क्यों भीमा-कोरेगांव हिंसा के पीड़ितों की न्याय पाने की आस धूमिल होती जा रही है

2018 में भीमा-कोरेगांव में दलित समुदाय के लोगों पर हिंसक भीड़ के हमले के एक दिन बाद एक कार्यकर्ता ने शिकायत दर्ज कर हिंदुत्ववादी नेता मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े पर इस हमले के साज़िशकर्ता होने का आरोप लगाया था. घटना के क़रीब तीन साल बाद उन्हें इस मामले की सुनवाई की कोई उम्मीद नहीं दिखती.

मिलिंद एकबोटे और संभाजी भीड़े (फोटो साभार: फेसबुक)

2018 में भीमा-कोरेगांव में दलित समुदाय के लोगों पर हिंसक भीड़ के हमले के एक दिन बाद एक कार्यकर्ता ने शिकायत दर्ज कर हिंदुत्ववादी नेता मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े पर इस हमले के साज़िशकर्ता होने का आरोप लगाया था. घटना के क़रीब तीन साल बाद उन्हें इस मामले की सुनवाई की कोई उम्मीद नहीं दिखती.

मिलिंद एकबोटे और संभाजी भीड़े (फोटो साभार: फेसबुक)
मिलिंद एकबोटे और संभाजी भीड़े (फोटो साभार: फेसबुक)

मुंबई: भीमा-कोरेगांव जाने वाले दलित समुदाय के सदस्यों पर हिंसक भीड़ हमले के एक दिन बाद 2 जनवरी, 2018 को जाति विरोधी कार्यकर्ता अनीता सावले एक शिकायत दर्ज कराई थी कि समस्त हिंदू अगाड़ी अध्यक्ष हिंदुत्ववादी नेता मिलिंद एकबोटे और शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान नेता संभाजी भिड़े हमले के साजिशकर्ता थे.

मामले को वापस लेने के भारी दबाव और अपनी जान को खतरा होने के बावजूद सावले लगातार पुलिस के पीछे लगी रहीं और मामले में त्वरित कार्रवाई की मांग की.

जब पुलिस अपनी भूमिका निभा पाने में असफल हो गई तब उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाकर जवाबदेही की मांग की. हालांकि, दो साल और नौ महीने बीत जाने के बाद भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिख रही है कि आरोपियों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई होगी.

इस बीच मामले को देखने वाली शिकारपुर पुलिस ने द वायर  को बताया कि उन्होंने पहले ही अपनी जांच पूरी कर ली है, लेकिन मुकदमे को आगे बढ़ाने की अनिवार्य मंजूरियों के लिए फाइल लंबे समय से पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के कार्यालय में लंबित है.

शिकारपुर पुलिस इंस्पेक्टर सदाशिव शेलार ने कहा, ‘चूंकि आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153 (बी) और 295 (ए) के तहत मामला दर्ज किया गया है, इसलिए हमने रिपोर्ट कुछ महीने पहले डीजीपी कार्यालय को भेज दी थी, लेकिन हमें अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है.’

जहां 153 (बी) धर्म, भाषा, नस्ल वगैरह के आधार पर समूहों में नफरत फैलाने की कोशिश से संबंधित है वहीं 295 (ए) का इस्तेमाल ऐसे लोगों के खिलाफ किया जाता है जो किसी व्यक्ति के धर्म का अपमान करने के इरादे से पूजा स्थल या पवित्र स्थान को नष्ट करते, क्षति पहुंचाते या अपवित्र करते हैं.

दोनों आरोपियों और उनके संगठन के अन्य सदस्यों पर अनूसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत भी मामला दर्ज किया गया है.

शेलार ने आगे कहा कि डीजीपी के कार्यालय द्वारा इसे मंजूरी दिए जाने के बाद भी रिपोर्ट को गृह विभाग को भेजना होगा. वहां से मंजूरी मिलने के बाद ही पुलिस मामले में चार्जशीट दाखिल करने में सक्षम होगी.

हमेशा की तरह 1 जनवरी, 2018 को भी सावले पुणे से 30 किमी उत्तर-पूर्व स्थित भीमा-कोरेगांव गई थीं. यह 1818 में ब्रिटिश सेना द्वारा जीती गई एक ऐतिहासिक लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ थी, जिसमें ब्राह्मण राजा बाजी राव द्वितीय के पेशवा शासन के खिलाफ ब्रिटिश सेना में अधिकतर दलित समुदाय के सैनिक शामिल थे.

भीमा-कोरेगांव की लड़ाई तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध का हिस्सा थी, जिसने ब्रिटिशों को पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से में अपना शासन स्थापित करने में मदद की. हालांकि, दलित समुदाय के लिए यह इतिहास छूआछूत के खिलाफ उनके संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण है.

सावले ने कहा, ‘मैंने हिंसा को करीब से देखा था. मेरे आसपास के लोगों को पीटा जा रहा था, वे खून से लथपथ थे. हमारे वाहनों को जला दिया गया और हमलावर खुलेआम अपने नेताओं संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के सम्मान में नारे लगा रहे थे. मेरी शिकायत में इन सबका स्पष्ट उल्लेख है, लेकिन पुलिस ने मामले में जांच में देरी करने की हर कोशिश की.’

मार्च 2018 तक पुलिस ने मामले में कोई कार्रवाई नहीं की थी. लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने एकबोटे को गिरफ्तारी पूर्व जमानत देने से इनकार कर दिया, तो पुलिस को मजबूरी में एकबोटे को गिरफ्तार करना पड़ा. एकबोटे ने एक महीने से भी कम समय जेल में बिताया और इसके बाद पुणे सत्र अदालत ने उन्हें जमानत दे दी. जबकि, भिड़े को कभी भी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया गया.

अनीता सावले.
अनीता सावले.

सावले ने कहा कि शिकायत दर्ज करने के कुछ दिनों बाद उनका बयान आईपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किया गया था. उन्होंने कहा, ‘शायद यही वह आखिरी समय था जब पुलिस ने मुझे जांच के लिए बुलाया था.’

शिकायत दर्ज कराए जाने के कुछ ही बाद ही मामले की दिशा पूरी तरफ से बदल दी गई. हिंदुत्ववादी समूहों के खिलाफ लगे शुरुआती आरोपों के बजाय तत्कालीन देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने पूरा आरोप वाम संगठनों पर डाल दिया.

इस तरह जून और अगस्त 2018 में पुणे पुलिस ने नौ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और वकीलों को गिरफ्तार किया.

सावले कहती हैं, मैंने अनुमान लगाया था कि उनके मामले की जांच को और दरकिनार किया जाएगा, इसलिए मैंने तत्काल सुनवाई की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. भीमा-कोरेगांव जाने वाले अम्बेडकरवादियों का किसी विचारधारा से कोई जुड़ाव न होने के बावजूद सरकार दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ की बहस खड़ी करने की कोशिश कर रही थी.

वह यह भी महसूस करती हैं कि भीमा-कोरेगांव मामले और एल्गार परिषद की घटना के बीच एक साफ अंतर करने की आवश्यकता है.

वह कहती हैं, ‘भीमा-कोरेगांव हिंसा में दलित बहुजन पर हमला किया गया था. एल्गार परिषद एक अलग घटना थी. जबकि पुलिस ने एल्गार परिषद मामले में कार्यकर्ताओं को गलत तरीके से निशाना बनाया वहीं भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद भी कई बहुजन युवाओं को अपराधी बना दिया गया.’

सावले ने जुलाई 2018 में बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष एक आपराधिक रिट याचिका दायर की थी, लेकिन अदालत के सामने सुनवाई के लिए केवल एक साल बाद आया.

उनके वकील योगेश मोरे ने कहा, ‘अदालत ने इसे तत्काल सुनवाई लायक नहीं माना और करीब एक साल बाद की तारीख के लिए याचिका को स्थगित कर दिया गया.’

16 सितंबर, 2019 को जब जस्टिस रंजीत मोरे और जस्टिस एनजे जमादार की खंडपीठ ने अंतत: जांच में प्रगति के बारे में पूछताछ की तो महाराष्ट्र राज्य की ओर से पेश होने वाली अतिरिक्त सरकारी वकील संगीता शिंदे ने कहा कि मामले की एफआईआर में जांच महत्वपूर्ण स्तर पर है.

उन्होंने आगे दावा किया कि इसे जल्द से जल्द पूरा करने के प्रयास किए जा रहे हैं और 11 नवंबर (2019) को अदालत के समक्ष एक रिपोर्ट दायर की जाएगी.

हालांकि, इसके बाद वहां भाजपा सरकार चली गई और शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार आ गई.

मोरे ने कहा, ‘तब से करीब एक साल होने वाले हैं. मौजूदा सरकार भी पूर्ववर्ती सरकार की तरह व्यवहार कर रही है.’

फरवरी 2018 में जाति आधारित दंगों की घटनाओं को देखने के लिए दो सदस्यीय भीमा-कोरेगांव जांच आयोग का गठन किया गया था, लेकिन इस साल अप्रैल में अचानक इसे निष्क्रिय बना दिया गया. जबकि मार्च में आयोग ने छह महीने विस्तार की मांग की थी.

मोरे ने कहा, ‘कम से कम आयोग हमारे लिए अपना मामला पेश करने का एक मंच था. जब पुलिस और अदालतों ने मामले को गंभीरता से नहीं लिया है, तो हम कम से कम अपना मामला आयोग के सामने पेश कर सकते थे, लेकिन राज्य सरकार ने इस प्रक्रिया को रोक दिया.’

एनसीपी नेता शरद पवार ने दो मौकों पर सार्वजनिक बयान दिया है कि सत्तारूढ़ सरकार इस मामले में एक स्वतंत्र न्यायिक जांच स्थापित करेगी, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ है.

वहीं, मोरे कहते हैं कि वे व्यर्थ के वादे हैं. उन्होंने कहा, ‘उनके हाथ में मामला है. अगर वे गंभीर हैं तो वे पहले ही इस मामले पर कार्रवाई कर चुके होते.’

बहरहाल, जहां राज्य सरकार लगातार अपने पैर पीछे खींच रही है वहीं कार्यकर्ताओं के खिलाफ एल्गार परिषद मामले की जांच अपने हाथ में लेने वाली राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) महामारी के बीच भी और लोगों की गिरफ्तारी में लगी है. इस मामले में अब तक 15 लोग जेल में बंद हैं.

अनीता सांवले कहती हैं कि पिछली सरकार ने वामपंथी झुकाव वाले कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने और उनका अपराधीकरण करने की कोशिश की जबकि वर्तमान सरकार की उनके मामले को देखने की अनिच्छा ने ही दलित समुदाय के न्याय पाने की आस को कमजोर बना दिया है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)