श्रीलंकाई सरकार 20वां संविधान संशोधन लाकर 19वें संविधान संशोधन द्वारा राष्ट्रपति की शक्तियों पर नियंत्रण लगाने वाले प्रावधानों को ख़त्म करने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ रही है. भारत की चिंता नया संशोधन नहीं बल्कि 1987 का द्विपक्षीय समझौता है, जो बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में ख़तरे में पड़ सकता है.
नई दिल्ली: श्रीलंका सरकार 20वां संविधान संशोधन लाकर 19वें संविधान संशोधन द्वारा राष्ट्रपति की शक्तियों पर नियंत्रण लगाने वाले प्रावधानों को खत्म करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है.
हालांकि, भारत की चिंता 20वां संविधान संशोधन न होकर 1987 का द्विपक्षीय समझौता है जो बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में खतरे में पड़ सकता है.
श्रीलंकाई अखबार संडे टाइम्स ने अपनी एक संपादकीय में लिखा था कि 20वें संविधान संशोधन के माध्यम से पिछले साल सत्ता में आने वाली राजपक्षे भाइयों की नई सरकार का उद्देश्य संविधान संशोधन न होकर, 13वां संविधान संशोधन है.
दरअसल श्रीलंकाई तमिलों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए साल 1987 में भारत और श्रीलंका के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके बाद 13वां संविधान संशोधन करना पड़ा था.
इसके बाद प्रांतीय परिषद का गठन हुआ था. हालांकि, इसके बाद भी श्रीलंकाई सरकार ने केंद्र सरकार की सूची से पुलिस और जमीन जैसे अधिकारों को प्रांतीय परिषद को नहीं सौंपा है.
इस साल फरवरी में जब श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे भारत यात्रा पर आए थे तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोहराया था कि श्रीलंका को 13वें संविधान संशोधन का पूरा करने की जरूरत है.
हालांकि, उस दौरान महिंदा राजपक्षे ने साफ-साफ इसका वादा नहीं किया था. द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि पूरी तरह से लागू करने तमिल नेशनल अलायंस (टीएनए) की मांग को बहुल सिंहल समुदाय स्वीकार नहीं करेगा.
उन्होंने कहा था, ‘हम आगे बढ़ना चाहते हैं लेकिन हम किसी ऐसे के साथ चर्चा करना चाहते हैं जो (तमिल) इलाकों की जिम्मेदारी ले सके. इसलिए सबसे अच्छा तरीका होगा कि चुनाव कराए जाएं और फिर उनके प्रतिनिधियों से कहा जाए कि वे आएं और भविष्य को लेकर चर्चा करें.’
इसके बाद से ही श्रीलंका में 13वें संविधान संशोधन को खत्म करने की मांग बढ़ने लगी.
मंत्रियों से लेकर सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने यह कहते हुए इसे खत्म करने की मांग की कि प्रांतीय परिषद कोई खास योगदान नहीं दे रही है. इसके बदले स्थानीय निकायों को मजबूत बनाने की बात कही गई.
प्रांतीय परिषद और स्थानीय सरकार के मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद एक पूर्व नौसैनिक अधिकारी सरत वीरसेकरा ने कहा था, ‘मैं ऐसा व्यक्ति था जिसने 13वें संविधान संशोधन का विरोध किया था और मुझे ही यह मंत्रालय दिए जाने को मैं नियति मानता हूं. श्रीलंका की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए हानिकारक प्रावधानों समीक्षा होने और संशोधित होने तक कोई भी पुलिस या भूमि शक्तियां प्रांतीय परिषदों को नहीं सौंपी जाएंगी.’
इसके बाद उन्होंने प्रांतीय परिषदों को बोझ बताकर उन्हें खत्म करने का आह्वान किया और कहा कि इसे भारतीयों द्वारा आभासी बंदूक की नोंक पर लागू करवाया गया था.
वहीं, मंत्री ने एक अन्य मंच पर प्रांतीय परिषदों को देश की एकता के लिए खतरा घोषित करते हुए कहा था कि उनका प्राथमिक कर्तव्य इस निष्कर्ष पर पहुंचना था कि क्या प्रांतीय परिषदों को जारी रखा जाना चाहिए.
पिछले सप्ताह 20वां संशोधन पेश किए जाने के बाद सरकार की मीडिया ब्रीफिंग में सबसे बड़े सवालों में से एक प्रांतीय परिषदों के भविष्य को लेकर था.
सरकार के सह-प्रवक्ता उदय गाम्मनपिला ने कहा कि कैबिनेट में कोई चर्चा नहीं हुई है हालांकि इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि विशेषज्ञों की समिति इसका अध्ययन करेगी.
उनका कहना था कि समिति के सदस्य इस बात पर भी अपनी राय रखेंगे कि 1987 का भारत-श्रीलंका समझौता अभी भी सक्रिय है या नहीं और सरकार इस तरह के मामलों के लिए कानूनी तौर पर बाध्य है या नहीं.
टीएनए पहले से ही 13वें संविधान से जुड़ी समस्याओं को लेकर मुखर रहा है और उसने इसको लेकर बीते 21 अगस्त को श्रीलंका में भारतीय उच्चायुक्त गोपाल बागले से मुलाकात की थी.
बैठक के बाद भारतीय उच्चायोग ने ट्वीट कर 13वें संशोधन को पूरी तरह से लागू करने के अपनी लंबे समय की स्थिति को दोहराया था.
अगर श्रीलंका सरकार प्रांतीय परिषदों को पूरी तरह से खत्म करने की जगह केवल उसकी शक्तियों को ही खत्म करेगी तब भी भारत को बहुत ही सोच-समझकर प्रतिक्रिया देनी पड़ेगी. 20वें संविधान संशोधन की जगह भारत 13वें संविधान संशोधन को खत्म करने पर चुप नहीं रहेगा. द्विपक्षीय समझौते के आधार पर श्रीलंका में हस्तांतरण और जवाबदेही प्रक्रिया में हितधारकों में से एक के रूप में 13वें संशोधन के किसी भी तरह कमजोर पड़ने पर भारत की प्रतिक्रिया अपेक्षित होगी.
वहीं, अगर फरवरी-मार्च 2021 में पश्चिमी देश संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग (यूएनएचआरसी) में एक प्रस्ताव लेकर आते हैं, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या भारत पिछले दरवाजे से मसौदे को कमजोर करने (पहले की तरह) का काम करेगा या अपनी सलाह अपने पास ही रखेगा.
20वें संविधान संशोधन में क्या है?
42 साल पहले प्रधानमंत्री जूनियस रिचर्ड जयवर्धने द्वारा लाए गए संविधान में 20वां संशोधन करने के लिए बीते 2 सितंबर को श्रीलंका सरकार संशोधन के मसौदे का प्रस्ताव पेश किया.
20वें संविधान संशोधन में राष्ट्रपति के लिए पांच साल का कार्यकाल, इस पद पर दो बार चुने जाने की सीमा और संविधान में 14वें संशोधन के तहत सूचना हासिल करने के अधिकार को बरकरार रखा गया है.
हालांकि, इसके अलावा 19वें संविधान संशोधन द्वारा लाए गए अधिकतर प्रावधानों को खत्म कर दिया जाएगा. इसमें राष्ट्रपति के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकेगी, संवैधानिक परिषद को सलाहकार संगठन में बदल दिया जाएगा, जिसमें केवल संसद के सदस्य होंगे.
इसके साथ ही दोहरी नागरिकता वाले भी राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हो सकेंगे और इस पद की आयुसीमा 30 वर्ष हो जाएगी. इन दोनों योग्यताओं को राजपक्षे के परिवार के सदस्यों को बाध्य करने के लिए 19वें संशोधन में पेश किया गया था.
बता दें कि पिछले साल राष्ट्रपति चुनाव से पहले विपक्षी यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) ने गोटबाया पर अमेरिकी नागरिकता रखने का आरोप लगाया था और दावा किया था कि उन्होंने दस साल तक अमेरिका में निवास किया है.
इस पर गोटबाया ने सफाई दी था कि चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने इस साल अमेरिका की दोहरी नागरिकता छोड़ दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर में उनकी नागरिकता को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी थी और सारे आरोपों से उन्हें बरी कर दिया था.
श्रीलंका की विधायी प्रक्रिया पहले आम जनता को दो हफ्ते तक विधेयक के निरीक्षण का अधिकार देती है. इसके बाद इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, जिसकी इच्छा विपक्ष ने जता दी है.
सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी मिलने के बाद विधेयक दो तिहाई बहुमत हासिल करने के लिए संसद में रखा जाता है. सत्ताधारी श्रीलंका पीपुल्स पार्टी (एसएलपीपी) के पास संसद में 225 में से 150 सीटें हैं जिससे संविधान संशोधन आसानी से पास हो जाएगा.
क्यों चिंतित है अंतरराष्ट्रीय समुदाय?
दरअसल, मैत्रीपाला सिरिसेना सरकार के सत्ता में आने के बाद यूएनएचआरसी ने अक्टूबर 2015 में श्रीलंका के समर्थन से एक प्रस्ताव पास किया था, जिसमें गृहयुद्ध के दौरान श्रीलंकाई सुरक्षा बलों और लिट्टे द्वारा किए गए युद्ध अपराध की जांच का आदेश दिया गया था.
उल्लेखनीय है कि यूएनएचआरसी की ओर से पारित प्रस्ताव का श्रीलंका सह प्रायोजक है जिसमें मानवाधिकार, जवाबदेही और परिवर्ती न्याय को लेकर प्रतिबद्धता जताई गई है. 47 सदस्यीय परिषद में भारत सहित 25 देशों ने प्रस्ताव का समर्थन किया.
हालांकि, सत्ता में आने के बाद गोटबाया राजपक्षे ने घोषणा की थी कि उनका उद्देश्य प्रस्ताव को वापस लेने की है, जिसे इस साल औपचारिक तौर घोषित किया गया.
नवंबर 2019 में श्रीलंका के राष्ट्रपति चुने गए गोटबाया राजपक्षे पर उनकी देखरेख में नागरिकों और विद्रोही तमिलों को यातना दिए जाने और अंधाधुंध हत्या तथा बाद में राजनीतिक हत्याओं को अंजाम दिए जाने का आरोप है.
उनके भाई और अगस्त 2020 में संसदीय चुनावों में जीत हासिल कर चौथी बार प्रधानमंत्री बनने वाले महिंदा राजपक्षे के 2004-2015 के राष्ट्रपति शासन में श्रीलंका और पश्चिमी देशों के बीच तनातनी जारी थी.
इस दौरान अधिकतर पश्चिमी देश युद्ध के बाद सुलह में प्रगति न होने और उसके चीन के साथ बढ़ते संबंधों को लेकर चिंतित थे. गोटबाया राजपक्षे के शासन में भी वही चिंता बरकरार है लेकिन पश्चिमी देशों ने कोई त्वरित प्रतिक्रिया नहीं दी है.
अपनी चिंता जताने का उनका एक प्रमुख तरीका यूएनएचआरसी में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव लाना है जो कि पिछले पांच साल से नहीं लाया गया है.
इस साल फरवरी में 43वें सत्र के दौरान यूएनएचसीआरसी कार्यालय (ओएचसीएचआर) द्वारा श्रीलंका पर पेश रिपोर्ट में प्रमुख संस्थाओं की स्वतंत्रता को मजबूत करने और कार्यपालिका के खिलाफ शक्तियों के संतुलन में 19वें संविधान संशोधन की मूलभूत महत्ता का उल्लेख किया गया था.
ओएचसीएचआर ने इस ओर भी इशारा किया था कि श्रीलंका सरकार ने आवश्यक संसदीय बहुमत हासिल कर लेने पर महत्वपूर्ण संवैधानिक गारंटी को निरस्त करने या संशोधित करने के अपने इरादे को इंगित किया था.
इससे पहले यूएनएचआरसी को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में यूएन मानवाधिकार प्रमुख ने 19वें संशोधन का स्वागत किया था.
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