देश के राजनीतिक तौर पर सर्वाधिक संवेदनशील मामलों को अनिवार्य रूप से जस्टिस अरुण मिश्रा की पीठ को ही भेजा जाता था और देश के सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम जज इसकी वजह जानने के लिए इतिहास में पहली बार मीडिया के सामने आए थे.
(यह लेख हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जस्टिस अरुण मिश्रा के न्यायिक करिअर और उनके फैसलों की पड़ताल पर केंद्रित पांच लेखों की श्रृंखला का पहला भाग है.)
नई दिल्ली: 2 सितंबर को भारत के सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जस्टिस अरुण मिश्रा को देश की सर्वोच्च अदालत के हालिया इतिहास का सबसे प्रभावशाली अवर (Puisne) जज कहा जा सकता है.
इससे पहले कि हम उनके फैसलों की विरासत की पड़ताल शुरू करें, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की थोड़ी जानकारी हमारे लिए मददगार हो सकती है.
जस्टिस अरुण मिश्रा वकीलों के परिवार से आते हैं. उनके पिता हरगोविंद जी मिश्रा 1977 से 1982 तक मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे. उनका निधन उनके सेवाकाल के दौरान ही हो गया था .
2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिए जस्टिस अरुण मिश्रा के नाम की सिफारिश तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने की.
उस समय जस्टिस अरुण मिश्रा कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे. इससे पहले जस्टिस अरुण मिश्रा नवंबर 2010 से दिसंबर 2012 तक राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहे.
वे सबसे पहले 25 दिसंबर, 1999 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के जज बने थे और 2010 में राजस्थान तबादला होने से पहले तक वहीं रहे.
1978 से 1999 तक वे एक वकील थे और संवैधानिक, दीवानी, औद्योगिक, सेवाएं -सर्विसेज- और आपराधिक मामले देखा करते थे. 1998 में 43 साल की उम्र में वे बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के सबसे कम उम्र के चेयरमैन बने.
सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपने आधिकारिक प्रोफाइल में जस्टिस अरुण मिश्रा ने बीसीआई चेयरमैन के तौर पर अपने योगदान का विशेष उल्लेख किया है- पंचवर्षीय लॉ पाठ्यक्रमों की शुरुआत, ‘स्तरहीन लॉ कॉलेजों’ को बंद करना, बड़ी संख्या में अनुशासनात्मक केसों का निपटारा, विदेशी वकीलों की भारत में स्थिति और प्रैक्टिस को लेकर नियमावली तैयार करना और वकीलों को मेडिकल सहायता में बढ़ोतरी.
जजशिप में भाई-भाई
पिछले साल मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे विशाल मिश्रा 45 साल की उम्र पूरी करने से पहले ही उच्च न्यायालय के जज नियुक्त किए गए, जबकि न्यायिक नियुक्ति के लिए ड्राफ्ट मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) के तहत ऐसी नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु 45 साल है.
ये विशाल मिश्रा, जस्टिस अरुण मिश्रा के भाई हैं. उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने सितंबर 2018 में उनके नाम की सिफारिश की और 10 मई 2019 को सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने उनकी राह में उम्र की अड़चन के बावजूद उनके नाम पर मुहर लगा दी.
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिर एसए बोबडे और एनवी रमना की सदस्यता वाले कॉलेजियम ने अपनी संस्तुति देते हुए बस इतना कहा : ‘जहां तक विशाल मिश्रा की उम्र का सवाल है, यह कॉलेजियम उनके नाम की सिफारिश करते वक्त उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण से पूरी तरह से सहमत है.’
उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने क्या स्पष्टीकरण दिया दिया था, इसका कोई जिक्र इस संस्तुति में नहीं किया गया था.
जस्टिस अरुण मिश्रा चयन करनेवाले इस फैसले का हिस्सा नहीं थे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता क्रम में चौथे नंबर पर होने के नाते वे सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए नामों की सिफारिश करनेवाले पांच सदस्यीय कॉलेजियम का हिस्सा थे.
कॉलेजियम के संकल्प में यह भी कहा गया, ‘उच्च न्यायालय में पदोन्नति देने के लिए जिन उपरोक्त नामों की सिफारिश की गई है, उनकी सुयोग्यता को निश्चित करने के लिए हमने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के कामकाज से परिचित अपने सहयोगियों से मशविरा किया है.’
यह साफ नहीं है कि क्या जस्टिस मिश्रा ने खुद को इस मशविरा प्रक्रिया से अलग किया था या नहीं.
जस्टिस विशाल मिश्रा की फेसबुक प्रोफाइल जिसे उन्होंने 2014 से अपडेट नहीं किया है, यह साफ कर देती है कि उनका एक निश्चित राजनीतिक झुकाव है.
उनकी एक पोस्ट में नेहरू-गांधी परिवार को मुसलमानों के तौर पर पेश किया गया है और इसे ‘गांधी परिवार के हिंदुओं के प्रति नफरत’ का कारण बताया गया है.
जस्टिस विशाल मिश्रा का जन्म 17 जुलाई, 1974 को हुआ था और वे 2036 में यानी अपने बड़े भाई के सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के 16 साल बाद अवकाश ग्रहण करेंगे.
अगर उनकी पदोन्नति सुप्रीम कोर्ट में हो जाती है, तो वे 65 साल की उम्र में 2039 में सेवानिवृत्त होंगे. उनकी कम उम्र का मतलब है कि अगर उनकी पदोन्नति सुप्रीम कोर्ट में कर दी जाती है, तो न सिर्फ उनके भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने की संभावना है, बल्कि उस पद पर उनका कार्यकाल भी लंबा होगा.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के तौर पर विशाल मिश्रा की नियुक्ति की आधिकारिक अधिसूचना केंद्रीय विधि मंत्रालय द्वारा पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों की घोषणा से एक दिन पहले 22 मई 2019 को जारी की गई.
दिलचस्प यह है कि अरुण मिश्रा भी 45 साल की उम्र पूरी करने से पहले मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के जज बने. लेकिन उस समय ऐसा कोई नियम नहीं था.
एक जज के तौर पर अरुण मिश्रा का रिकॉर्ड
7 जुलाई, 2014 से सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल की शुरुआत से सेवानिवृत्ति तक बतौर सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस अरुण मिश्रा ने 132 फैसले लिखे और वे फैसला देने वाली 540 बेंचों के सदस्य रहे.
उनके फैसलों का वार्षिक ब्यौरा नीचे दिया गया है:
जस्टिस अरुण मिश्रा ने 7 मुख्य न्यायाधीशों (सीजेआई) के मातहत कार्य किया, जिनमें से तीन 2014 में उन्हें उच्च न्यायालय से शीर्ष अदालत में पदोन्नति देने की सिफारिश करनेवाले कॉलेजियम के सदस्य थे.
ये जज थे, जस्टिस लोढ़ा, एचएल दत्तू और टीएस ठाकुर. इस कॉलेजियम के अन्य सदस्य थे जस्टिस बीएस चौहान और सीके प्रसाद. उन्होंने जिन अन्य मुख्य न्यायाधीशों के अधीन काम किया, वे हैं- जस्टिस जेएस खेहर, दीपक मिश्रा, रंजन गोगोई और एसए बोबडे.
हालांकि, जस्टिस अरुण मिश्रा को सीजेआई लोढ़ा के समय में पदोन्नति मिली, लेकिन वरिष्ठता में नीचे होने के बावजूद कोर्ट के सर्वाधिक प्रभावशाली जज के तौर पर उनका उठान बाद के मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल के दौरान हुआ.
जस्टिस दत्तू से लेकर सीजेआई एसए बोबडे तक, एक के बाद सभी मुख्य न्यायाधीशों ने उनमें विश्वास जाहिर किया- न सिर्फ उन्हें उनकी तरफ से फैसला लिखने के लिए कहा, बल्कि उनकी अध्यक्षता या सदस्यता वाली बेंचों को राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मामले भी सौंपे.
संजीव भट्ट केस
हालांकि इस बेंच की अगुआई सीजेआई दत्तू कर रहे थे, लेकिन उन्होंने संजीव राजेंद्र भट्ट बनाम भारतीय संघ वाले बेहद संवेदनशील मामले में फैसला लिखने के लिए जस्टिस अरुण मिश्रा को कहा.
13 अक्टूबर, 2015 को दिए गए अपने फैसले में, दत्तू-मिश्रा की बेंच ने भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी संजीव भट्ट की गुजरात राज्य सरकार द्वारा उनके खिलाफ दायर दो प्राथमिकियों की निष्पक्ष, विश्वसनीय और स्वतंत्र जांच कराने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया.
अदालत ने तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कई अन्य को इस मामले में प्रतिवादी (रेस्पांडेंट) बनाने की उनकी याचिका को भी खारिज कर दिया.
इन प्राथमिकियों के पीछे 2002 गुजरात दंगों में मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की भूमिका को लेकर विवादित दावों का हाथ था.
भट्ट, जिनकी पैरवी शीर्ष मानवाधिकारवादी वकील इंदिरा जयसिंह और प्रशांत भूषण कर रहे थे, ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वे 27 फरवरी 2002 को मोदी के घर पर हुई एक बैठक में मौजूद थे.
भट्ट ने आरोप लगाया कि इस बैठक में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने गोधरा ट्रेन कांड (जिसमें 57 हिंदू मारे गए थे) के बाद प्रतिशोधात्मक हिंसा करने के लिए हरी झंडी दी थी.
भट्ट ने गुजरात के तत्कालीन एडिशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता और दंगों के कुछ आरोपियों के बीच के कई ई-मेल्स को लीक किया और यह आरोप लगाया कि मेहता ने उन आरोपियों के साथ गोपनीय सूचनाएं और कानूनी दस्तावेज साझा किए, जिनके खिलाफ राज्य सरकार मामले चला रही थी.
अपने फैसले में जस्टिस अरुण मिश्रा ने यह कहा कि भट्ट के खिलाफ दायर की गई प्राथमिकियों की जांच करने के लिए एसआईटी (विशेष जांच दल) बिठाने का कोई कारण नहीं है.
जस्टिस मिश्रा ने यह भी कहा कि भट्ट का आचरण संदेहों से परे नहीं है और वे दूध में धुले होकर कोर्ट में नहीं आए हैं.
भट्ट के वकीलों ने मेहता और आरोपियों, मंत्रियों और गैर-सरकारी शक्तियों के वकीलों के बीच आपराधिक सांठगांठ का आरोप लगाया, जिसका मकसद, जैसा लीक हुए ई-मेल्स से पता चलता है, कानून के प्रशासन को कमजोर करना था.
जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि सिर्फ कोर्ट में जवाब दाखिल करने से पहले तीसरे पक्ष की राय लेना, किसी भी तरह से कानून के प्रशासन को कमजोर नहीं करेगा और यह आपराधिक साजिश की तरफ इशारा नहीं करता है.
जस्टिर अरुण मिश्रा ने इस मामले में जो कहा, वह प्रशांत भूषण के खिलाफ न्यायालय की अवमानना के मामले में प्रासंगिक है- जिसमें उसने भूषण को इस आधार पर दोषी ठहराया कि उनके ट्वीटों ने कोर्ट को की प्रतिष्ठा में बट्टा लगाया है.
जस्टिस मिश्रा ने कहा कि भट्ट यह साबित नहीं कर पाए कि तुषार मेहता के कृत्यों ने किसी भी तरह से न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप किया या उसमें बाधा पहुंचाने का काम किया.
केस लॉ की व्याख्या करते हुए जस्टिस मिश्रा ने यह कहा कि तत्कालीन एएजी (तुषार मेहता) और अन्य पदाधिकारियों के बीच ई-मेल्स का आदान-प्रदान पूर्वाग्रह से काम करने के बराबर नहीं था और इसे किसी भी अन्य तरीके से न्याय की समुचित प्रक्रिया (ड्यू कोर्स ऑफ जस्टिस) में ठोस हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता.
इसके अलावा जस्टिस मिश्रा को मेहता का आचरण कोर्ट को बदनाम करने वाला या किसी तरह से कोर्ट के निष्पक्ष फैसले को प्रभावित करने वाला या इसकी सर्वोच्चता/ या न्याय के प्रशासन में लोगों के विश्वास को कम करने वाला या कोर्ट को बदनाम करने या उसे अपमानित करने वाला नहीं लगा.
उसके बाद क्या हुआ: संजीव भट्ट के खिलाफ अतिरिक्त मामले चलाए गए, जिनमें से एक मामला 1989 का था, और वे अब जेल में हैं. तुषार मेहता भारत के सॉलिसिटर जनरल तक के पद पर पहुंचे.
सहारा-बिड़ला डायरी केस
मुख्य न्यायाधीश खेहर के कार्यकाल के दौरान सहारा-बिड़ला डायरी का मामला जस्टिस अरुण मिश्रा को सौंपा गया.
इस मामले की सुनवाई केवी चौधरी की सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर और टीएम भसीन की विजिलेंस कमिश्नर के तौर पर हुई नियुक्ति को दी गई चुनौती के बीच उससे संबंधित आवेदन के तौर पर की गई.
अपने आवेदन में, एनजीओ कॉमन कॉज ने इनकम टैक्स डिपार्टमेंट द्वारा 2013 में आदित्य बिड़ला ग्रुप ऑफ कंपनीज के दफ्तरों में मारे गए छापे में बरामद किए गए कागजातों को- जिनसे लोकसेवकों को घूस दिए जाने की बात सामने आ रही थी- सीबीआई को सौंपने में नाकाम रहने की जांच कराने की मांग की थी.
इन डायरियों में दर्ज एंट्रियों में से एक एंट्री गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 25 करोड़ के भुगतान की तरफ इशारा कर रही थी. उस समय इनकम टैक्स की पड़तालों के इंचार्ज केवी चौधरी थे.
11 जुलाई, 2017 को दिए गए अपने आदेश में जस्टिस अरुण मिश्रा ने (जो उस समय तक भी इतने वरिष्ठ नहीं हुए थे कि किसी पीठ की अध्यक्षता कर सकें) कॉमन कॉज के आवेदन को खारिज कर दिया.
कारण: संवैधानिक पदाधिकारियों पर ढीले-ढाले पन्नों के आधार पर जांच नहीं बैठाई जा सकती.
जल्दी ही ये आरोप सामने आए कि जस्टिस अरुण मिश्रा के दिल्ली के आधिकारिक आवास के साथ-साथ ग्वालियर के उनके निवास पर आयोजित उनके भतीजे की शादी के कार्यक्रम में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ-साथ कई भाजपा नेता मौजदू थे.
इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के छापे में बरामद किए गए सहारा के कागजातों में पैसे लेने वालों में कथित तौर पर चौहान का भी नाम था.
बाद में 2 जुलाई, 2018 को जस्टिर अरुण मिश्रा ने (जस्टिस मोहन एम शांतनागौदर के साथ बैठते हुए) सीवीसी के तौर पर चौधरी और वीसी के तौर पर भसीन की नियुक्ति को चुनौती देने वाली मुख्य याचिका को भी खारिज कर दिया.
इस याचिका का आधार यह था कि ये दोनों इस पद के लिए जरूरी प्रश्नों से परे ईमानदारी की योग्यता को पूरा नहीं करते हैं.
पीठ ने निर्णय दिया, ‘(चौधरी और भसीन के खिलाफ) ऐसे आरोपों को बिना किसी ठोस सबूत के स्वीकार नहीं किया जा सकता. यहां तक कि काफी ईमानदार व्यक्तियों पर भी आरोप लगाए जा सकते हैं. वे दिन चले गए, जब आरोप दाखिल कर देने को ही किसी व्यक्ति की ईमानदारी पर गंभीर दाग के तौर पर देखा जाता था. आदर्श तौर पर तो कोई गंभीर शिकायत नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसे दर्ज करने से सवाल उठते हैं. वर्तमान मामले में शिकायतों पर गौर किया गया है और हम इसमें हस्तक्षेप करने से इनकार करते हैं.’
इसके बाद क्या हुआ: बिड़ला-सहारा डायरियों की कभी जांच नहीं की गई; 2019 में सीवीसी के पद से रिटायर होने के बाद केवी चौधरी रिलायंस इंडस्ट्रीज के बोर्ड के सदस्य बना दिए गए.
लोया से लालू और हरेन पांड्या तक
एक के बाद एक बनने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीशों द्वारा राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मामलों को जस्टिस अरुण मिश्रा को सौंपा जाना सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों के 12 जनवरी 2018 के प्रेस कॉन्फ्रेंस के पीछे की एक मुख्य वजह थी.
उनके द्वारा सार्वजनिक तौर पर अपना पक्ष रखने का नतीजा यह रहा कि जज बीएच लोया की मृत्यु की जांच कराने की मांग करने वाली याचिका- जिसे जस्टिस अरुण मिश्रा के सामने सूचीबद्ध किया जाना था– को बाद में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा सुना गया.
इस पीठ के अन्य सदस्य जस्टिस एएम खानविलकर व डीवाई चंद्रचूड़ थे. लेकिन इससे उस नतीजे में कोई फर्क नहीं पड़ा जिसकी आशंका जताई जा रही थी- याचिका को खारिज कर दिया गया.
यह मामला खासतौर पर संवेदनशील था क्योंकि लोया की रहस्यमय मृत्यु से एक ऐसी स्थिति पैदा हुई, जिसमें अमित शाह- तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और अब केंद्रीय गृहमंत्री- मुकदमे का सामना किए बगैर ही सोहराबुद्दीन-कौसर बी हत्या मामले से बरी हो गए.
सर्वोच्च न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के तत्कालीन जज जस्टिस बीआर गवई के बयानों पर काफी भरोसा किया कि लोया की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई.
इसके बाद क्या हुआ: सोहराबुद्दीन मामला- जो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के आधार पर शुरू हुआ था- आखिरकार बिखर गया और सारे आरोपी बरी कर दिए गए. जस्टिस बीआर गवई को सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति दे दी गई.
झारखंड राज्य (मार्फत एसपी, सीबीआई) बनाम लालू प्रसाद एवं अन्य वाला वाद एक और राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मामला था, जिसे जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच को सौंपा गया.
जस्टिस अमिताव रॉय के साथ बैठते हुए उन्होंने इस मामले पर 8 मई, 2017 को फैसला सुनाया. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाले में मामला चल रहा था.
बेंच ने फैसला सुनाया कि एक अपराध के लिए दोषसिद्धि दूसरे अपराध के लिए अभियोजन और दोषसिद्धि पर रोक नहीं लगाती, भले ही दो अपराधों के कुछ तत्व समान हैं.
इसे दोहरे ख़तरे का मामला मानने से इनकार करते हुए बेंच ने यह तजवीज दी कि यह नहीं कहा जा सकता है कि आरोपी पर एक ही अपराध के लिए दोबारा मुकदमा चलाया जा रहा है.
चूंकि अनुच्छेद 20(2) दोहरे ख़तरे का निषेध करता है, इसलिए उच्च न्यायालय ने यादव के खिलाफ मामलों को खारिज कर दिया था, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें फिर से जीवित कर दिया.
इसके अलावा इस मामले का अभियोजन चलाने वाली सीबीआई ने तय अवधि में अपनी अपील भी दायर नहीं की थी. सीबीआई को उसके आलस के लिए कड़ी फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने ट्रायल कोर्ट से सुनवाई की रफ्तार तेज करने के लिए कहा.
इसके बाद क्या हुआ: लालू प्रसाद यादव अभी भी जेल में हैं.
उपरोक्त मामलों के अलावा जस्टिस अरुण मिश्रा को बेहद अहम हरेन पांड्या मर्डर केस भी सौंपा गया, जिसमें जस्टिस विनीत शरण और जस्टिस मिश्रा की सदस्यता वाली पीठ ने उच्च न्यायालय द्वारा आरोपियों को बरी करने के फैसले को पलट दिया.
मेडिकल घोटाले से सीजेआई यौन शोषण मामले तक बने मुख्य न्यायाधीशों के संकटमोचक
जस्टिस अरुण मिश्रा, भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल के दौरान उस पीठ का हिस्सा थे, जब दीपक मिश्रा ने एक अल्प अवधि के नोटिस पर मेडिकल कॉलेज रिश्वत मामले को बड़ी बेंच में भेजने के फैसले को पलटने के लिए एक पांच सदस्यीय पीठ का गठन किया.
9 नवंबर 2017 को जस्टिस चेलमेश्वर और एस अब्दुल नजीर की पीठ को यह बात उचित लगी कि एफआईआर में गंभीर आरोपों को देखते हुए, जिसका ताल्लुक कोर्ट से है, कामिनी जायसवाल की याचिका पर वरिष्ठता क्रम के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के पहले पांच सीनियर जज (नंबर 2 से 6, क्योंकि आरोप मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ थे) सुनवाई करें.
10 नवंबर, 2017 को आनन-फानन मे गठित एक पांच सदस्यीय पीठ ने इस फैसले को पलट दिया. जस्टिस चेलमेश्वर के नेतृत्व में पांच सदस्यीय पीठ द्वारा सुनवाई तीन दिन बाद 13 नवंबर 2017 को निर्धारित थी.
उसके बाद क्या हुआ यह एक इतिहास है. 14 नवंबर, 2017 को तीन जजों की पीठ में, जिसमें जस्टिस अरुण मिश्रा भी थे, ने आरोपों की जांच करने की मांग करनेवाली याचिका को खारिज कर दिया.
साफतौर पर इस आदेश में यह सबक दिया गया था कि अपने आलोचकों को मात कैसे की जाए, साथ ही यह भी बताया कि मास्टर ऑफ रोस्टर होने के नाते मुख्य न्यायाधीश उन मामलों की सुनवाई के लिए, जो उसके खिलाफ ही लगाए गए आरोपों से संबंधित हैं, पीठ गठित कर सकता है, खुद ही उनकी सुनवाई और उन पर फैसला कर सकता है.
उसी पीठ ने कैंपेन फॉर जुडिशल अकाउंटिबिलिटी एंड रिफॉर्म्स द्वारा द्वारा दायर की गई एक अन्य याचिका को खारिज कर दिया और भारी जुर्माना लगाया.
2019 में जब रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश थे, जस्टिस अरुण मिश्रा ने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोपों के विवादास्पद निपटारे में अहम भूमिका निभाई.
जस्टिस मिश्रा को मुख्य न्यायाधीश द्वारा महिला के आरोपों पर विचार करने के लिए बनी विशेष बेंच का हिस्सा खुद गोगोई ने ही बनाया था. इस सुनवाई में गोगोई ने अपनी बेगुनाही घोषित की और (आरोप लगाने वाली) महिला और उसके परिवार के चरित्र पर हमला किया.
इस पीठ ने एक वकील के इस निराधार आरोप को भी सुनवाई में शामिल किया कि (महिला द्वारा लगाए गए) मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ आरोप कॉरपोरेट दलालों द्वारा न्यायपालिका को अस्थिर करने की साजिश का हिस्सा है और और इसके लिए अलग से जांच करने का आदेश दिया.
सुनवाई के अंत में जारी किए गए आदेश, जिस पर सिर्फ जस्टिर अरुण मिश्रा और जस्टिस संजीव खन्ना के हस्ताक्षर थे, में मीडिया से ‘संयम दिखाने, जैसा कि उनसे उम्मीद की जाती है, जिम्मेदारी के साथ काम करने और इसका ख्याल रखते हुए क्या प्रकाशित करना है और क्या नहीं, इसका फैसला करने’ की दरख्वास्त की क्योंकि बेबुनियाद और बदनाम करनेवाले आरोप प्रतिष्ठा को कम और भरपाई न करने योग्य ढंग से उसे नुकसान पहुंचाते हैं और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ग्रहण लगाते है.’
बड़ी साजिश की जांच एक अवकाश प्राप्त जज जस्टिस एके पटनायक को सौंपी गई, लेकिन जस्टिर मिश्रा ने उनकी रिपोर्ट पर कोई एक्शन नहीं लिया, जबकि रिपोर्ट अक्टूबर 2019 को ही सौंप दी गई थी.
उसके बाद क्या हुआ: गोगोई के कार्यकाल में जिस महिला को बर्खास्त कर दिया गया था, उसकी नौकरी को जनवरी 2020 में बहाल कर दिया गया. गोगोई सरकार द्वारा मनोनीत होकर राज्यसभा के सदस्य बन गए.
सीबीआई के आंतरिक निदेशक के तौर पर नागेश्वर राव की नियुक्ति
कॉमन कॉज बनाम भारतीय संघ वाले मामले में 2019 में सीबीआई के अंतरिम निदेशक के तौर पर नागेश्वर राव की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह एक मनमानी और गैर-कानूनी नियुक्ति है.
जैसा कि सीबीआई बनाम सीबीआई के द वायर की रिपोर्टस ने दिखाया, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई समेत तीन जजों द्वारा खुद को इस मामले से अलग कर लेने के बाद यह मामला जस्टिस अरुण मिश्रा और नवीन सिन्हा की बेंच के सामने सूचीबद्ध किया गया.
लेकिन मिश्रा की बेंच ने इस चुनौती को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अंतरिम निदेशक की नियुक्ति को उच्च शक्ति प्राप्त सलेक्शन कमेटी द्वारा देल्ही स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 1946 की धारा 4ए के तहत प्राधिकृत किया गया था.
तब से क्या हुआ है: राव को जुलाई, 1946 में डीजी फायर सर्विस बनाया गया और वे पिछले महीने पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त हुए.
द वायर बनाम जय शाह
अगस्त 2019 में द वायर ने सुप्रीम कोर्ट से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह के बेटे द्वारा दायर की गई आपराधिक मानहानि और सिविल मानहानि के मामलों को निरस्त करने की याचिका को सुप्रीम कोर्ट से वापस ले लिया और यह कहा कि यह गुजरात के ट्रायल कोर्ट में अपना पक्ष रखेगी.
इसके इस फैसले का एक कारण, निश्चित तौर पर इस मामले का आश्चर्यजनक ढंग से जस्टिस अरुण मिश्रा, एमआर शाह और बीआर गवई की पीठ के सामने सूचीबद्ध किया जाना था, जबकि सामान्य तौर पर इस मामले पर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ या जस्टिस एएम खानविलकर को सुनवाई करनी चाहिए थी, जो पहले की सुनवाइयों में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की बेंच का हिस्सा थे.
याचिका को वापस ले लेने और द वायर के वकील द्वारा गुण-दोष को लेकर कोई दलील न देने के बावजूद और पहले की एक तारीख में खुद यह पूछने के बावजूद कि यह मामला किस चीज को लेकर है, जस्टिस अरुण मिश्रा ने यह शिकायत की कि सवालों का जवाब देने के लिए पर्याप्त समय दिए बगैर रिपोर्ट प्रकाशित करके मीडिया ‘पीत पत्रकारिता’ कर रहा है.
यह बिना किसी आधार के निकाला गया निष्कर्ष था क्योंकि शाह की कारोबारी गतिविधियों पर स्टोरी 8 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित हुई- उन्हें सवाल भेजने के दो दिन बाद- और उनके जवाबों न केवल पूरी तरह से स्टोरी में शामिल किया गया था, बल्कि उन्हें अलग से भी प्रकाशित किया गया था.
एक संक्षिप्त सुनवाई में जस्टिस मिश्रा तुषार मेहता से मुखातिब हुए, जो उस समय कोर्ट में थे और उनसे पूछा कि क्या मामले को इस तरह से वापस लिया जा सकता है. मिश्रा ने पूछा क्या कोर्ट को इससे जुड़े बड़े सवालों पर विचार नहीं करना चाहिए.
मेहता ने कहा कि वे जस्टिस मिश्रा से पूरी तरह से सहमत हैं, लेकिन उन्होंने इस मामले से जुड़े अपने हितों को उजागर नहीं किया.
अक्टूबर, 2017 में उन्होंने भाजपा नेता के बेटे को लेकर द वायर की रिपोर्टिंग से उभरने वाले किसी गंभीर मामले में जय शाह की पैरवी करने की इजाजत केंद्रीय विधि मंत्रालय से मांगी, जो उन्हें दे दी गई.
बंदी प्रत्यक्षीकरण (हिरासत में लिए गए लोगों को पेश करने) के मामले को लेकर कोई तत्परता नहीं
जबकि मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और उनके पूर्ववर्ती रंजन गोगोई अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने से उपजे संवैधानिक सवालों पर सुनवाइयों को प्राथमिकता देने में नाकाम रहे, वहीं बिना किसी आरोप के एक साल से ज्यादा समय से हिरासत में रखे गये जिन राजनेताओं के मामले अरुण मिश्रा के समक्ष सूचीबद्ध थे, उन्हें कोई राहत नहीं मिली.
जस्टिस मिश्रा ने सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और पूर्व केंद्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज़ की तरफ से दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका पर सुनवाई की.
मुफ्ती की बेटी इल्तिजा द्वारा दायर की गई याचिका पर 26 फरवरी के बाद सुनवाई नहीं की गई, वहीं सोज़ की पत्नी मुमताजुन्निसा द्वारा दायर याचिका को बस जम्मू-कश्मीर प्रशासन द्वारा दायर हलफनामे के आधार पर खारिज कर दिया गया, जिसमें कहा गया था कि सोज हिरासत में नहीं हैं.
उसी शाम सोज को टेलीविजन चैनलों द्वारा श्रीनगर में अपने घर से निकलने की असफल कोशिश करते हुए दिखाया गया, लेकिन कोर्ट को गुमहराह करने के लिए राज्य प्रशासन पर कभी कोई अवमानना का मामला दर्ज नहीं किया गया.
उसके बाद क्या हुआ: मुफ्ती और सोज़ आज तक हिरासत में हैं.
राजस्थान संकट
राजस्थान के हालिया सियासी संकट, जिसने अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली राज्य सरकार की स्थिरता पर खतरा पैदा कर दिया था, के मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा ने विधानसभा स्पीकर द्वारा विश्वास मत से पहले सचिन पायलट के नेतृत्व में कांग्रेस से बगावत करने वाले विधायकों को अयोग्य घोषित करने से रोकने के राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले पर स्थगन लगाने से इनकार करके एक तरह से राज्य में सत्ताधारी दल को किसी भी तरह से राहत देने से इनकार कर दिया.
यह अलग बात है कि विरोधी गुटों के साथ आ जाने से राज्य के इस सियासी संकट का खुद ही हल निकल गया.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)