ऑनलाइन प्लेटफॉर्म मूबी पर उपलब्ध शाज़िया इक़बाल की 21 मिनट की फिल्म बेबाक एक निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार की लड़की फतिन और उसके सपनों की कहानी है.
एक निम्न-मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार की लड़की फतिन (सारा हाशमी) मुंबई के एक कॉलेज में आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रही है.
उसके पिता (विपिन शर्मा) एक रिकॉर्डिंग स्टूडियो में मैनेजर हैं, जो उसकी पढ़ाई का खर्च उठा पाने में समर्थ नहीं हैं. फतिन को वजीफे की जरूरत है और उसकी सारी उम्मीदें टिकी हैं एक स्थानीय इस्लामिक संगठन पर.
एक तंग घर में अपने मां-बाप और भाई-बहन के साथ रहने वाली और फर्श पर सोने वाली फतिन के लिए- नौकरी दिलाने वाली कॉलेज की डिग्री ही टिकाऊ आज़ादी का एकमात्र दरवाजा है.
लेकिन, फतिन की राह में रुकावट बन कर खड़ी है खुद फतिन- या कहें उसका स्त्री होना और उसका मजहब.
इस कभी न खत्म होने वाली पहचान की राजनीति के सर्कस में फतिन एक साथ दर्शक और अदाकार दोनों है, मगर एक व्यक्ति नहीं. वह क्या चुने जो उसके लिए कम बदकिस्मत हो- वह दुनिया को जीत ले मगर खुद को हार जाए या जमीन पर पांव टिकाए रखे, मगर आजादी के नियम बनाने और उस पर फैसला करने वाली भीड़ की अस्वीकृति मोल ले.
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म मूबी पर उपलब्ध शाज़िया इक़बाल की 21 मिनट की बेबाक, एक तीसरी गुंजाइश की कल्पना भी करती है, जहां बगावत जिम्मेदारी बन जाती है.
इस फिल्म में पहचान को लेकर एक सतत बनी रहने वाली चिंता है. फिल्म की शुरुआत में फतिन की मां (शीबा चड्ढा) उसे सिर ढंकने के लिए कहती है, क्योंकि वह इंटरव्यू के लिए पास के एक दकियानूस मुस्लिम इलाके भेंडी बाजार जा रही है.
इस सलाह को फतिन हंसी में उड़ा देती है, लेकिन एक जवान लड़की के तौर पर उसे महानगरीय कॉलेज के जीवन का अनुभव है, उसे पता है कि उसकी पहचान साये की तरह उसका पीछा करती है- जहां घुलने-मिलने का मतलब है छिपाना.
जब फतिन की दोस्त उसे मैसेज करते हुए पूछती है- ‘कहां इंटरव्यू है.’ तो पहले वह टाइप करती है-‘भेंडी बाजार’, लेकिन जल्दी से उसे डिलीट कर देती है और फिर ‘टाउन’ (शहर) का प्रयोग करती है, जो अलग से कोई पहचान नहीं उभारता.
सही-गलत के पारंपरिक विचारों और आत्म की उदार परिभाषा के बीच फंसी फतिन की खुद को तलाशने की यात्रा एक मार्मिक बेचैनी अख्तियार कर लेती है.
बेबाक में स्थान (स्पेस) का जिस तरह इस्तेमाल किया गया है, वह इसकी सबसे उल्लेखनीय खासियतों में से एक है.
फतिन का घर शोर और भीड़ से भरा हुआ है, जहां ठहरकर सोचना लगभग नामुमकिन है. ऐसा ही है उसका उसका शहर: जो कोलाहलपूर्ण, रिसती हुई, धक्का-मुक्की से भरी जगह है- कुरूपित और बेपरवाह- जो उसे कहता है- आगे बढ़ो या चुप बैठ जाओ.
फिल्म का एक बड़ा हिस्सा अस्त-व्यस्तता के ऐसे ही परिवेश में घटित होता है, एक घर में, दफ्तर में, बस में, चालाकी से तैयार किए गए फ्रेम्स और लगाए गए कट्स घुटन के बोध को बढ़ा देते हैं.
आखिर मुंबई में आजादी किसी किस्से-कहानियों के संघर्ष की तरह महसूस हो सकती है- आप एक स्तर पर चढ़ते हैं, फिर दूसरे और उम्मीद करते हैं कि कभी न ख़त्म होने वाली सीढ़ियां किसी तरह गायब हो जाएंगी.
इक़बाल एक तीक्ष्ण और आत्मविश्वास से भरी फिल्मकार हैं. वे न तो प्रदर्शन में समय बर्बाद करती हैं और न ही दुनियावी वास्तविकता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाती हैं.
यहां तक कि अपने कुछ सबसे तनावपूर्ण क्षणों में भी यह फिल्म अपना आपा नहीं खोती, खासकर स्कॉलरशिप का फैसला करते समय जब मौलवी (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) फतिन से पूछताछ करता है.
वह संगीत से आजीविका कमाने के कारण उसके पिता का आकलन कुटिलता के साथ करता है. फतिन से उसकी मजहबी तालीम के बारे में पूछता है.
यह दृश्य उल्लेखनीय ढंग से बगैर किसी सजावट के है- कोई बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं, मेज पर एक गिलास में चाय, दफ्तर के सामान, और बीच-बीच में मुस्कराता औरतों से नफ़रत करने वाला वह व्यक्ति- जैसे यह जिंदगी का कोई आम दिन हो.
एक अच्छी फिल्म आपको क्लाइमेक्स के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती है. आपके अंदर का अविश्वास से भरा व्यक्ति सोचता है, निश्चित ही यहां कुछ अलग होगा- खासतौर पर, अगर यह एक तरह से नयी सुबह की आहट देनेवाली छोटी फिल्म है, क्योंकि एक विश्वसनीय कहानी की जगह, एक मुक्तिदायी क्लाइमेक्स के लालच से बचना बहुत बड़ा है.
बेबाक इस तरह की जल्दबाजी या अनिर्णय से ग्रस्त नहीं है. बड़े विषय को लेकर बनाई गई इस फिल्म का क्लाइमेक्स एक छोटी लड़की के बारे में है- उसकी निगाह, उसकी ख्वाहिश, उम्मीदों के बारे में.
फिल्म जब समाप्त होती है, तो हम समझ पाते हैं कि इक़बाल की आजादी की परिभाषा संकीर्ण और स्वार्थी नहीं है- यह एक ताजगी से भरा विचार है, जो टोनी मॉरिसन की सबसे यादगार पंक्तियों को स्पष्ट करती है- ‘अगर आप आज़ाद हैं, तो ज़रूरी है कि आप किसी अन्य को भी आज़ाद कराएं.’
बेबाक आज़ादी को एक अकेली चिंगारी के रूप में दिखाने की बजाय पटाखे की एक लड़ी के रूप में देखती है, जिसमें अगर आग लगाई जाए, तो वह जमीन को जला सकती है.
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