मुंबई की भायखला जेल में बीते 23 जून को एक महिला क़ैदी मंजुला शेट्टे के साथ बर्बरतापूर्ण हिंसा की गई जिससे उनकी मौत हो गई. हिरासत में होने वाली हिंसा और जेलों की स्थिति पर सामाजिक कार्यकर्ता अरुण फरेरा और वर्णन गोंसाल्विस से बातचीत.
भायखला जेल में महिला क़ैदी मंजुला शेट्टे की मौत ने महाराष्ट्र की सभी जेलों में क़ैदियों की दुर्दशा को उजागर किया है. इस घटना में जेलर मनीषा पोखरकर, महिला जेल कॉन्सटेबल बिंदू नायकडे, वसीमा शेख, शीतल शेगांवकर, सुरेखा गल्वे और आरती शिंगे हिंसा और हत्या के आरोपों के कठघरे में हैं.
पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक मंजुला शेट्टे के शरीर पर अंदरूनी जख़्म थे, जो मौत की वजह हो सकते हैं. परिजनों का आरोप है कि मंजुला की पिटाई के बाद मौत हो गई. इसके विरोध में सैकड़ों महिला क़ैदियों ने जेल में धरना प्रदर्शन किया था.
मुंबई पुलिस प्रवक्ता डॉ. रश्मि करंदीकर के मुताबिक नागपाड़ा पुलिस ने भायखला जेल प्रकरण मामले में दो एफआईआर दर्ज की हैं. इसमें से एक एफआईआर मंजुला की हत्या के मामले में दर्ज हुई है, जिसमें जेलर मनीषा पोखरकर और पांच अन्य जेलकर्मी आरोपी हैं. आईजी (जेल) बीके उपाध्याय के मुताबिक मामले में आरोपी सभी छह जेलकर्मियों को निलंबित कर दिया गया है.
दूसरी एफआईआर जेल की तकरीबन 200 महिला क़ैदियों के ख़िलाफ़ है, जिन पर जेल में मारपीट और दंगा करने का आरोप है.
ननद की हत्या करने के लिए उम्रकैद की सज़ा काट रही 31 वर्षीय मंजुला शेट्टे वर्ष 2005 से पुणे की यरवडा जेल में बंद थी और उसे हाल ही में भायखला जेल में लाया गया था.
अरुण फरेरा और वर्णन गोंसाल्विस मुंबई में सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
अरुण फरेरा को माओवादी बताकर साल 2007 के मई महीने में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और लगभग 5 साल जेल में रहने के बाद इनके ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत न पाते हुए कोर्ट ने इन्हें रिहा कर दिया. वर्णन को भी एक नक्सली संगठन का सदस्य बताकर अगस्त 2007 में पुलिस ने गिरफ्तार किया था. वर्णन भी 6 साल जेल में बिता चुके हैं.
अरुण फरेरा और वर्णन का एक राजनीतिक क़ैदी की तरह लंबा और महत्वपूर्ण अनुभव रहा है. इसी कारण से वो राजनीतिक कैैदियों के हक की लड़ाई और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को जारी रखे हुए हैं. द वायर के साथ उनकी बातचीत…
मंजुला शेट्टे के साथ हिरासत में हुई इस घटना को आप कैसे देखते हैं?
मंजुला के साथ जो हादसा हुआ वो भारतीय जेलों में होने वाली कोई पहली और नई घटना नहीं है. भारतीय जेलों में क़ैदियों पर अत्याचार आम बात है. दरअसल जेल प्रशासन हिंसा के पीछे अनुशासन बनाए रखने की दलील देता है. पर असल में जेल प्रशासन के लिए भले ही जेल एक सुरक्षित जगह हो लेकिन क़ैदियों के लिए जेल एक ऐसी जगह है जहां उनके साथ जबरन मारपीट, उत्पीड़न और हिंसा घटनाएं अक्सर होती रहती हैं.
आपने मंजुला शेट्टे के साथ हुई हिंसा की तुलना निर्भया केस से की है, इस तुलना का आधार क्या है जबकि महिला आयोग ने यौन हिंसा के आरोपों को ख़ारिज कर दिया है?
मैंने ये तुलना ‘बर्बरता’ के आधार पर की है. अक्सर ही प्रशासन द्वारा की गई हिंसा को लोग सज़ा की दृष्टि से देखते हैं क्योंकि एक सोच गढ़ दी जाती है कि ‘ये सारे लोग अपराधी हैं, उन्होंने कुछ तो गलत किया है जिसके कारण से ये मारपीट या हिंसा की गई है.’ हमारे लिए प्रशासन द्वारा की गई हिंसा ज्यादा गंभीर बात है क्योंकि पुलिस और प्रशासन की ज़िम्मेदारी है कि वो जनता के मूल अधिकारों को सुरक्षित रखे.
इस तरह से कानून हाथ में लेने की हिम्मत इसलिए आती है क्योंकि आमतौर पर इन अधिकारियों को अपराध करने के बाद भी निर्दोष साबित कर दिया जाता है या फिर बचा लिया जाता है.
निर्भया मामले में कुछ पुरुषों ने एक महिला पर बर्बरता, क्रूरता, हिंसा और बलात्कार किया था पर भायखला में तो महिला अधिकारियों द्वारा ही महिला क़ैदी के साथ बर्बरता की घटना सामने आई, आप इसे किस तरह से देखते हैं?
जेल में महिला अधिकारियों द्वारा महिला क़ैदी और पुरुष अधिकारियों द्वारा पुरुष क़ैदियों पर अत्याचार और उत्पीड़न आम बात है. कुछ घटनाएं ऐसी भी सुनने में आई हैं जहां पुरुषों ने महिला क़ैदी पर यौन हिंसा की है. जेल में इस तरह का अत्याचार इसलिए किया जाता है जिससे बाकियों के सामने उदाहरण रखा जा सके और इनको डराया जा सके कि नियम को तोड़ना या अधिकारी से जवाब मांगने का नतीजा क्या हो सकता है.
मंजुला शेट्टे मामले में पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में इतनी देर क्यों की? साथ ही आपने कहा कि यौन हिंसा की जांच में लापरवाही हुई और प्रशासन द्वारा हार्ट अटैक की गलत सूचना दी गई. आपको इसके पीछे का क्या कारण लगता है?
पुलिस की हिरासत में किसी क़ैदी की मौत हो जाने के बाद पूरा प्रशासन ये प्रयास करता है कि उस मौत की ज़िम्मेदारी किसी के भी सिर न आए. हार्ट अटैक बताकर मौत का कारण छिपाना आम बात है. कभी-कभी परिस्थितियों के अनुसार ये भी कहानी बनाते हैं कि बाकी क़ैदियों ने उन्हें मारा, ये कोशिश इस घटना में भी की गई है.
जेल प्रशासन क़ैदी के मानसिक रूप से बीमार होने और आत्महत्या करने की भी झूठी कहानी बनाता है. अगर आप केंद्र सरकार के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि ज़्यादातर मौत के कारण आत्महत्या बताए गए हैं. अगर बाकी क़ैदियों ने हंगामा नहीं किया होता और बहादुरी नहीं दिखाई होती तो इस घटना को भी कुछ ऐसे ही दिखाया जाता.
जेल प्रशासन ने शुरू में इस केस को एक ऐसी जांच अधिकारी (स्वाति साठे) के हाथ में दिया जिनको हिरासत में की गई हिंसा के मामले में कोर्ट द्वारा दोषी करार दिया जा चुका है. हालांकि उन्हें सज़ा नहीं हुई. स्वाति ने मामला हाथ में आने के बाद सबको वॉट्सऐप मैसेज किया कि उन्हें अपनी जेल अधिकारी बहनों की मदद करनी चाहिए. ये सब योजना के तहत किया गया है.
जेल के अंदर इस तरह मारपीट और अत्याचार से क्या प्रशासन अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके क़ैदियों के बीच डर का माहौल बनाने की कोशिश करता है?
हां, जेल प्रशासन क़ैदियों के बीच डर का माहौल बनाए रखने का भरपूर प्रयास करता है कि कोई भी नियमों को न तोड़े और किसी भी प्रकार की कमी की शिकायत न करे और न ही अधिकारियों से किसी भी प्रकार का जवाब मांगे.
जेल के क़ैदियों के बीच आपसी मेलमिलाप बढ़ने से प्रशासन और राज्य को क्या डर है? क्या इसी कारण से राजनीतिक क़ैदियों को जेल में बहुत निगरानी और अकेले रखा जाता है?
क़ैदियों के बीच मेलमिलाप बढ़ने से जेल प्रशासन हमेशा ही डरता है. क़ैदियों के संगठित होने की कोई भी ख़बर प्रशासन को मिल जाए तो वो कुछ जाने-पहचाने चेहरों का तबादला कर देते हैं या फिर उनके बैरक बदल देते हैं. और कोशिश करते हैं कि संगठित करने वाले क़ैदियों को सबसे अलग और अकेले रखा जाए.
राजनीतिक क़ैदियों को अक्सर ही समाज को संगठित करके सरकार के विरोध में खड़ा करने के आरोप में ही जेल में डाला जाता है. उनके इस गुण के कारण सरकार काफी सतर्क रहती है. अपनी इसी राजनीतिक समझदारी के कारण ही वो जेल में हो रहे विद्रोह का नेतृत्व कर सकते हैं.
इसलिए सरकार उन पर ख़ास निगरानी रखती है और इसी कारण से उन्हें बाकी सबसे अलग रखती है. ये प्रथा अंग्रेजों के ज़माने से चली आ रही है. अंग्रेज इसे ‘सेप्टिक टैंक प्रिंसिपल’ बोलते थे.
मंजुला की मौत के बाद बाकी क़ैदियों द्वारा किए गए प्रदर्शन से क्या इस केस की कार्रवाई में कुछ फर्क पड़ा? 300 क़ैदियों पर न्याय की मांग करने के कारण दंगे का आरोप क्यों लगा है?
जेल में जब भी अधिकारियों द्वारा अत्याचार होने और मानवाधिकार के हनन की घटना सबके सामने आ जाती है तब प्रशासन एक ऐसा तर्क सामने लाता है जिसके आधार पर ये साबित किया जा सके कि उन्हें मजबूरी में मानव अधिकारों का हनन करना पड़ा.
इस तरह की फर्ज़ी ख़बर बनाने में एक और मकसद पूरा होता है कि हिरासत में हुए अत्याचार और हिंसा के गवाह क़ैदियों के बयानों को प्रशासन के हिसाब से बदल देने के लिए क़ैदी को मजबूर करना.
जेल में कुछ महिलाएं अपने बच्चों के साथ रहती हैं. इस तरह की मार-पीट, हिंसा का उन महिलाओं और उनके बच्चों की मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है? आपके अनुभव के आधार पर राज्य का सुधार के लिए सज़ा देने का ये तरीका कितना सही या कितना गलत है? इससे क्या उद्देश्य पूरा होता है?
आज देश की कोई भी जेल किसी भी प्रकार का सुधार कार्य करने में सक्षम नहीं है. जेल सिर्फ हिंसा और दमनकारी व्यवस्था के आधार पर चलते हैं. इन जेलों में किसी को भी सुधरने का मौका नहीं मिल सकता. जेल की स्थिति समाज से भी बदतर है. इसी कारण से जेल से निकले हुए व्यक्ति और भी बड़े अपराधी बनते हैं.
मार्च 2012 में बिंदु, सुरेखा और वसीमा को राजनीतिक क़ैदी सुषमा रामटेके, एंजेला सोन्तकके और ज्योति चोरगे द्वारा की गई शिकायत में नामित किया जा चुका है. साथ ही सुरेखा और वसीमा ने फिर से नवंबर 2013 में रामटेके और एक अन्य बांग्लादेशी गर्भवती क़ैदी पर हमला किया था. डीआईजी स्वाति साठे को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में क़ैदियों पर सबसे अधिक हिंसक योजनाओं के लिए दोषी ठहराया था. इससे क्या लगता है, क्या ये किसी प्रकार की लापरवाही है?
इसे लापरवाही बोलना सही नहीं है. अपराधियों को पनाह देने औैर उन्हें बचाने की कोशिश बहुत सोच समझ कर की जाती है. सुषमा रामटेके के साथ हुई घटना में अभी तक कोई भी कार्रवाई नहीं हुई है.
स्वाति साठे के मामले में कोर्ट ने उन्हें दोषी ठहराते हुए सरकार को कार्रवाई के निर्देश दिए थे. लेकिन सरकार ने अभी तक कोई भी कार्रवाई नहीं की है. इन सारे मामलों में सरकार ने अधिकारियों को बचाया है जिससे उनको आगे भी ऐसी हरकत करने की हिम्मत मिलती है. इन्हें हमेशा निर्दोष साबित किया जाता है.
‘बैन कल्चर’ पर आपकी क्या राय है? किसी विचारधारा के आधार पर प्रतिबंध लगाने को आप कैसे देखते हैं?
समाज में आप अक्सर ही देखेंगे कि जब भी सत्ताधारी और शोषणकारी वर्ग के सामने जनता का विद्रोह एक चुनौती बनकर खड़ा होता है तब प्रशासन जनता की आज़ादी और उनके अधिकारों पर पाबंदी लगाता ही है.
क्या हर सरकार में दमन का स्तर अलग होता है या राज्य में सरकार कोई भी हो, राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर दमन रहेगा ही? क्या हक की लड़ाई और दमन के दौर में डर लगना स्वाभाविक है?
जैसा कि इसके पहले वाले प्रश्न का उत्तर देते समय मैंने बताया कि दमन अक्सर जनता के आंदोलन के साथ जुड़ा होता है. इसके अलावा सत्ताधारी और शोषणकारी वर्गों की ताकत के साथ भी जुड़ा होता है.
हर सरकार को राज करने करने के लिए दमनकारी तरीका ही अपनाना पड़ता है. हां, ऐसी स्थिति में डर लगना बिल्कुल स्वाभाविक है. इसी डर के बल पर जनता को चुप बैठाना भी संभव है.
अरुण आपने कहा ‘मैं राजनीतिक क़ैदियों के लिए काम करना चाहता हूं क्योंकि अंदर चल रहे संघर्ष को बाहर से सहयोग की आवश्यकता होती है.’ क्या इसी कारण से आप जेल से बाहर आने के बाद वकील बनने की तैयारी में हैं, इससे कितना सुधार ला पाएंगे?
देखिए, वकील बनने के मकसद के पीछे यह एक प्रमुख कारण तो था. वकील बनने के बाद राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई के लिए कुछ कानूनी तरीके और कुछ अभियानों के माध्यम से इस संघर्ष को जारी रखना चाहता हूं.
वर्णन आपने कहा किसी भी संदिग्ध व्यक्ति की गिरफ्तारी को समाज की भलाई के रूप में देखा जाता है, तो अगर बाद में व्यक्ति निर्दोष भी निकले तब भी जांच अधिकारियों से कोई भी सवाल नहीं होता. आपके अनुसार इससे इन मुकदमों में कितना प्रभाव पड़ता है?
झूठे आरोपों में निर्दोष व्यक्तियों को फंसाने वाले जांच अधिकारियों की जवाबदेही और सज़ा देने का प्रावधान भारतीय न्याय व्यवस्था में बहुत कमज़ोर है. अनेक राज्यों में क़ैदियों को ज़मानत नहीं दी जाती है और ट्रायल प्रक्रिया में देरी की वजह से निर्दोष व्यक्तियों को लंबा समय जेल में काटना पड़ता है. लेकिन इन अधिकारियों के गलत साबित होने पर उनसे कोई सवाल-जवाब नहीं होता.
भूख हड़ताल या प्रदर्शन के अन्य तरीके जेल में एक लोकतांत्रिक माहौल बनाने के लिए कितने मददगार साबित होते हैं?
जब जेल प्रशासन क़ैदियों को उनके हक, उनके मूल अधिकार नहीं देता तो आंदोलन के सिवा कोई भी रास्ता नहीं बचता और जेल में आंदोलन का एक ही रास्ता बचता है वो है भूख हड़ताल.
हमारे अनुभव के अनुसार जिन-जिन जेलों में भूख हड़तालें हुई हैं वहां क़ैदियों के लिए उपलब्ध सुविधा में कुछ सुधार ज़रूर हुए हैं. हमारे अनुसार जेल में इस तरह के आंदोलन से लोकतांत्रिक जगह बनने में बढ़ोतरी होती है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जीएन साई बाबा के साथ जेल में हो रहे व्यवहार को आप किस तरह से देखते हैं?
हमारे ख्याल से जीएन साई बाबा के साथ जो बर्ताव हो रहा है वो किसी हिंसा से कम नहीं है. उनको अंडा सेल (बैरक) में रखा गया है. पूरा बैरक कंक्रीट से बना है. नागपुर के 48 डिग्री तापमान में इतनी गर्म ज़मीन पर चलना संभव नहीं होता. साई बाबा को घिस-घिस कर चलना पड़ता होगा या फिर 24 घंटे जेल में ही रहना पड़ता होगा.
जेल के अस्पताल में बस आम बीमारियों का इलाज संभव है. साई बाबा को अस्पताल में रखकर इलाज की ज़रूरत है वरना उनका हाथ पूरा काम करना बंद कर देगा. साई बाबा को इलाज न देना एक तरह से उनको मौत की सज़ा देने जैसा है. हम इसको बर्बर हिंसा की तरह ही देखते हैं.
अपने ख़ुद के अनुभव के आधार पर हिरासत में होने वाली हिंसा के बारे में बताइए?
हमने पहले भी बताया है कि जेल में तो मारपीट की कोई घटना हमारे साथ नहीं हुई. मेरे साथ अधिक हिंसा पुलिस की हिरासत में हुई है. लेकिन जेल का ढांचा हिंसा की बुनियाद पर ही खड़ा है. जेल में जाने पर क़ैदी को उसका स्तर बता दिया जाता है.
ये बताने का माध्यम या तो शारीरिक हिंसा होती है या तो गाली-गलौज. जेल अधिकारी से लेकर पुराने क़ैदी तक सभी इस हिंसा को अनुशासन बनाए रखने के लिए और पैसे वसूली के मकसद से करते हैं.