सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी. लोकुर ने एक कार्यक्रम में कहा कि बोलने की आज़ादी को कुचलने के लिए सरकार फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाने के आरोप का तरीका भी अपना रही है. कोरोना के मामलों और इससे संबंधित अव्यवस्थाओं की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर फेक न्यूज़ देने के आरोप लगाए जा रहे हैं.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस मदन बी. लोकुर ने सोमवार को कहा कि जनता की राय पर प्रतिक्रिया के रूप में सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह कानून का सहारा ले रही है.
जस्टिस (रिटा.) लोकुर ‘बोलने की आजादी और न्यायपालिका’ विषय पर एक वेबिनार को संबोधित कर रहे थे. इस वेबिनार का आयोजन कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म्स और स्वराज अभियान ने किया था.
उन्होंने कहा कि बोलने की आजादी को कुचलने के लिए सरकार लोगों पर फर्जी खबरें फैलाने के आरोप लगाने का तरीका भी अपना रही है.
जस्टिस लोकुर ने कहा कि कोरोना वायरस के मामले और इससे संबंधित वेंटिलेटर की कमी जैसे मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर फर्जी खबर के प्रावधानों के तहत आरोप लगाए जा रहे हैं.
जस्टिस लोकुर ने कहा, ‘सरकार बोलने की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए राजद्रोह कानून का सहारा ले रही है. अचानक ही ऐसे मामलों की संख्या बढ़ गई है जिसमें लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैं. कुछ भी बोलने वाले एक आम नागरिक पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है. इस साल अब तक राजद्रोह के 70 मामले देखे जा चुके हैं.’
वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ न्यायालय की अवमानना के मामले पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि उनके बयानों को गलत तरह से पढ़ा गया.
उन्होंने डॉ. कफील खान के मामले का भी उदाहरण दिया और कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत आरोप लगाते समय उनके भाषण और नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उनके बयानों को गलत तरीके से पढ़ा गया.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, उन्होंने आगे कहा कि छात्रों और कार्यकर्ताओं की असहमतिपूर्ण आवाज़ों को गलत तरीके से पेश करके उन्हें यूएपीए के तहत जेलों में डाल दिया जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने प्रिवेंटिव डिटेंशन के अंधाधुंध इस्तेमाल पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा, ‘दूसरी ओर ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जाती, जो हिंसा की वक़ालत करते हैं और देश तोड़ने की बात करते हैं.’
अदालतों में लंबित मामलों पर लोकुर ने कहा कि करीब तीन करोड़ 40 लाख मामले लंबित हैं. न्यायपालिका को उन पर ध्यान देने की आवश्यकता है. न्यायपालिका को पारदर्शी होना है.
कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार एन. राम, कार्यकर्ता अरुणा रॉय, योगेंद्र यादव और अंजलि भारद्वाज ने भी भाग लिया. वरिष्ठ पत्रकार एन. राम ने कहा कि प्रशांत भूषण के मामले में दी गई सजा बेतुकी है और उच्चतम न्यायालय के निष्कर्षो का कोई ठोस आधार नहीं है.
राम ने कहा, ‘मेरे मन में न्यायपालिका के प्रति बहुत सम्मान है. यह न्यायपालिका ही है, जिसने संविधान में प्रेस की आजादी को पढ़ा.’
सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने कहा कि भूषण की स्थिति काफी व्यापक होने की वजह से लोगों का सशक्तीकरण हुआ है और इस मामले ने लोगों को प्रेरित किया है.
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को न्यायपालिका के प्रति अपमानजनक दो ट्वीट को लेकर अवमानना का दोषी माना था और सजा के रूप में एक रुपये का सांकेतिक जुर्माना भरने को कहा था.
सोमवार को ही उन्होंने इसे उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री में जमा कराया और यह भी स्पष्ट किया कि जुर्माना भरने का मतलब ये नहीं है कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को स्वीकार कर लिया है और वे फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)