साम्राज्यवादी दौर की अंग्रेज़ी की तरह हिंदी का भी तेवर अलोकतांत्रिक हो चुका है.
हिंदी के ठेकेदारों की रुदाली का सिलसिला बहुत पुराना है. कभी उन्हें उर्दू से ख़तरा होता था, फिर वे अंग्रेज़ी के डाह में जलते रहे. आज कल उन्हें कथित हिंदी पट्टी की अन्य भाषाओं से डर लगने लगा है.
आलोक राय ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘हिंदी नेशनलिज़्म’ में हिंदी के इस पीड़ित होने के बोध के बारे लिखा है. उन्होंने रेखांकित किया है कि बरसों से हिंदी का इस्तेमाल गढ़े गये या वास्तविक ‘ख़तरे’ (उर्दू और अंग्रेज़ी) का प्रतिकार करने के लिए किया गया है. इस प्रक्रिया में इस भाषा को हिंदू सवर्ण जातियों तथा अन्य गुटों के एजेंडे को साधने के लिए अपहृत कर लिया गया.
राय ने लिखा है कि इसका नतीज़ा यह हुआ कि हिंदी पतन का शिकार हुई और उसने एक कृत्रिम भाषा का रूप धारण कर लिया जो आम बोलचाल से बिल्कुल अलहदा थी. इस किताब में हिंदी के इतिहास का विश्लेषण है.
यह विडंबना ही है कि हिंदी की महानता, विशिष्टता और राष्ट्रभाषा होने के दावे की पैरोकारी करने वाले किसी भी स्वयंभू विद्वान ने आज तक आलोक राय की बातों का जवाब नहीं दिया है, जबकि वह सत्रह साल पहले प्रकाशित हो चुकी है.
मुझे तो पूरा भरोसा है कि हिंदी बचाने के नाम पर मंच सजा रहे ठेकेदारों ने वह किताब पढ़ी ही नहीं है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यह किताब अंग्रेज़ी में है. यह बात मैं उन लोगों पर तंज़ के तौर पर नहीं कह रहा हूं, बल्कि उनके तर्कों में ही ऐसे संकेत हैं.
भोजपुरी और राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध कर रहा झुंड ख़ुद ही मानता है कि ऐसा करने से साम्राज्यवादी साज़िशों को फ़ायदा होगा, हिंदी की चिंदी-चिंदी हो जायेगी और अंग्रेज़ी का एकछत्र वर्चस्व स्थापित हो जायेगा.
ऐसे लोगों को मेरी सलाह है कि साम्राज्यवाद पर भी कुछ पढ़-लिख लें. इन ठेकेदारों की भाषा की बुनियादी समझ पर दुख भी होता है और हंसी भी आती है. कितनी थेथरई से इतनी बड़ी बात कही जाती रही है कि भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी, ब्रज आदि भाषाएं ‘हिंदी की बोलियां’ हैं! बहरहाल, हिंदी की विकास यात्रा और उसकी राजनीति पर फिर कभी चर्चा करेंगे. अभी मौज़ूदा बहस पर चर्चा को केंद्रित करने की कोशिश करते हैं.
स्पेन के कब्ज़े से फिलीपिंस की आज़ादी की लड़ाई में अपना बलिदान देने वाले जोस रिज़ाल ने कहा था कि अपनी ज़बान को बचाना अपनी आज़ादी के निशान को बचाना है.
वर्ष 2011 में जब अरब में तानाशाही के ख़िलाफ़ विद्रोहों का दौर शुरू हुआ था, तब लीबिया में एक बेहद ख़ास घटना घटी थी, जिससे भाषा के महत्व और उसे बचाने की ज़िद्द के बारे में ज़रूरी संदेश ग्रहण किया जा सकता है. इसे मैं कुछ विस्तार से उल्लिखित करना चाहूंगा.
अरब या उत्तरी अफ्रीका में अरबी कबीलों के साथ हज़ारों साल से मूल बाशिंदों की बड़ी संख्या बसर करती है. उन्हें आम तौर पर बर्बर जाति की संज्ञा दी जाती है जो कि अपमानजनक है.
ये जातियां अपने को सामूहिक रूप से अमाज़ीर कहती है जिसका मतलब होता है -आज़ाद लोग. बर्बर संज्ञा दरअसल रोमन और यूनानी ‘सभ्यताओं’ की उस सांस्कृतिक हेठी का फल है जो हर उस समुदाय को अपमानजनक नाम दे देती थी जिसकी संस्कृति को वे समझ नहीं पाते थे या जो उनके नियंत्रण को तोड़ने की कोशिशें करते थे.
आज के मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया और मॉरीतानिया की आबादी का बड़ा हिस्सा अमाज़ीर है तथा लीबिया और मिस्र आदि कई देशों में उनकी मौज़ूदगी है.
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इन सभी देशों में अरबी भाषा और संस्कृति की श्रेष्ठता के नाम पर अमाज़ीर लोगों को अपनी भाषा और संस्कृति के प्रयोग पर कठोर पाबंदियां हैं और उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता है.
लीबिया में कर्नल गद्दाफ़ी के बयालीस सालों की तानाशाही में उन्हें साफ़ आदेश था कि वे अपनी ज़बान नहीं बोल सकते, पारंपरिक पोशाक नहीं पहन सकते, अपने तरीके से नाच और गा नहीं सकते थे. यहां तक कि उन्हें अपनी भाषा में अपना नाम रखने की भी मनाही थी. उन्हें सब-कुछ अरबी ढंग से करना था.
कभी-कभार किसी ने अगर हुक्म मानने में कोताही की तो उसे दंड का भागी होना होता था जिसमें मौत की सज़ा भी शामिल थी. गद्दाफ़ी के क़हर से अमाज़ीर संस्कृति किसी अंधेरे कोने में छुप गयी थी.
ख़ैर, वक़्त का चक्का घूमता रहता है. ग़द्दाफ़ी के ख़िलाफ़ लड़ रहे अरबी समूहों को अमाज़ीरों का साथ भी मिला. युद्ध के दौरान ही नफ़ूसा पहाड़ियों में बसा जादू नामक क़स्बा अमाज़ीर के फिर से उजास में आने का केंद्र बना.
दीवारों पर अमाज़ीर में नारे लिखे गये, दुकानों की पट्टियां बदल दी गयीं, एक रेडियो स्टेशन अरबी के साथ अमाज़ीर में भी प्रसारण करने लगा और विद्रोह के शुरुआती दिनों में ही एक प्रकाशन ने इस भाषा में चार किताबें भी छाप दीं.
ग़द्दाफ़ी ने अपनी तानाशाही के पहले सालों में कहा था कि जो लोग अमाज़ीर भाषा सीख रहे हैं वे ‘अपनी मां के स्तन से ज़हरीला दूध’ पी रहे हैं. आज जादू में अमाज़ीर सीखने का विद्यालय भी खुल गया है.
तानाशाह की सनक का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि नफ़ूसा पहाड़ियों के इलाक़े को उसके नक़्शे पर बस पश्चिमी पहाड़ियां लिखा जाता था. विद्रोह के दिनों में ग़द्दाफ़ी का प्रचार-तंत्र आसपास के इलाक़ों में कहता रहा था कि पहाड़ों से बर्बर हमले करने वाले हैं.
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आज भोजपुरी और राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता मिल जाने से हिंदी के पतन का भय पाले लोगों को लीबिया की घटना पर विचार करना चाहिए. कुछ भाषाओं, विचारों, जीवन-शैलियों और धार्मिक मान्यताओं की श्रेष्ठता का दावा कर अनेकों संस्कृतियों का दमन मानवता के हित में नहीं है.
जिस अखंडता की चिंता हिंदी बचाओ मंच कर रहा है, उसे यह भी समझना होगा कि अखंडता पर आंच उनके रवैये से आयेगी. भाषाओं के विकास और प्रसार से सहभागिता बढ़ती है, एका को बल मिलता है.
‘देश की व्यापक प्रबुद्ध जनता’ के नाम पर गृह मंत्री को सौंपे गये ज्ञापन की शैली इंगित करती है कि यह ठेकेदारी वैचारिकी और तर्क के लिहाज़ पूरी तरह पैदल है.
वायर पर ही छपे मंच के एक बौद्धिक के लेख से यह पंक्ति उद्धृत कर रहा हूं- ‘हम हिंदी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं. इन सबको हटा देने पर हिंदी साहित्य में बचेगा क्या?’
बात तो सही है कि बचेगा क्या. तो आप सोचिये न कि जिन्हें आप ‘हिंदी की बोलियां’ कह कर हाशिये पर धकेलते रहे हैं, उनके रचनाकारों के अलावा आपने इन अनेक दशकों में क्या लिखा-रचा कि ये दस-बीस नाम हट जायेंगे, तो आपकी हिंदी उजाड़ हो जायेगी?
आपने इन्हें हिंदी में लपेट लिया, तो यह भी बतायें कि उनके बाद के इन भाषाओं में लिखने वालों को आपकी हिंदी में वैसी जगह क्यों नहीं मिल सकी? क्या इन भाषाओं में बीते सात दशकों में कुछ साहित्य लिखा ही नहीं गया?
ध्यान रहे, भाषाओं को सम्मान दिलाने के पक्षधर हिंदी के विरोधी नहीं हैं. हिंदी हमारी ही भाषा है. लेकिन, अगर हिंदी के स्वघोषित सेनापति और लड़ाके अन्य भाषाओं पर हावी होने या हिंदी को ज़ोर के दम पर थोपने-लादने की जुगत करेंगे, तो सच में हिंदी ख़तरे में पड़ जायेगी.
बार-बार अंग्रेज़ी के नाम पर आपने बहुत डरा लिया. असल बात यह है कि साम्राज्यवादी दौर की अंग्रेज़ी की तरह हिंदी का भी तेवर अलोकतांत्रिक हो चुका है.
कूपमंडूक मत बनिये. दिलो-दिमाग़ के खिड़की-दरवाज़े खोलिये. बार-बार हिंदी की अस्मिता को देश की अस्मिता के साथ नत्थी करने की बदमाशी भी ठीक नहीं हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)