आत्महत्या और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर ज़ाहिर की जा रही चिंताओं के बीच एक आरटीआई के जवाब में पता चला है कि डब्ल्यूएचओ और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद देश के कुछ बड़े मेडिकल संस्थानों में आत्महत्या या इसके प्रयासों को रोकने की कोई महत्वपूर्ण रणनीति नहीं है.
नई दिल्ली: साल 2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने अपने सदस्य देशों के साथ एक बैठक में मेंटल हेल्थ एक्शन प्लान पर अधिक ध्यान देने की बात की थी. आत्महत्या मामलों को रोकना इस प्लान का एक अभिन्न भाग था.
आगे चलकर भारत ने भी इसे लेकर प्रतिबद्धता जताई और वादा किया कि आत्महत्या और आत्महत्या की कोशिशों को रोकने के लिए इस प्लान को सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में लागू किया जाएगा.
हालांकि दिल्ली स्थित एक डॉक्टर द्वारा केंद्र के तीन प्रमुख स्वास्थ्य संस्थानों में दायर किए गए सूचना का अधिकार (आरटीआई) आवेदन से पता चलता है कि इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई उचित कदम नहीं उठाए गए हैं.
इसी साल जुलाई महीने में दिल्ली स्थित एम्स के मनोचिकित्सा विभाग के एक छात्र की मौत के बाद कार्यकर्ता सतेंद्र सिंह ने देश के तीन प्रमुख संस्थानों- दिल्ली के एम्स, चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेश एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) और पुदुचेरी के जवाहरलाल इंस्टिट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (जेआईपीएमईआर) के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय के फैकल्टी ऑफ मेडिकल साइंसेस के अधीन 13 मेडिकल संस्थानों में आरटीआई दायर कर आत्महत्या को रोकने के लिए चलाई जा रही योजनाओं की हकीकत को जानना चाहा.
लंबे समय से चली आ रही मांग को देखते हुए डब्ल्यूएचओ का यह सुझाव है कि भारत में ‘राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति’ होनी चाहिए. इसी दौरान इस साल मई में भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष चुना गया था.
सिंह ने द वायर को बताया, ‘हर्षवर्धन दिल्ली एम्स के भी अध्यक्ष थे और इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई है, भारत राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथान रणनीति के बिना ही चल रहा है.’
सिंह दिल्ली के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज में मानसिक स्वास्थ्य सहायता छात्र समूह- स्पेस (SPACE- सेफ प्लेस फॉर अफेक्टिव काउंसिलिंग एंड एम्पेथी)- के संस्थापक भी है. उन्होंने एम्स, जेआईपीएमईआर, पीजीआईएमईआर और दिल्ली विश्वविद्यालय में जुलाई के बीच में आरटीआई दायर की थी.
उनके पहले छह सवाल आत्महत्या से जुड़े हुए थे. उन्होंने पूछा कि क्या संस्थान के पास आत्महत्या रोकथाम के लिए कोई समर्पित हेल्पलाइन नंबर हैं, क्या संस्थान उनके परिसर में हो रही आत्महत्याओं और इसकी कोशिशों के आंकड़े इकट्ठा करते हैं.
इसके अलावा उन्होंने पिछले दस सालों में आत्महत्याओं के विवरण, इसे रोकने के लिए चलाई जा रही योजनाओं, उनकी प्लानिंग, डिजाइन तथा लागू करने की स्थिति के संबंध में जानकारी मांगी थी.
इसके जवाब में पुदुचेरी के जेआईपीएमईआर ने साल 2010 से 2019 के बीच 10 साल में हुईं आत्महत्याओं का एक चार्ट भेजा. इसमें जेआईपीएमईआर स्टाफ और छात्रों को मिलाकर कुल 90 आत्महत्याओं की जानकारी थी, जिसमें से 27 मामले अकेले साल 2019 के थे.
उन्होंने बताया कि इसके अलावा स्टाफ और छात्रों के छह अप्राकृतिक मौत के मामले सामने आएं, जिसमें से तीन मामले फांसी लगाने, एक मेथनोल जहर लेने और दो चूहेमार दवा खाने से जुड़े हुए थे.
यह पूछे जाने पर कि पिछले पांच वर्षों में जेआईपीएमईआर में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (एमएचसीए), 2017 की धारा 29 (2) के तहत आत्महत्याओं और इसके प्रयास कम करने के लिए किस तरह की योजनाएं और लागू की गईं, संस्थान ने कहा कि 10 सितंबर, 2018 (विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस) को जेआईपीएमईआर में आत्महत्या की रोकथाम से संबंधित एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था,जहां आत्महत्या के संबंध में जागरूकता बढ़ाने के लिए क्विज और निबंध लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था.
उन्होंने आगे बताया कि सितंबर 2018 के दूसरे सप्ताह को आत्महत्या रोकथाम सप्ताह के रूप में मनाया गया था और इस दौरान पुडुचेरी में हर दिन 10 मिनट के लिए इस विषय पर ऑल इंडिया रेडियो (एआईआर) का एक टॉक शो आयोजित किया गया था.
सिंह ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस बारे में कोई जवाब नहीं दिया. वहीं चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर ने आरटीआई आवेदन के जवाब में बताया कि मनोचिकित्सा विभाग के पोस्ट ग्रेजुएट, सीनियर रेजिडेंट, फैकल्टी और नॉन-टीचिंग स्टाफ किसी भी व्यक्ति द्वारा आत्महत्या या इसके प्रयास का मामला सामने नहीं आया है.
आत्महत्या को रोकने के लिए चलाई जा रही योजनाओं के संबंध में संस्थान ने कोई जवाब नहीं दिया और कहा, ‘पीजीआईएमईआर के मनोचिकित्सा विभाग में कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है.’
दिल्ली के एम्स ने इस विषय पर विस्तृत जवाब भेजा है, जहां आरटीआई सेल के सक्षम अधिकारी ने आवेदन को आठ विभिन्न विभागों में भेज दिया था, जिनमें से कुछ ने अपने जवाब भेजे हैं.
एम्स के एससी/एसटी, ओबीसी/विमेन सेल के केंद्रीय जनसूचना अधिकारी (सीपीआईओ) ने 19 अगस्त को अपना जवाब भेजा और कहा कि मांगी गई जानकारी इस विभाग में उपलब्ध नहीं है.
एम्स के कॉलेज ऑफ डेंटल एजुकेशन एंड रिसर्च ने बताया कि वे अंडरग्रेजुएट, पोस्टग्रेजुएट, सीनियर रेजिडेंट्स, फैकल्टी और नॉन-टीचिंग स्टाफ श्रेणियों में आत्महत्या और इसकी कोशिश के आंकड़े नहीं रखते हैं.
एम्स के मनोचिकित्सा और नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर ने कहा कि उनके पास आत्महत्या की रोकथाम के लिए 9868397175 और 9868397176 नंबर वाली एक हेल्पलाइन है.
उन्होंने कहा कि वे आत्महत्या और इसके प्रयास को कम करने के लिए ओरिएंटेशन कार्यक्रम, मेंटरशिप कार्यक्रम, काउंसिलिंग और मनोचिकित्सा प्रोग्राम आयोजित करते है.
संयोग से केंद्र द्वारा भी दो टोल-फ्री हेल्पलाइन चलाए जाते हैं. इसमें से एक किरन ‘KIRAN’: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा 24×7 मानसिक स्वास्थ्य पुनर्वास हेल्पलाइन- 18005990019 और दूसरा नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज की (एनआईएमएचएएनएस) हेल्पलाइन- 08046110007 है.
संस्थान के कॉलेज ऑफ नर्सिंग ने बताया कि दिसंबर 2014 में उनके यहां अंडरग्रेजुएट के एक छात्र ने आत्महत्या की थी. हालांकि उन्होंने फैकल्टी सदस्य या नॉन-टीचिंग स्टाफ में इस तरह की घटना होने से इनकार किया.
विभाग ने यह भी कहा कि आत्महत्या के संबंध में उनके यहां हेल्पलाइन नहीं है.
ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई प्लान उपलब्ध होने के संबंध में उन्होंने बताया कि हॉस्टल नंबर 7 और 19 में वेलनेस सेंटर बनाए गए हैं, जिनका काम अंडरग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट छात्रों की नियमित काउंसलिंग करना है. इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि मानसिक स्वास्थ्य सुविधाएं कैंपस के सभी बच्चों के लिए हैं.
अस्पताल प्रशासन और शैक्षणिक सेक्शन के सीपीआईओ ने भी जवाब दिया है, लेकिन इनमें कोई महत्वपूर्ण जानकारी नहीं है.
संस्थानों द्वारा दिए गए जवाब पर प्रतिक्रिया देते हुए सिंह ने कहा, ‘भारत को तत्काल एक राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति की आवश्यकता है.’
उन्होंने कहा कि भारत की राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति, 2014 मानसिक बीमारी की रोकथाम और आत्महत्या एवं आत्महत्या के प्रयास को कम करने रणनीतिक दिशा प्रदान करती है.
अन्य चीजों समेत यह आत्महत्या को कम करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाने का निर्देश देता है. इसके अलावा ये आत्महत्या के पीछे प्रमुख वजह डिप्रेशन या अवसाद का समाधान करने पर जोर देता है.
उन्होंने कहा कि भारत ने एमएचसीए, 2017 भी लागू किया है जो कहता है कि ‘उपयुक्त सरकार योजना, डिजाइन और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों को लागू कर सकती है ताकि देश में आत्महत्याओं और आत्महत्याओं को कम करने का प्रयास किया जा सके.’
इसके अलावा यह भी निर्धारित किया गया है कि गंभीर तनाव से ग्रसित एवं आत्महत्या की कोशिश कर चुके लोगों सरकार देखभाल, उपचार और पुनर्वास प्रदान करेगी, ताकि आत्महत्या के प्रयासों को कम किया जा सके.
सिंह ने बताया कि लेकिन इन सब बातों को स्वास्थ्य मंत्रालय के बड़े संस्थानों में लागू नहीं किया गया है.
उन्होंने कहा, ‘आत्महत्या एक सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा है और हमें कार्यान्वयन के लिए अंतर-मंत्रालयी समन्वय की आवश्यकता है. हालांकि, हमने जो देखा है वह यह है कि स्वास्थ्य मंत्रालय और सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय अलग-अलग आत्महत्या रोकथाम हेल्पलाइन चला रहे हैं.’
एमएचसीए को बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले और जाने-माने आत्महत्या रोकथाम शोधकर्ता सौमित्र पथारे ने भी हाल ही में इस तरह के हेल्पलाइन स्थापित करने में समन्वय की कमी के बारे में ट्वीट किया था.
सिंह ने कहा कि इस मुद्दे पर सरकार को तत्काल ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि भारत में हर साल एक लाख से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में आत्महत्या से 1,39,123 लोगों की मौत हुई, जो 2018 की तुलना में 3.4 फीसदी की वृद्धि है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)