आयोजित किया था.

कहा गया है कि जांच में पाया गया कि इस आयोजन में भाषणों के जरिये हिंसा भड़काई गई थी.

इसी तरह डॉ. कफील पर भी आरोप लगे. 2017 में जब बीआरडी अस्पताल में 70 बच्चों की मौत ऑक्सीजन न मिलने से हुई तो डॉक्टर कफील ने कुछ बच्चों को बचाने की पूरी कोशिश की.

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उन्होंने अपनी गाड़ी में ऑक्सीजन सिलेंडर मंगवाए. लेकिन ये बात प्रशासन को शायद पची नहीं और उल्टा डॉ. कफील पर कई आरोप लगा दिए गए, जिस वजह से उन्हें जेल भेज दिया गया.

बीते एक सितंबर को देर रात छूटने के बाद डॉ. कफील अगले दिन जनता से सोशल मीडिया के जरिये जुड़े. उन्होंने फेसबुक लाइव में कई ऐसी बातों का ज़िक्र किया, जिन्हें सुनकर एक आम इंसान की रूह कांप जाएं.

एक जगह वे कहते हैं कि कोर्ट ने कहां कि मुझे तत्काल छोड़ा जाए, दिन में फैसला आ चुका था लेकिन मुझे छोड़ते-छोड़ते रात के बारह बजा दिए, शायद वे अभी भी प्रयास कर रहे थे कि हम कफील को और किस मामले में फंसा सकते हैं.

इससे पहले इलाहबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि डॉ. कफील ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जो भाषण दिया था वो बिल्कुल भड़काऊ नहीं था.

बल्कि उसमें सद्भावना, शिक्षा, स्वास्थ्य, इन्फ्रास्ट्रक्चर, बीआरडी में मारे गए बच्चों, अर्थव्यवस्था आदि की बात कही गई थी. लेकिन प्रशासन और सरकार ने उसे उल्टा ही मामला बनादिया.

डॉ. कफील ने अपने उस लाइव में बहुत ही खूबसूरत बात कही-

जुल्म के दौर में ज़ुबां खोलेगा कौन
अगर हम ही चुप रहेंगे तो बोलेगा कौन

लेकिन डॉ. कफील, प्रशांत कनौजिया, हेनी बाबू जैसे कई लोग ऐसे हैं जो आवाज बुलंद करने से पहले भूल जाते हैं कि हमारे देश में आवाज उठाने की सजा पहले से ही तैयार रहती हैं.

अपने और समाज के अधिकार मांगने वाले को यहां देशद्रोही, गद्दार कह दिया जाएगा या आपको कहा जाएगा इतनी ही परेशानी है तो पाकिस्तान चले जाओ…

यहां आपको कुछ लोगों का सपोर्ट जरूर मिलेगा लेकिन आपको गद्दार कहने वाला तबका आपको ट्रोल करेगा और हर पल ये कोशिश करेगा कि किसी तरह आप गिरफ्तार कर लिए जाएं।

और जैसे ही सरकार और प्रशासन को मौका मिलता है वे आपको गिरफ्तार कर भी लेंगे, फिर चाहे मामला झूठा ही क्यों ना हो.

तब इस तबके की खुश होने की बारी आती है. भले ही उस तबके के लिए आज के समय में  भेदभाव नहीं है, आरक्षण के नाम पर इनमें जहर भरा हो, जाति व्यवस्था इन्हें दिखाई न देती हो!

इसलिए जो जाति-व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज उठाता है उसे ये ट्रोल करते हैं और मरने की प्रार्थना तक कर लेते हैं.

डॉ. कफील खान जेल से बाहर आने पर जब सबसे सोशल मीडिया के जरिये रूबरू होते हैं, तो वे रोने लगते हैं. रोने लगते हैं अपनी बूढ़ी मां की हालत देखकर, अपने छोटे-छोटे बच्चों को याद करते समय.

वे रोने लगते हैं क्योंकि प्रताड़ित केवल उन्हें ही नहीं, उनके परिवार को भी किया गया. लेकिन फिर भी वे हार नहीं माने.

वे वीडियो में कहते हैं कि अगर बाबा साहेब का संविधान न होता तो मुझे आज इंसाफ नहीं मिलता. प्रशासन और सरकार की नजर में मैंने बीआरडी के बच्चों को बचाने की कोशिश की इसलिए मुझे आरोपी बना दिया, मैं पूछना चाहता हूं इसमें मेरी गलती क्या है!

एनसीआरबी की मानें, तो इस तरह के मामले ज्यादातर उत्तर प्रदेश में मिले हैं. शायद एक यही वजह भी रही कि डॉ. कफील ने महाराष्ट्र सरकार से प्रार्थना की थी कि मुझे वहां बुलाया जाए, मुझे उत्तर प्रदेश में नहीं रहना, मुझे यूपी पुलिस पर विश्वास नहीं.

ये मामले केवल प्रशांत, कफील, हेनी बाबू तक ही सीमित नहीं है, जो कोई अपने हक की आवाज उठा रहा है, उसे जेल में भेजा जा रहा है.

हां, ये जरूर सच है कि जेल भेज जाने वालों में सबसे ज्यादा दलित-मुस्लिम-आदिवासी है. यहां मुझे मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद का लिखा याद आ रहा है-

वही क़ातिल, वही मुंसिफ़, अदालत उसकी वो शाहिद,
बहुत से फ़ैसलों में अब तरफ़दारी भी होती है.

ये सालों पहले लिखा गया था और तब लिखने वाले को बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि ये बात 21वीं सदी में भी एकदम सटीक बैठेगी, जब मज़लूमों पर अत्याचार होगा.

जहां कातिल भी वही, इंसाफ करने वाला भी वही, अदालत भी उसकी और गवाह भी उसी का होगा, तो क्या आम इंसान या ये कहूं बहुजनों को इंसाफ मिलना आसान होगा!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)