हम अच्छे काम में भरोसा रखते हैं और संविधान के हिसाब से ही काम करते हैं: ज़कात फाउंडेशन प्रमुख

साक्षात्कार: सुदर्शन न्यूज़ के विवादित ‘यूपीएससी जिहाद’ कार्यक्रम में ज़कात फाउंडेशन पर कई तरह के आरोप लगाए गए हैं. इस कार्यक्रम, उससे जुड़े विवाद और आरोपों को लेकर ज़कात फाउंडेशन के संस्थापक और अध्यक्ष सैयद ज़फर महमूद से बातचीत.

ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक और प्रमुख सैयद ज़फर महमूद. (फोटो: द वायर)

साक्षात्कार: सुदर्शन न्यूज़ के विवादित ‘यूपीएससी जिहाद’ कार्यक्रम में ज़कात फाउंडेशन पर कई तरह के आरोप लगाए गए हैं. इस कार्यक्रम, उससे जुड़े विवाद और आरोपों को लेकर ज़कात फाउंडेशन के संस्थापक और अध्यक्ष सैयद ज़फर महमूद से बातचीत.

ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक और प्रमुख सैयद ज़फर महमूद. (फोटो: द वायर)
ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक और प्रमुख सैयद ज़फर महमूद. (फोटो: द वायर)

अगस्त महीने के आखिरी हफ्ते में सुदर्शन न्यूज़ चैनल ने अपने एक कार्यक्रम ‘बिंदास बोल’ के एक एपिसोड का ट्रेलर जारी किया, जिसका शीषक ‘यूपीएससी जिहाद’ था.

‘बिंदास बोल’ इस चैनल के प्रधान संपादक सुरेश चव्हाणके का शो है. इसके ट्रेलर में चव्हाणके ने हैशटैग यूपीएससी जिहाद लिखकर नौकरशाही में मुसलमानों की घुसपैठ के षडयंत्र का बड़ा खुलासा करने का दावा किया था.

इस नाम और प्रोमों के कंटेंट को लेकर काफी विवाद हुआ. जिस दिन कार्यक्रम का प्रसारण तय था, उसी दिन दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा इस पर रोक लगा दी गई.

बाद में कोर्ट ने मामले से केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय से निर्णय लेने को कहा जिसने चैनल द्वारा मिले जवाब के बाद इसके प्रसारण की अनुमति दे दी. इसके बाद 11 सितंबर से 14 सितंबर तक इस कार्यक्रम के चार एपिसोड दिखाए गए.

हालांकि बाकी एपिसोड्स पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगाते हुए चैनल को कड़ी फटकार लगाई गई है, जिसकी सुनवाई अब भी शीर्ष अदालत में चल रही है.

जिन एपिसोड्स का प्रसारण हुआ, उनमें एक पैनल ने आरोप लगाया है कि यूपीएससी में सुनियोजित तरीके से मुस्लिमों की भर्ती बढ़ाई जा रही है और एक गैर सरकारी संगठन ‘ज़कात फाउंडेशन’ द्वारा इसकी कोचिंग दी जा रही है.

इसमें ये भी आरोप लगाया गया कि इस फाउंडेशन को ब्रिटेन की मदीना ट्रस्ट नाम की एक संस्था से फंडिंग मिलती है, जो भारत-विरोधी गतिविधियों में शामिल है.

इसके अलावा चैनल ने कई और आरोप लगाए हैं, जैसे कहा गया कि मुसलमानों को कई तरीकों से फायदा पहुंचाया जा रहा है ताकि वो यूपीएससी में आ सकें.

कहा गया कि ‘ये लोग’ उर्दू विषय लेते हैं उनको नंबर प्रतिशत ज़्यादा मिलता है इसलिए ये लोग यूपीएससी में आ रहे हैं.  इंटरव्यू में मुस्लिमों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल रहा है जिससे उनका चयन ज़्यादा हो रहा है. दूसरे समुदायों की तुलना में उनका चयन 9.5 प्रतिशत ज़्यादा है.

यहां तक कहा गया कि उड़ान फंड के जरिये यूपीएससी की तैयारी करने वाले मुस्लिम छात्रों को जो फंडिंग होती है, उससे उनको दूसरे समुदायों की बनिस्बत अनुचित लाभ मिल रहा है.

इन सभी मुद्दों पर भारतीय सिविल सेवा में रहे पूर्व नौकरशाह और ज़कात फाउंडेशन के संस्थापक और अध्यक्ष सैयद जफ़र महमूद से बातचीत.

‘यूपीएससी जिहाद’ कार्यक्रम और इसको लेकर हुए विवाद पर क्या कहेंगे?

यह संस्था पिछले बीस साल से चल रही है. ज़कात फाउंडेशन की स्थापना 1997 में हुई थी, पहले तो अनौपचारिक रूप तौर काम शुरू किया गया था, लेकिन 2001 में चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में रजिस्ट्रेशन कराया गया. उसके बाद इनकम टैक्स एक्ट और एफसीआरए में रजिस्टर हुई.

शुरू के दस सालों तक यानी 1997 से 2007 तक ज़कात फाउंडेशन अनाथ बच्चों के लिए अनाथालय चलाता था, गरीब विधवाओं को राशन देता था, गरीब लड़कियों की शादियों के लिए मदद की जाती थी. गरीब छात्रों की फीस भरते थे. कुछ मुफ्त डिस्पेंसरी चलती थीं.

इस तरह के काम जब तक हम कर रहे थे तब तक किसी को कोई दिक्कत नहीं थी. खासकर उनको, जिनका आप नाम ले रहे हैं उन टीवी चैनल वालों को. लेकिन नवंबर 2006 में जस्टिस सच्चर कमेटी की रिपोर्ट सामने में आ गई, उसे केंद्रीय मंत्रिमंडल मंजूरी दे दी और संसद में पास हो गई.

उसके अमल के लिए सचिवों की समिति बना दी गई और उसमें कैबिनेट सचिव को उसका इंचार्ज बना दिया गया, ये बता दूं कि वो सिलसिला अभी तक चल रहा है.

जस्टिस सच्चर कमेटी के रिपोर्ट में कहा गया था कि पूरे भारत में सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमान बाकी मज़हब के मानने वालों से बहुत पिछड़े हुए हैं. ज्यादातर इलाकों में अनुसूचित जाति से भी पीछे हैं.

उसमें ये भी बताया गया था कि पिछड़ेपन के लिए बहुत से कारण हैं लेकिन मुख्य कारण है कि नौकरशाही में जो मुसलमानों का जो प्रतिनिधित्व होना चाहिए वह नहीं है.

2011 की जनगणना के मुताबिक देश की आबादी में मुसलमानों की जनसंख्या 14.2 प्रतिशत है. उसके मुकाबले में 1.5 प्रतिशत बहुत कम है. सच्चर कमेटी ने यही मूल कारण ये बताए. इसे यूपीए सरकार ने स्वीकार भी कर लिया और उस पर अमल भी शुरू किया.

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में ये बात दर्ज है कि ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वो ये चिह्नित करे कि समाज में कमजोर तबके कौन-कौन से हैं और उनके लिए क्या सकारात्मक कदम लिए जाएं, क्या विशेष योजनाएं बनाई जाएं. ये सरकार का काम है और अच्छी तरह करती भी रही.

ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने ये प्रस्ताव रखा कि सरकार की इन कोशिशों में वो अपना योगदान करेगा. तबसे उनकी अगुवाई में एक नई यूनिट बनाई गई, जिसका नाम है कोचिंग गाइडिंग सेंटर फॉर सिविल सर्विसेज़.

तब से लेकर अब तक देश भर में ज़कात फाउंडेशन ने 40 ओरिएंटेशन प्रोग्राम चलाए हैं. ये देश भर में हुआ है, कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं रहा.

इसके आधार पर अखिल भारतीय स्तर की एक लिखित परीक्षा होती है. उसमें शॉर्टलिस्ट करके, इंटरव्यू लेकर उन्हें दिल्ली लाकर रियायती दरों पर हॉस्टलों में रखा जाता है और उनका एडमिशन उन जाने-माने कोचिंग इंस्टिट्यूट में करवाया जाता है, जिनकी कामयाबी की दर ज़्यादा है और फिर उनकी देखरेख करते रहते हैं.

तो इस तरह हमारे काम शुरू करने से समाज में जो लोग हाशिए पर थे, वे सरकार का हिस्सा बन गए और उनका सशक्तिकरण होने लगा. तब लोगों को परेशानी होने लगी इसलिए ये लोग ये ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं कि ज़कात फाउंडेशन में क्या-क्या खामियां निकाली जा सकती हैं.

आपके यहां से पढ़कर सिविल सेवाओं में जाने वालों की संख्या लगभग कितनी होगी?

इसके पहले आपको ये बताना ज़रूरी है कि सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा तीन स्तरों पर होती है. सबसे पहले प्रिलिमिनरी इम्तिहान होता है, उसके बाद मेन्स.

प्रिलिमिनरी में करीब 10 लाख लोग बैठते हैं. उनमें से 25-30 हज़ार लोग सलेक्ट हो पाते हैं, जिनको मेन के लिए बुलाया जाता है. मेन परीक्षा में 2,500-3,000 लोग सफल हो पाते हैं, जिनको इंटरव्यू के लिए बुलाया जाता है.

हमारा ऑल इंडिया टेस्ट साल में एक बार होता है, जो ऑनलाइन ही होता है, उसमें सलेक्ट होने वालों को हम प्रिलिमिनरी के लिए कोचिंग दिलवाते हैं, जिसकी 90 प्रतिशत फीस हम देते हैं और 10 प्रतिशत फीस प्रतियोगी देता है.

इनमें से कुछ लोग सफल हो जाते हैं, तो कुछ और लोग अगले साल की तैयारी करते हैं. कुछ और लोग दूसरी परीक्षाएं भी दिलाते हैं. जो बच्चे प्रीलिम्स में सलेक्ट हो पाते हैं, उन्हें हम मेन्स के लिए तैयारी करवाते हैं.

इसके अलावा देशभर में जो बच्चे अपने स्तर पर प्रयास करके मेन्स के लिए सलेक्ट हो जाते हैं और ऐसे लोग जब हमसे संपर्क करते हैं तो हम उनकी मदद करते हैं. उनको भी हम कोचिंग दिलवाते हैं.

प्रीलिम्स से निकलने के बात मेन्स के लिए सिर्फ तीन महीने का समय होता है. उनके लिए हर घंटा महत्वपूर्ण होता है इसलिए जैसे ही हमें कोई ईमेल भेजते हैं तो हम फौरन उनकी मदद के लिए आगे आ जाते हैं.

जब मेन्स के नतीजे निकलते हैं, उसमें दोनों तरह के बच्चे होते हैं. जो प्रीलिम्स में आए थे और जो बाहर से प्रीलिम्स पास होकर आए थे. उसके बाद इंटरव्यू की तैयारियां शुरू होती हैं.

उस समय कुछ और लोग हमें आवेदन भेजते हैं जो अपने बल पर प्रीलिम्स और मेन्स पूरा कर चुके होते हैं. हम उनकी भी पूरी मदद करते हैं. इस प्रकार तीन चरणों में तीन प्रकार के लोग हमारे पास आते हैं.

किसी की हम 100 प्रतिशत मदद कर चुके होते हैं, किसी की 50 प्रतिशत मदद कर चुके होते हैं और किसी की 10 प्रतिशत मदद. इन सभी को मिलाने से पिछले 10-11 सालों में ज़कात फाउंडेशन की तरफ से अब तक 149 उम्मीदवार सलेक्ट हो चुके हैं.

चैनल का आरोप है कि उड़ान की तरफ से एक लाख रुपये की जो फंडिंग होती है, उससे मुस्लिमों को अनुचित लाभ मिल जाता है क्योंकि ये हिंदुओं को उपलब्ध नहीं हैं. इसके अलावा उन्होंने 2011 का उदाहरण देते हुए कहा कि जिन्होंने उर्दू विषय चुना, उनका 40.9 प्रतिशत चयन हुआ. इंटरव्यू में सलेक्ट होने वालों में मुस्लिमों की संख्या दूसरे समुदायों की तुलना में 9 प्रतिशत ज़्यादा है. इनके बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

जैसे मैंने पहले भी बताया कि संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में समाज के कमज़ोर तबकों को चिह्नित करके उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने के लिए सरकारों को विशेष कदम उठाने पड़ेंगे. उसके तहत अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय बनाया गया.

और ये सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए नहीं है, भारत में जितने भी अल्पसंख्यक हैं उनके लिए है. जो योजनाएं बनती हैं, वो सबके लिए बनती हैं, जिनमें जैन भी शामिल हैं, सिख भी शामिल है… तो अगर उनको लड़ाई करना है तो भारत सरकार से लड़ें और संविधान से लड़ें कि आपने क्यों ऐसा किया.

दूसरी बात, यह स्पष्ट बता दूं कि उर्दू पर उनका डेटा बिल्कुल गलत है, उसकी कोई बुनियाद नहीं है. उसका कोई संदर्भ भी नहीं दिया गया.

उर्दू में असल में बिल्कुल उल्टा मामला है. उर्दू में होना ये चाहिए कि जो लोग उर्दू जानते हैं वो उर्दू में पढ़ाई चुने. लेकिन इस परीक्षा में बैठने वाले जो 20-30 साल के जो युवा हैं, उनमें 95-97 प्रतिशत को उर्दू नहीं आती.

अगर उनके घरों में उर्दू बोली भी जाती है तो उन्हें लिखना नहीं आता. अगर लिखना आता भी है तो इतना आत्मविश्वास नहीं होता कि वे उससे कोई फायदा ले सकें. लिहाजा उर्दू का विकल्प सिर्फ दो या तीन प्रतिशत बच्चे ही लेते है. उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है.

लेकिन इसका प्रभाव किसी के नतीजे पर तो हो ही नहीं सकता. ये ऐसे ही हुआ कि आप कहें कि जो लोग मलयालम या कन्नड़ लेंगे तो उस भाषा में जांचने वालों के कारण ये उनके हक़ में होगा, तो इसलिए इस बात में कोई तुक ही नहीं है, इसे खारिज कर दिया जाना चाहिए.

तीसरी बात, जहां तक इंटरव्यू में मुसलमानों को फायदा होने का सवाल है, तो मैं कहूंगा कि पहले तो जो साहब ये ऐतराज़ कर रहे हैं, वो इतनी काबिलियत रखते हों कि भारत सरकार उन्हें ले जाकर इंटरव्यू में बैठा दे.

यूपीएससी एक संवैधानिक निकाय है. उसका उतना ही सम्मान करना चाहिए, जितना संविधान का करते हैं. जब तक कि भारत सरकार या कोई अदालत या कोई अधिकारप्राप्त प्राधिकरण उसके अंदर कोई खराबी न निकाले, लेकिन एक संवैधानिक निकाय पर हवा में तीर चलाकर उस पर लांछन लगाना और उसका अपमान करना सही नहीं है, संविधान का अपमान करना है.

इस संस्था को संविधान के तहत बनाया गया है, जिसके अंदर एक व्यवस्था होती है जो आजादी के बाद से ही मजबूती से चल रही है. हिंदुस्तान में अगर किसी संस्था के खिलाफ कोई शक नहीं किया जा सकता, जो पूरी तरह पारदर्शी है, वो यूपीएससी ही है.

जब ये बात उठी तब आरएसएस द्वारा प्रेरित संकल्प संस्था का नाम भी आया. उसका गठन 1986 में हुआ था. उसका विज़न स्टेटमेंट कहता है कि बच्चों को सिविल सर्विसेज़ में ‘राष्ट्रवादी मूल्यों’ के साथ लाना चाहिए. पिछले सालों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चे उनसे प्रशिक्षित होकर यूपीएससी में आए हैं. कुछ लोग कहते हैं कि इससे नौकरशाही का भगवाकरण हुआ है. आप इतने सालों तक सिविल सेवा में रहे हैं, क्या आपको लगता है कि इस बात में दम है कि 1980 के मध्य तक लेफ़्ट-लिबरल्स नौकरशाही में ज़्यादा संख्या में थे और बाद में भाजपा-आरएसएस वालों को लगा कि इसमें हमारे जैसी सोच रखने वालों को आना चाहिए. फिर इस हिसाब से कोई प्रोजेक्ट चला?

इसके जवाब में मैं एक शेर पढ़ना चाहता हूं कि उनका जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें, मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे. 

मैं ज़कात फाउंडेशन की तरफ से मैं यही कह सकता हूं कि हम अच्छे काम में भरोसा रखते हैं और हमारा काम संविधान-सम्मत भी है. रजिस्ट्रेशन से लेकर हर पहलू में हम संवैधानिक ज़रूरतों को पूरा कर रहे हैं. एफसीआरए से लेकर हर कानून के तहत हमारी संस्था चल रही है.

हम भारत सरकार के सारे नियम-कायदों के हिसाब से चल रहे हैं. लेकिन दूसरे लोग क्या कर रहे हैं, इसमें मैं नहीं जाना चाहता हूं. ज़कात फाउंडेशन का यह मानना है कि दूसरों की आलोचना करने या किसी को निशाना बनाने की ज़रूरत नहीं है.

कोचिंग इंस्टिट्यूट पर जो सवाल उठे हैं, वो एक प्रकार से यूपीएससी के चयनित उम्मीदवारों पर भी सवाल हैं. लोग अब सिविल सेवा को इस तरीके से देखेंगे कि कौन किस समुदाय से आया है, ये न्याय करेगा कि नहीं करेगा. अब जिस प्रकार की बहस छिड़ी है, क्या लोगों के अंदर नौकरशाही पर से विश्वास उठता जा रहा है?

मैं ऐसा कतई नहीं सोचता. इन्होंने पिछले कुछ दिनों के अंदर जो भी किया है, उनका बहुत ही तंग एजेंडा है. अभी उन्होंने सिविल सेवा को निशाना बनाया है. इसके पहले भी उन्होंने किसी न किसी को निशाना बनाया था.

अगर उनके कई सालों के पिछले रिकॉर्ड को उठाकर देखें, तो हमेशा से उनका ऐसा ही नकारात्मक रुख रहा है. इनकी किसी न किसी को निशाना बनाकर देश के अंदर संवैधानिक व्यवस्था में बाधा डालने की कोशिश रही है. यही उनका काम है. यही कर रहे हैं.

और मुझे यकीन है कि यही वजह है कि उनका शो कोई देखता भी नहीं है. उनको बार-बार ये शिकायत होती है कि दूसरे लोग ये क्यों नहीं दिखा रहे, हम ही दिखा रहे हैं वगैरह वगैरह.

समाज में ऐसे तत्व हैं जिनको ज़्यादातर लोग पसंद नहीं करते हैं, लेकिन यह भी मानवीय स्वभाव का हिस्सा है. ऊपरवाले ने सबको विवेक दिया, सही-गलत की समझ दी, लेकिन अब ये उस इंसान पर है कि वो किस रास्ते को पकड़े, न पकड़े.

तो कई लोग उस रास्ते जाते हैं, जहां मेजॉरिटी नहीं जा रही है, तो इसके लिए अंग्रेजी में शब्द है एब्रेशन (Aberration- विचलन), ये वही हैं.

और मुझे लगता है कि हिंदुस्तान का संविधान है, उसके तहत बने हुए कानून, उसके तहत नियुक्त अधिकारी, इसके अलावा अदालतें, मीडिया है और विधायिका हैं, ये सब लोग मिलकर इनसे निपटने में सक्षम हैं और इसे लेकर हमें बिल्कुल संतुष्ट रहना चाहिए.

सिविल सोसाइटी के तौर पर हमारे जिम्मेदारी यह है कि अपना काम अच्छे से अच्छे तरीके से करते रहें, जो संवैधानिक व्यवस्था में पूरी तरह ठीक बैठता हो और मानवीय व्यवस्था में ठीक बैठता हो. इस तरह के एब्रेशन को गंभीरता लेने की ज़रूरत नहीं है.

आपने नौकरशाहों को करीब से देखा है, पहले वे संयमित तरीके से सोच-समझकर बात करते थे. अब ऐसा नहीं है. सीबीआई के अंतरिम निदेशक रहे नागेश्वर राव को देखें, वे  किस तरह के बयान दे रहे हैं. तो लोग समझ रहे हैं कि इनके अंदर की सांप्रदायिकता बाहर आ रही है, आप इसे कैसे देखते हैं?

फिर मैं वही बात कहूंगा समाज में सोच चलती रहती है और कुछ लोग कोशिश करते हैं अच्छी सोच डालने की और कुछ और लोग कम अच्छी सोच डालने की कोशिश करते हैं.

न्यूटन के सिद्धांत के मुताबिक हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है. कुछ न कुछ असर तो होगा. लेकिन हमारे लिए तो सबसे अहम बात ये है कि देश का बहुत बड़ा बहुमत सही तरीके से सोच रहे हैं.

उन्हें संवैधानिक दायरे में रहते हुए उनको मानवजाति की भलाई दिखती है. 95 प्रतिशत से ज़्यादा लोग अच्छे हैं. उनमें से ज़्यादातर लोग बोलते नहीं हैं.

जो बोलने वाले लोग हैं, उनमें भी ऐसा नहीं है कि एक तरफ बोल रहे हों, दूसरी तरफ के लोग भी खूब बोलते हैं. वे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों तक लिखित में अपनी बात भी भेजते हैं. तो यह एक निरंतर प्रक्रिया है.

बाकी मैं कहूंगा कि हममें से हर इंसान की ये जिम्मेदारी है कि हम ये तय करें कि आज से 40-50 साल बाद या आखिरी समय में जब पीछे मुड़कर देखें, तो देखें कि हमने दूसरों की भलाई में क्या किया, इंसानियत के लिए क्या किया. समाज में खराबी पैदा करने के बजाय इसका इंतज़ाम अभी से करने की कोशिश करनी चाहिए.

आखिरी सवाल- जब इस शो का प्रोमो देखा, क्या आपको लगा नहीं है कि तभी इस पर एक्शन लिया जाना चाहिए था, जो एपिसोड प्रसारित हुए हैं वो भी नहीं होने चाहिए थे?

सरकारें और जो इसे चलाने वाली इकाइयां हैं, वो बहुत बड़ा सिस्टम हैं, उसमें हमेशा ऐसे नहीं हो सकता कि मेरे पसंद की ही बात हो, या आप ही के पसंद की बात हो. कहीं न कहीं कुछ गलतियां हो ही जाती हैं.  लेकिन उनमें सुधार भी होते रहते हैं.

शो पर एक बार रोक लगी, फिर किसी तरीके से रोक हट गई. इसके बाद फिर दोबारा रोक लग गई. मैं यही कहूंगा कि आखिर में अच्छी ताकतों की, इंसानियत की ताकतों की ही जीत होती है.

लेकिन इस प्रक्रिया में कई बार ऊपर-नीचे हो जाता है. उसे देखकर दिल छोटा करने की ज़रूरत नहीं है. खामोशी से हम अपना अच्छा काम जारी रखें.

आपके माध्यम से मैं यही अर्ज़ करना चाहता हूं कि- जितने भी इल्ज़ाम ज़कात फाउंडेशन के ऊपर इस टीवी के जरिये लगाए गए हैं, वो सब गलत हैं. सौ फीसदी गलत हैं, निराधार हैं. हम उनका खंडन करते हैं.

ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के बोर्ड की बैठक के होने के बाद हम आगे इस बारे में गौर करेंगे कि क्या कार्रवाई करने की जरूरत है. जांच कराएंगे ताकि बदनीयती के साथ जो इस तरह लांछन लगाए जा रहे हैं, वो आइंदा किसी और पर न लगें.

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