केंद्र सरकार द्वारा लड़कियों की शादी की क़ानूनन उम्र 18 से बढ़ाकर 21 करने के लिए कम उम्र की मांओं और उनके शिशु की सेहत से जुड़ी समस्याओं को वजह बताया जा रहा है. पर उनकी ख़राब सेहत की मूल वजह ग़रीबी और कुपोषण है. अगर वे ग़रीब और कुपोषित ही रहती हैं, तो शादी की उम्र बदलने पर भी ये समस्याएं बनी रहेंगी.

18 साल से कम उम्र में शादी करने वाली लड़कियों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है. शायद इसीलिए भारत सरकार ने महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र, जो अभी 18 साल है, को बढ़ाकर 21 साल करने का इरादा बनाया है.
इस पहल को सरकार जेंडर समानता की दिशा में उठाए गए कदम के रूप में देखना-दिखाना चाहती है, जिसके जरिये कम उम्र की माताओं और उनके शिशुओं की स्वास्थ्य समस्याओं को भी सुलझाया जा सकेगा.
यह चिंता जायज है, लेकिन इस कानूनी कदम के पक्ष में दिए जा रहे तर्क निराधार और विवेकहीन हैं.
इस दावे को समझने के लिए आंकड़ों की मदद लेनी होगी. ‘बाल विवाह’ के अंतरराष्ट्रीय मानक के मुताबिक एकत्र किए गए आंकड़े हमें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) से मिलते हैं.
इस सर्वेक्षण का चौथा संस्करण बताता है कि 2015-16 में 20-24 वर्ष के आयु वर्ग की महिलाओं में से 26.8% की शादी 18 साल से पहले हुई. यह आंकड़ा 2005-06 में पाए गए 47% के मुकाबले काफी कम है.
भारतीय जनगणना के आंकड़ों में भी 2001 और 2011 के बीच इसी प्रकार की भारी गिरावट दिखती है. एनएफएचएस-4 यह भी जाहिर करता है कि केवल 6.6% महिलाओं की शादी 15 वर्ष से पहले हुई थी.
यह आंकड़े बताते हैं कि भारत की समस्या अब बाल-विवाह नहीं बल्कि किशोरी विवाह है- और यह समस्या भी तेजी से घट रही है. इस रुझान में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कोई फर्क नहीं दिखता.
दुनिया के प्रायः सभी देशों में आम सहमति बन चुकी है कि सामाजिक वयस्कता की आयु 18 साल है. भारत ही नहीं विश्व के अधिकांश देशों में मताधिकार या ड्राइविंग लाइसेंस जैसी नागरिक सुविधाओं के लिए न्यूनतम आयु 18 साल है.
सारी दुनिया में पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए शादी-लायक न्यूनतम आयु का प्रचलित मानक 18 साल ही है. वैज्ञानिकों का मानना है कि 18 वर्ष की उम्र में स्त्री शरीर पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है और एक स्वस्थ महिला उचित प्रसव-पूर्व देखभाल के सहारे स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है.
जब शादी का सर्वमान्य मापदंड 18 साल है, और भारत का मौजूदा कानून भी यही कहता है, तो भला इसे बढ़ाने की जल्दबाजी क्यों?
इस सवाल का संभावित जवाब यह हो सकता है कि शादी की उम्र बढ़ाने से प्रथम-प्रसव की उम्र बढ़ेगी, जिसके कारण जच्चा-बच्चा के स्वस्थ होने की संभावना बढ़ेगी. लेकिन यह जवाब खतरनाक रूप से भ्रामक है.
युवा माताओं और उनके शिशुओं की स्वास्थ्य समस्याओं का मूल कारण उनकी गरीबी है, न कि उनका कम उम्र में शादी करना. गरीबी में पली-बढ़ी लड़कियां प्रायः कुपोषण के कारण अस्वस्थ होती हैं.
लड़कियों की शादी कम उम्र में करने की प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन भी इन्हीं गरीब तबकों में पाया जाता है. तीन घटकों- गरीबी, बीमारी व कुपोषण और किशोरी-विवाह- के साथ पाए जाने से यह भ्रम पनपता है कि किशोरी-विवाह ही स्वास्थ्य समस्याओं का कारक है, जबकि असली कारक गरीबी है.
यदि गरीब महिलाएं गरीब और कुपोषित बनी रहती हैं, तो 18 के बजाय 21 साल की उम्र में शादी करने पर भी उनकी स्वास्थ्य समस्याएं बरकरार रहेंगी. तो क्या इस कदम का असली निशाना कुछ और है?
15 अगस्त 2019 को लाल किले से दिए गए भाषण में माननीय प्रधानमंत्री ने ‘जनसंख्या विस्फोट’ (पॉपुलेशन एक्सप्लोज़न) का जिक्र किया था, तो क्या बढ़ती आबादी पर लगाम कसना शादी की उम्र बढ़ाने का सही मक़सद है?
यहां यह दोहराना ज़रूरी है कि भारत में प्रजनन-दर (जिससे जनसंख्या-वृद्धि दर तय होता है) तेजी से घट रही है. यह सुखद आर्श्चय का विषय है कि कम-उम्र में शादी जिन राज्यों में सबसे ज्यादा है- जैसे पश्चिम बंगाल और तेलंगाना- उनमें भी प्रजनन-दर में अच्छी-ख़ासी गिरावट हुई है.
यहां तक कि इन राज्यों का प्रजनन-दर अब मौजूदा जनसंख्या को बनाए रखने के स्तर से भी नीचे गिर चुकी है. ऐसे में आबादी की बढ़त को रोकने के लिए शादी की उम्र को बढ़ाना अनावश्यक है.
जहां इस प्रस्ताव के संभावित फायदे नहीं के बराबर हैं वहीं इसके तयशुदा नुकसान गंभीर हैं.
एनएफएचएस-4 के मुताबिक भारत में 20-24 वर्ष के आयु वर्ग की महिलाओं में से 56% ने 21 साल से पहले शादी की. इसी आयु वर्ग के सबसे गरीब 20 प्रतिशत तबके में 21 साल से पहले शादी करने का अनुपात 75% तक पहुंच जाता है.
विवाह की कानूनी उम्र को बढ़ाकर 21 वर्ष करने से लाखों महिलाओं की शादियां ग़ैरकानूनी बन जाएंगी और विवाहित महिलाओं को मिलने वाले सारे कानूनी अधिकार उनसे छीन लिए जाएंगे.
यह समस्या केवल तथाकथित ‘बीमारू’ प्रांतों की नहीं है- बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए प्रसिद्ध केरल जैसे प्रगतिशील राज्य में भी 20-24 आयु-वर्ग में एक-तिहाई महिलाएं 21 साल से पहले शादी करती हैं.
इतने व्यापक स्तर पर महिलाओं को कानूनी हक से वंचित करने से किसका भला होगा? ऐसी ढेरों समस्याएं हैं जिन्हें हल करना कहीं ज़्यादा ज़रूरी है.
कई अध्ययन बताते हैं कि माता-पिता अपनी बेटियों की शिक्षा में निवेश कर रहे हैं, लेकिन हमारा शिक्षा-तंत्र उनका साथ नहीं देता. रोजगार के अवसरों की कमी के कारण घर बैठी लड़की चिंता का सबब बनती है और विवाह ही एकमात्र व्यावहारिक उपाय नज़र आता है.
राज्य सरकारों की वे योजनाएं, जिनके तहत शादी-संबद्ध कानून का पालन करने वाले परिवारों को नकदी इनाम दिया जाता है, आम भाषा में ‘दहेज’ योजना कहलाती हैं. यानी जेंडर असमानता से निपटने के बजाय वे ‘पराया धन’ की पारंपरिक मान्यता को पुख्ता करती हैं जिसके अनुसार बेटियां एक ऐसा बोझ हैं जिसे केवल शादी द्वारा हल्का किया जा सकता है.
वास्तविक बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है कि लड़कियों के लिए स्कूल के बाद की शिक्षा भी मुफ्त हो और साथ ही महिलाओं के लिए रोजगार की गारंटी सुनिश्चित की जाए, खासकर उनके लिए जो ग्रामीण क्षेत्रों और कमजोर तबकों से आती हैं.
अपने पैरों पर खड़ी होने के बाद महिलाएं यह तय करने की हालत में होंगी कि वे शादी करें या न करें और अगर करना चाहें तो कब और कैसे करें.
लेखक महिला विकास अध्ययन केंद्र में शोधकर्ता हैं.
(मूल अंग्रेजी लेख से विजय झा द्वारा अनूदित)