जस्टिस अरुण मिश्रा द्वारा प्रार्थनास्थलों पर सरकार की नीति, अश्लीलता और लैंगिक न्याय को लेकर दिए गए फ़ैसले क़ानूनी पहलुओं से ज़्यादा उनके निजी मूल्यों पर आधारित नज़र आते हैं.
(यह लेख हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए जस्टिस अरुण मिश्रा के न्यायिक करिअर और उनके फैसलों की पड़ताल पर केंद्रित पांच लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग है. पहला भाग यहां पढ़ सकते हैं.)
नई दिल्ली: न्यायाधीशों को अक्सर कानून और न्यायिक व्याख्या के मामले में परंपरवादी, नरमपंथी या उदारवादी दर्शन रखने वाले के तौर पर वर्गीकृत किया जाता है.
एक न्यायाधीश संवैधानिक सिद्धांतों के भीतर रहते हुए किस तरह से किसी मामले का फैसला करता है, यह उसके न्यायिक दर्शन के साथ-साथ उसके वैचारिक झुकाव, निजी नजरियों, मूल्यों, राजनीतिक दर्शनों और पॉलिसी (नीति) प्राथमिकताओं को भी दिखाता है.
आदर्श तौर पर पर न्यायाधीशों को मामलों का फैसला अपने निजी मूल्यों से तटस्थ रहकर करना चाहिए, लेकिन वे ऐसा करते नहीं हैं- वे अधिकतर मामलों का फैसला अपने विश्वासों और मूल्यों के हिसाब से करते हैं.
प्रशांत भूषण वाला मामला यह दिखाता है कि कैसे न्यायालय की अवमानना के केस लॉ की व्याख्या रूढ़िवादी और उदारवादी जजों द्वारा अलग-अलग तरीके से या एक जज द्वारा अलग-अलग समय में अलग तरह से की जा सकती है, जो मामलों का फैसला एक खास तरह से करने की अघोषित मजबूरी पर निर्भर करता है.
सुप्रीम कोर्ट के जजों के उदरवादी या रूढ़िवादी नजर आने की मात्रा उनके समक्ष आए मामलों की प्रकृति पर निर्भर करता है. इसलिए एक जज के कार्यकाल में दिए गए फैसलों का अध्ययन लंबे समय में न्यायालय के वैचारिक झुकाव के बारे में जानने में हमारी मदद कर सकता है.
रूढ़िवादी रवैया
जस्टिस अरुण मिश्रा के रूढ़िवाद ने मुख्य तौर पर धर्म से जुड़े उनके फैसलों को प्रभावित किया. 2018 के सारिका बनाम प्रशासक, श्री महाकालेश्वर मंदिर समिति, उज्जैन (एमपी) एवं अन्य वाले मामले में उन्होंने कहा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के खराब हो रहे शिवलिंग के रखरखाव की जिम्मेदारी सरकार की है.
यहां महत्वपूर्ण यह है कि अपने फैसले में जस्टिस मिश्रा ने 2002 के गुजरात दंगों में नष्ट कर दिए गए धार्मिक स्थलों के पुनर्निर्माण को लेकर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा दिए फैसले को संदर्भित नहीं किया, जिसमें दीपक मिश्रा ने कहा था कि राज्य के पास उनके पुनर्निर्माण के लिए सार्वजनिक धन खर्च करने का कोई अधिकार नहीं है (गुजरात राज्य बनाम आईआरसीजी).
जैसा कि फैजान मुस्तफा ने द वायर में लिखे अपने एक लेख में रेखांकित किया, लोगों को न्यायालय द्वारा दिए गए तर्कों से चिंतित होना चाहिए न कि मामले के अंतिम नतीजे से.
जस्टिस मिश्रा ने 2011 में प्रफुल्ल गोरादिया बनाम भारतीय संघ वाले वाद में कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने इस आधार पर हज सब्सिडी की संवैधानिकता पर मुहर लगाई थी कि धर्मों पर खर्च की गई छोटी रकम अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करने वाली नहीं मानी जाएगी.
उन्होंने भारतीय संघ बनाम रफ़ीक शेख भीकन वाले मामले में 2012 के फैसले की अनदेखी की, जिसमें कोर्ट ने सरकार से 10 सालों में हज सब्सिडी को धीरे-धीरे समाप्त करने का निर्देश दिया था.
01 सितंबर को जस्टिस अरुण मिश्रा, बीआर गवई और कृष्ण मुरारी की बेंच ने शिवलिंग के संरक्षण और इसके रखरखाव के लिए नए निर्देश जारी किए. बेंच ने केंद्र को भी इस उद्देश्य से 41.30 लाख रुपये का योगदान भी, जितनी जल्दी संभव हो सके, करने का निर्देश दिया.
कोर्ट द्वारा आगे भी इस मामले की निगरानी किए जाने की उम्मीद है और उसने मंदिर में चलाए जाने वाले मरम्मत और रखरखाव के कामों को लेकर विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट मांगी है.
चंद्रनागेश्वर मंदिर के संरक्षण और रखरखाव के लिए बेंच ने विस्तृत योजना पेश करने का भी निर्देश दिया. कोर्ट ने इस बात को लेकर अपनी चिंता भी प्रकट की कि कुछ समय से ‘दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से आवश्यक अनुष्ठानों का आयोजन मंदिरों का सबसे उपेक्षित पहलू बन गया है और नए पुजारियों को इसकी समझ नहीं है.ऐसा नहीं होना चाहिए. व्यावसायीकरण के लिए कोई जगह नहीं है. अनगिनत धार्मिक अनुष्ठानों और कार्यक्रमों का आयोजन नियमित तौर पर किया जाना चाहिए.’
यह संभवतः पहली बार है कि कोर्ट ने हिंदू मंदिर के कामकाज और रोजाना के अनुष्ठानों के प्रबंधन में इतनी गहरी रुचि दिखाई है.
निशिकांत दुबे बनाम भारतीय संघ के एक बिल्कुल हालिया मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा ने यह व्यवस्था दी कि देवघर में कोविड-19 के कारण लोगों के पूजा-पाठ पर पूर्ण पाबंदी अतार्किक है.
जस्टिस मिश्रा, बीआर गवई और कृष्ण मुरारी की बेंच ने यह स्वीकार करते हुए कि राज्य पर सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को लागू करवाने की जिम्मेदारी है, कहा, ‘हम जोर देकर उनसे (राज्य सरकार से) मंदिरों, गिरिजाघरों और मस्जिदों में आम जनता के सीमित प्रवेश की संभावना तलाश करने का आग्रह करते हैं.’
कोर्ट ने कहा कि मंदिर के अनुष्ठानों की लाइव स्ट्रीमिंग के जरिए देखना मंदिर में जाकर पूजा करने की जगह नहीं ले सकता है और पूछा कि -जब (लॉकडाउन को हटाए जाने के दौरान) बाकी चीजें चल रही हैं, तो राज्य मंदिरों का प्रबंधन क्यों नहीं कर सकते हैं?’
जस्टिस अरुण मिश्रा की बेंच द्वारा धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों के साथ मंदिरों की तुलना करना और इबादतस्थलों के साथ भेदभाव किए जाने का निष्कर्ष निकालना अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के एक रूढ़िवादी जज द्वारा दिए गए एक विरोध के फैसले की याद दिलाता है, जिसकी विश्लेषकों ने तीखी आलोचना की.
धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों के उलट, धार्मिक आयोजन लोगों की बड़ी भीड़ के कारण अलग से पहचाने जा सकते हैं, जिनमें लोग लंबे समय तक एक-दूसरे के काफी करीब रहते हैं, जिससे कोरोना वायरस के प्रसार का खतरा बढ़ता है.
जस्टिस मिश्रा की बेंच ने, अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के अपने साथी रूढ़िवादी जजों की तरह ही राज्य की प्रशासनिक चिंताओं को नहीं समझा.
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जस्टिस अरुण मिश्रा ने अपनी सेवानिवृत्ति के मौके पर महामारी का हवाला देते हुए खुद को विदाई समारोहों से अलग कर लिया, लेकिन जब बात धार्मिक आयोजनों में सार्वजनिक जमावड़े की आती है, तो उन्हें सोशल डिस्टेंसिंग का नियम मर्ज की दवा नजर आता है.
रेहाना फातिमा मामला
7 अगस्त को जस्टिस मिश्रा जस्टिस गवई और कृष्ण मुरारी की सदस्यता वाली बेंच की अध्यक्षता कर रहे थे, जब केरल की एक एक्टिविस्ट रेहाना फातिमा की अग्रिम जमानत अर्जी को खारिज करते हुए जस्टिस अरुण मिश्रा ने याचिकाकर्ता के वकील सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायण से पूछा कि वे उनके (जस्टिस मिश्रा के) कार्यकाल के बिल्कुल आखिरी चरण में यह मामला उनके सामने लेकर क्यों आए?
फातिमा यू-ट्यूब पर एक वीडियो अपलोड करने के, जिसमें उनके दो नाबालिग बच्चे उनके शरीर पर पेंट कर रहे हैं, को लेकर चाइल्ड पोर्नोग्राफी के आरोपों का सामना कर रही हैं.
वे केरल हाईकोर्ट द्वारा इस मामले में उन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार करने के फैसले के खिलाफ अपील लेकर इस बेंच के सामने प्रस्तुत हुई थीं.
जस्टिस अरुण मिश्रा की शुरुआती प्रतिक्रिया से एक शर्मिंदगी का बोध झलक रहा था कि उन्हें इस मामले के तथ्यों और याचिकाकर्ता की दलीलों को सिर्फ इसलिए सुनना पड़ेगा कि उसने उनके कार्यकाल के बिल्कुल आखिरी हिस्से में कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
इससे यह निष्कर्ष निकल रहा था कि अगर ऐसा ही मामला उनके न्यायिक करिअर में पहले आता तो, इसमें कोई दिक्कत नहीं थी.
एक संभावना यह भी हो सकती है कि हो सकता है कि जस्टिस मिश्रा यह संदेश देना चाहते थे कि अपने करिअर के किसी भी बिंदु पर इस मामले को सुनना उनके अन्यथा ‘उपलब्धियों से भरे कार्यकाल’ में एक धब्बे के समान होता.
उनका मंतव्य इन दोनों में से चाहे जो भी रहा हो, इस मामले के तथ्यों को लेकर जस्टिस मिश्रा की नापसंदगी ने उनके न्यायिक दर्शन को साफ कर दिया: रूढ़िवाद और अपने सामने आए मामलों के तथ्यों को कानून की कसौटी पर कसते वक्त अपनी निजी पसंद-नापसंद और नजरिये से मुक्त न हो पाना.
जस्टिस मिश्रा के पास किसी मामले को लेकर अपना ‘नैतिक’ और ‘आदर्श’ नजरिया रखने का अधिकार है, लेकिन लोगों को यह उम्मीद रही होगी कि अपने सामने आए मामले पर न्याय करने के लिए वे फातिमा की अग्रिम जमानत की याचिका के गुण-दोष पर विचार करेंगे, न कि अपने दार्शनिक झुकाव को अपनी न्यायिक समझ पर हावी होने देंगे.
न्यायालय से हुई चूक
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जस्टिस मिश्रा ने इस बाबत पूछताछ नहीं की कि क्या इस मामले में वे अग्रिम याचिका की हकदार थीं?
उन्होंने राज्य सरकार के वकील से, जो सुनवाई के दौरान मौजूद थे, यह भी नहीं पूछा कि क्या इस मामले को सुलझाने के लिए उन्हें हिरासत में लेकर उनकी पूछताछ की जरूरत थी?
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि राज्य के वकील इस दौरान चुप रहे क्योंकि जस्टिस मिश्रा उनकी तरफ से बहस कर रहे थे.
अपने संक्षिप्त फैसले में बेंच ने कहा, ‘हमें उच्च न्यायालय के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नजर नहीं आता. हम विशेष अवकाश याचिका (स्पेशल लीव पिटीशन) को खारिज करते हैं. और अगर कोई लंबित मध्यस्थता की याचिका(एं) है, तो हम उसे/उन्हें भी समाप्त करते हैं.’
साफतौर पर यह फैसला केरल उच्च न्यायालय द्वारा अपने निर्णय में की गई गलती पर ध्यान न देने का परिणाम था, जो यह देखने में नाकाम रहा था कि क्या प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंस एक्ट, 2012 (पॉक्सो) की धारा 12 को इस मामले पर लागू किया जा सकता है?
इस प्रावधान को लागू करने के लिए एक अनिवार्य शर्त ‘बच्चे का अभद्र या अश्लील तरह से प्रदर्शन’ है. मां के निर्वस्त्र होने को इस प्रावधान के तहत बच्चे की अभद्र प्रस्तुति नहीं कहा जा सकता है.
उच्च न्यायालय ने इस कानून की व्याख्या करते हुए इसके भीतर किसी भी माध्यम से पोर्नोग्राफिक सामग्री के वितरण के लिए बच्चों का इस्तेमाल करने को शामिल कर लिया.
यह अजीब और विरोधाभासी है कि जहां एक तरफ उच्च न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला वहीं वीडियो को देखते वक्त उसने बच्चों की चित्रकला प्रतिभा की प्रशंसा भी की थी.
उच्च न्यायालय की ही तरह जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली सर्वोच्च न्यायाल की बेंच गलत तरीके से मामले के गुण-दोष में चली गई, जबकि उसे इस सवाल का जवाब देना चाहिए था कि याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत दिए जाने की पात्रता को पूरी करती हैं या नहीं.
अग्रिम जमानत इस शर्त के साथ दी जा सकती थी कि आरोपी फिर से वह अपराध नहीं दोहराए, जिसका आरोप उस पर लगाया गया है.
महत्वपूर्ण यह भी है कि उस कथित अप्रिय वीडियो में समझी जा रही अश्लीलता को लेकर इतने हंगामे के बावजूद यू-ट्यूब ने उस वीडियो को नहीं हटाया है. इसके अलावा पुलिस ने उस महिला के खिलाफ आईपीसी की धारा 292 सी नहीं लगाई है, जबकि यह धारा अश्लीलता से संबंधित है.
यह अजीब है कि जस्टिस मिश्रा की बेंच ने उच्च न्यायालय के इस तर्क पर अपनी मुहर लगा दी कि अगर फरियादी ने अपने घर की चारदीवारी के भीतर अपने बच्चों के साथ प्रयोग किया होता और इसे सोशल मीडिया पर अपलोड नहीं किया होता, तो उन पर दंडात्मक प्रावधान लागू नहीं होता.
अगर घर की चारदीवारी के भीतर करने पर उसका कृत्य अपराध की श्रेणी में नहीं आता है, तो उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करने से वह अपराध की श्रेणी में कैसे आ जाएगा, खासतौर पर अगर इससे बच्चों के द्वारा किसी पोर्नोग्राफिक सामग्री का प्रसार की कोशिश नहीं की गई है?
साफतौर पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, दोनों द्वारा फातिमा की अग्रिम जमानत से इनकार किए जाने ने कई प्रासंगिक मुद्दों को दबा दिया है. उम्मीद है कि सुनवाई के दौरान उन पर स्पष्टीकरण मिलेगा.
परंपरा की उपेक्षा
29 जनवरी को सुशीला अग्रवाल तथा अन्य बनाम राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) तथा अन्य वाले मामले में जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने अग्रिम जमानत के सवाल पर एक विस्तृत फैसला दिया.
इस मामले में बेंच ने यह माना कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 का अनुच्छेद 21 के साथ एक आंतरिक संबंध है, क्योंकि यह किसी अपराध की जांच करने के राज्य/सरकार की शक्ति और जिम्मेदारी और व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के इसके कर्तव्य के बीच संतुलन साधने की कोशिश करता है.
अनुच्छेद 21 आरोपी के पक्ष में बेगुनाही की पूर्वधारणा को पेश करता है, इसलिए बेंच ने यह माना कि इसका दंड देने योग्य विधान के हर विचार और उसके अमल के केंद्र में होना जरूरी है.
बेंच ने इस दृष्टिकोण के समर्थन में पहले के निर्णयों का हवाला देकर कहा कि सीआरपीसी की धारा 438 चूंकि न्याय द्वारा स्थापित प्रक्रिया का हिस्सा है, इसलिए इसका पाठ निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और तार्किक तरीके से किया जाना चाहिए.
इस मामले में बेंच ने कहा कि अग्रिम जमानत देने फैसला जज के विवेकाधिकार के अधीन है, लेकिन अगर वह इसे देता है, तो यह वैधता की अवधि की किसी पाबंदी के बगैर होना चाहिए, बशर्ते किसी खास कारण से न्यायालय के लिए ऐसी कोई सीमा तय करना जरूरी न हो.
महत्वपूर्ण तरीके से, बेंच ने कहा कि अग्रिम जमानत का कोई आदेश किसी खास अपराध या घटना के लिए होना चाहिए, जिसको लेकर गिरफ्तारी से बचाव की मांग की गई है. यह भविष्य की किसी घटना या अपराध के लिए लागू नहीं हो सकता है. इसलिए जस्टिस मिश्रा का यह तर्क अजीब है कि फातिमा की जमानत को खारिज करना इस आधार पर जायज है कि इससे यह सुनिश्चित होगा कि वह ऐसा कथित अपराध फिर नहीं करेगी.
सुशीला अग्रवाल वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि अग्रिम जमानत की अर्जी पर विचार करते वक्त कोर्ट को अपराध की प्रकृति, व्यक्ति की भूमिका, उसके द्वारा जांच को प्रभावित करने की संभावना या सबूतों से छेड़छाड़ करने (जिसमें गवाहों को धमकाना भी शामिल है) की संभावना, न्याय से बच निकलना (मसलन देश छोड़ना) आदि पर भी विचार करना चाहिए.
न तो सर्वोच्च न्यायालय और न ही उच्च न्यायालय ने यह बताने की जहमत उठाई कि आखिर कैसे फातिमा इन में से भी आधार को संतुष्ट नहीं करती है.
इसकी जगह जस्टिस मिश्रा ने उनके वकील से कहा कि उच्च न्यायालय इस मामले के ब्योरों में गया है- जो इसे सुनवाई से पहले के चरण पर नहीं किया जाना चाहिए, ताकि ट्रायल कोर्ट की सुनवाई इससे प्रभावित न हो.
इसलिए फातिमा को अग्रिम जमानत देने इनकार करते वक्त जस्टिस मिश्रा द्वारा उनकी ही अगुआई वाली संवैधानिक पीठ द्वारा सुशीला अग्रवाल वाले मामले में दिए गए फैसले की अनदेखी किया जाना, जस्टिस मिश्रा में न्यायिक अनुशासन की कमी को दिखाता है, जो उनके न्यायिक तौर-तरीकों की पहचान है.
विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा
11 अगस्त को जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली पीठ द्वारा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के 2005 के संशोधन की व्याख्या पर सुनाए गए फैसले की दुनियाभर में प्रशंसा हो रही है.
इसे उत्तराधिकार में बेटियों को बराबर अधिकार देने और उन्हें बेटों के बराबर दर्जा देने का साहस भरा फैसला बताया जा रहा है.
लेकिन इस स्त्री समर्थक फैसले में भी, जैसा कि कानूनविद् सौम्या उमा ने द वायर को बताया, जस्टिस अरुण मिश्रा खुद को बार-बार दोहराये जाने वाली घिसी-पिटी बात से, जो गुजरे हुए जमाने और छिपी हुई पितृसत्ता की पहचान है, पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाए.
उन्होंने कहा, ‘एक बेटा तब तक बेटा रहता है, तब कि उसकी पत्नी नहीं आ जाती. एक बेटी जीवनभर बेटी रहती है.’ क्या यह फैसला बेटी को बहू के खिलाफ खड़ा करता है? इस फैसले की अन्यथा प्रशंसा करने वाले भी मानेंगे कि इसे लैंगिक समानता का आदर्श नमूना नहीं कहा जा सकता.’
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