आपराधिक क़ानून में बदलाव के लिए गठित गृह मंत्रालय की समिति भंग करने मांग तेज़

वकीलों और कार्यकर्ताओं के एक समूह ने विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व न होने और सार्वजनिक परामर्श के लिए बहुत कम समय दिए जाने जैसे कारणों का हवाला देते हुए मई में गृह मंत्रालय द्वारा गठित आपराधिक क़ानून में सुधार के लिए राष्ट्रीय स्तर की समिति को भंग करने की मांग की है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

वकीलों और कार्यकर्ताओं के एक समूह ने विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व न होने और सार्वजनिक परामर्श के लिए बहुत कम समय दिए जाने जैसे कारणों का हवाला देते हुए मई में गृह मंत्रालय द्वारा गठित आपराधिक क़ानून में सुधार के लिए राष्ट्रीय स्तर की समिति को भंग करने की मांग की है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: वकीलों और कार्यकर्ताओं के एक समूह ने आपराधिक कानूनों में सुधार के लिए राष्ट्रीय स्तर की समिति को भंग करने के लिए ईमेल अभियान चलाने की खातिर के लिए एक वेबसाइट की स्थापना की है.

इन लोगों का दावा है कि इसमें किसी समूह का प्रतिनिधित्व नहीं है, महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है और सार्वजनिक परामर्श के लिए बहुत कम समय दिया गया है.

बीते चार मई को आपराधिक कानूनों की समीक्षा के लिए गृह मंत्रालय द्वारा पांच सदस्यीय इस समिति का गठन किया गया था. समिति के सदस्य रणबीर सिंह (अध्यक्ष), जीएस बाजपेयी, बलराज चौहान, महेश जेठमलानी और जीपी थरेजा हैं.

पहली बार समिति के गठन के बारे में घोषणा दिसंबर 2019 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा की गई थी.

समिति द्वारा जिन तीन मुख्य कानूनों की समीक्षा की उम्मीद की जा रही है वे 1860 की भारतीय दंड संहिता, 1973 की दंड प्रक्रिया संहिता और 1872 की भारतीय साक्ष्य अधिनियम हैं. समिति के पास कानूनों की समीक्षा करने और सिफारिशें करने के लिए छह महीने का समय है.

सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और पूर्व नौकरशाहों द्वारा हस्ताक्षरित एक खुले पत्र में समिति की विविधता और इसके कामकाज में पारदर्शिता की कमी पर पहले ही सवाल उठाए जा चुके हैं.

एक नई बनाई गई वेबसाइट ‘डिसबैंडदकमेटीडॉटइन’ समिति और उसके वास्तविक निष्कर्ष को लेकर चिंताएं व्यक्त करती है. इसके साथ ही यह यूजर्स को अपने संसद सदस्यों, गृह मंत्रालय और समिति को ई-मेल करके अपनी चिंताओं को पंजीकृत करने की भी अनुमति देता है.

वेबसाइट के लेखकों ने समिति को लेकर पांच प्रमुख समस्याएं गिनाई हैं. इसमें विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व न होना, इस प्रक्रिया के लिए निश्चित समयावधि, अपारदर्शी तरीके से कार्य करना, जनादेश का सामान्यीकरण करना और विधि आयोग को पुनर्लेखन कानून की प्रक्रिया में लाने से इनकार करने पर सवालिया निशान शामिल हैं.

पिछले महीने छह कानूनी संस्थानों के कानून के 440 छात्रों ने एक खुला पत्र भी लिखा था, जिसमें कहा गया था कि समिति में एक भी महिला या हाशिये के समुदायों की सदस्य नहीं थे.

आपराधिक कानूनों की समीक्षा के लिए समिति की ओर से लोगों से सुझाव भी मांगें गए हैं, लेकिन ये सुझाव अंग्रेजी में देने हैं. इस पर छात्रों का कहना था कि अंग्रेजी में ऑनलाइन परामर्श भारत की अधिकांश आबादी को प्रक्रिया से बाहर कर देता है.

पत्र में लिखा गया था, ‘केवल अंग्रेजी में दिए गए सवालों के साथ पूरी तरह से ऑनलाइन परामर्श अधिकांश आबादी की वास्तविकता को पूरी तरह से अनदेखा करता है. कई जगहों पर इंटरनेट की पहुंच नहीं है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश आबादी अंग्रेजी भाषा में धाराप्रवाह नहीं है (2011 की जनगणना में दर्ज किया गया कि सिर्फ 10 प्रतिशत से अधिक भारतीयों ने कुछ अंग्रेजी बोलने और जानने में सक्षम होने की सूचना दी).’

वेबसाइट ने इस बात पर भी चिंता व्यक्ति की कि महामारी इस तरह के सुधार के लिए एक उपयुक्त समय नहीं है, क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए व्यापक स्तर पर पहुंच और उनकी बातों के समावेश की आवश्यकता होती है.

सिटिजंस अगेंस्ट द क्रिमिनल लॉ रिफॉर्म कमेटी ने कहा, ‘आपराधिक न्याय प्रणाली की खराबी से सबसे ज्यादा प्रभावित समुदाय और जो उस प्रणाली में मौजूद सुरक्षा उपायों को हटाने या कमजोर करने से भी सबसे अधिक प्रभावित होंगे, वही महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं और आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिए विचार-विमर्श में भाग लेने की स्थिति में नहीं हैं. कई समुदायों के प्रतिनिधियों ने समिति से आह्वान किया है कि वह कम से कम महामारी की उचित रोकथाम तक इस कवायद को स्थगित कर दे.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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