बिहार समाज कल्याण विभाग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे राज्य में केवल पटना, पूर्णिया, रोहतास, भागलपुर, पश्चिम चंपारण और बेगूसराय में सरकार प्रायोजित वृद्धाश्रम संचालित हैं, जबकि नियम ये है कि राज्य सरकारें हर ज़िले में कम से कम एक वृद्धाश्रम की स्थापना करेंगी.
पूर्णिया: ‘मां-बाप अरजकर (कमाई कर) संपत्ति जमा करते हैं और बेटा इसे लेकर माता-पिता का मान-प्रतिष्ठा को नहीं रखता. जहां संपत्ति हाथ लग गई. इसके बाद उसका अपना मन हो जाता है. मेरे तीन बेटे हैं. सभी बिजनेसमैन है. फिर भी हमको यहां (वृद्धाश्रम) में रहना पड़ रहा है.’
बिहार के पूर्णिया स्थित ततमा टोली में रहने वाले कालू दास अपनी आप-बीती हमें बताते हैं. वे पिछले पांच साल से एक एनजीओ की मदद से बिहार सरकार द्वारा संचालित वृद्धाश्रम- ‘सहारा’ में रह रहे हैं.
वे हमें बताते हैं, ‘करीब 10 साल पहले आपसी झगड़े के चलते हम अपनी पत्नी के साथ बच्चों से अलग हो गए थे. साल 2015 में पत्नी नहीं रहीं. उस समय मेरे पास लाख-सवा लाख रुपये थे. इनमें से 50-60 हजार पत्नी के अंतिम संस्कार में खर्च कर दिए और जो पैसा बचा था, उसे बेटा सब जबरदस्ती ले लिए. इसके बाद हम पड़ोसी के साथ यहां चले आए और तब से यहीं हैं.’
कालू दास की तरह ही पूर्णिया स्थित ‘सहारा’ में कुल 34 बेसहारा बुजुर्गों को आश्रय मिला हुआ है. इस वृद्धाश्रम का संचालन एनजीओ- ‘मिल्ली एजुकेशनल एंड वेलफेयर सोसायटी’ द्वारा किया जा रहा है.
इस आश्रम में अधिकतम 50 लोग रह सकते हैं. लेकिन इसकी अधीक्षक ममता सिंह हमें बताती हैं कि कभी-कभी 50 से अधिक संख्या होने पर भी कुछ को भर्ती कर लिया जाता है.
वे कहती हैं, ‘कुछ जरूरतमंद और बेसहारा बुजुर्ग आते हैं, अब हम उन्हें वापस तो नहीं कर सकते हैं.’
बिहार समाज कल्याण विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2019-20) की मानें तो पूरे राज्य में केवल पटना, पूर्णिया, रोहतास, भागलपुर, पश्चिम चंपारण और बेगूसराय में सरकार प्रायोजित वृद्धाश्रम- ‘सहारा’ संचालित हैं.
इनमें पटना में स्थित वृद्धाश्रम की क्षमता 100 है. बताया जाता है कि बाकियों की क्षमता 50 के आसपास ही है. यानी पूरे राज्य में सरकार प्रायोजित वृद्धाश्रमों में रहने वाले बुजुर्गों की संख्या 400 से भी कम है.
अगर बिहार में 60 साल से ऊपर की आबादी को देखें तो ये आंकड़ा उसके सामने कुछ नहीं हैं.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या 77 लाख से अधिक थी. वहीं, पूरे देश के लिए यह आंकड़ा 10.38 लाख है.
हालांकि, माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याण कानून-2007 की धारा-19 में यह साफ शब्दों में कहा गया है कि राज्य सरकारें हर जिले में कम से कम एक वृद्धाश्रम की स्थापना करेगी. साथ ही, इसे संचालित भी करेंगी.
पिछले साल 12 जून को एनजीओ की मदद से केवल छह वृद्धाश्रम चलाने वाली नीतीश सरकार ने फैसला लिया था कि राज्य में जो संतान अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करेंगे, शिकायत के आधार पर आधार पर आपराधिक मामला दर्ज किया जाएगा.
Bihar Cabinet-led by CM Nitish Kumar yesterday approved a proposal to punish with a jail term sons & daughters who abandon their elderly parents. The proposal has provisions of punishments which could go up to imprisonment if wards don't look after their aged parents properly pic.twitter.com/y7z65AOTOD
— ANI (@ANI) June 12, 2019
इसकी जानकारी देते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना था, ‘समाज में कुल लोग अजीब होते हैं. वे अपने माता-पिता तक का ध्यान नहीं रखते. इस वजह से ही हमें ऐसा कानून लाना पड़ा है, ताकि घर और समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा न हो और उनकी समुचित देखभाल हो सके.’
केंद्र और राज्य से फंड की कमी
हालांकि खुद नीतीश सरकार इनकी देखभाल के लिए कितनी गंभीर है? इसे सरकारी रिपोर्ट और आंकड़ों से ही जानने की कोशिश करते हैं.
समाज कल्याण विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2019-20) में इस बात की जानकारी दी गई है कि वृद्धाश्रम ‘सहारा’ के लिए पिछले वित्त वर्ष में कुल छह करोड़ रुपये आवंटित किया गया था, लेकिन इसमें से केवल 85 लाख रुपये ही खर्च किए गए.
एक तरफ तो बिहार सरकार बेसहारा वृद्धों के लिए जितनी रकम आवंटित करती है उसका बड़ा हिस्सा खर्च नहीं कर पाती हैं. दूसरी ओर इसके लिए केंद्र सरकार से भी बिहार को काफी कम रकम मिलती है.
तीन जुलाई, 2019 को राज्यसभा में दिए गए एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया था कि वित्तीय वर्ष 2016-17 में बिहार को वृद्धाश्रम के संचालन के लिए कुल 10.60 लाख रुपये दिए गए थे. इससे लाभान्वित होने वाले बुजुर्गों की संख्या केवल 50 थी.
साल 2017-18 में लाभार्थियों की यह संख्या घटकर केवल 25 रह जाती है और 8.42 लाख की रकम आवंटित की जाती है. इसके अगले साल (2018-19) में यह आंकड़ा बढ़कर 20.84 लाख रुपये और बुजुर्गों की संख्या 100 हो जाती है.
वृद्धाश्रम के लिए जरूरत के मुताबिक फंड न मिलने और जितनी रकम सरकार आवंटित करती है, उसका भी खर्च न हो पाने से वृद्धाश्रम में रहने वाले और यहां काम करने वाले को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
ममता सिंह हमें बताती हैं, ‘अभी जिस बिल्डिंग में हम लोग वृद्धाश्रम चला रहे हैं, उसका किराया 50,000 रुपये प्रति माह देना होता है. लेकिन सरकार की ओर से इसके लिए केवल 15,000 रुपये तय है. इसके चलते हमें दूसरे मदों से से इसको बैलेंस करना होता है.’
इसके अलावा वे बताती हैं कि वृद्धाश्रम के कर्मचारियों की सैलरी भी काफी कम है. एक सफाईकर्मी केयरटेकर को केवल चार-चार हजार रुपये प्रतिमाह मिलते हैं. वहीं, एएनएम (नर्स) और ऑफिस सहायक को भी हर 5,000 रुपये से संतोष करना पड़ता है.
पिछले पांच साल से बुजुर्गों की स्वास्थ्य का ध्यान रखने वाली सिस्टर योगमाया देवी कहती हैं, ‘2014 में जो सैलरी तय 5,000 रुपये तय हुई थी, उसे अब तक नहीं बढ़ाया गया है. बहुत सारे लोग (संबंधित अधिकारी) आते हैं, पूछकर जाते हैं. सब कहते हैं कि आगे बढ़ेगा, लेकिन सैलरी अब तक नहीं बढ़ी है.’
वृद्धाश्रम की ऑफिस सहायक रेणु कुमारी की भी शिकायत सैलरी कम होने और छुट्टी न होने को लेकर है.
वे कहती हैं, ‘घर से दफ्तर आने और फिर वापस जाने में ही महीने का 2,000 रुपये खर्च हो जाता है. इतनी कम सैलरी में हमें काफी मुश्किलों का सामना करना होता है.’
वे बताती हैं कि ये सैलरी भी दो-तीन महीने बाद मिलती है. पहले तो इसमें साल-डेढ़ साल लग जाते थे.
वृद्धाश्रम में कम पैसे में काम करने वालों में केवल यहां के कर्मचारी ही नहीं हैं. ममता सिंह बताती हैं कि हफ्ते में एक फिजियोथेरेपिस्ट और एक एमबीबीएस डॉक्टर आते हैं. उन्हें भी एक विजिट के लिए 500 और 1,000 रुपये मिलते हैं.
उनका कहना है कि इतने कम पैसे में कौन डॉक्टर आते हैं, वह तो सामाजिक सेवा की बात होने के चलते आ जाते हैं.
कम फंडिंग होने का खामियाजा यहां के बुजुर्गों को भी सहना पड़ता है. छाया देवी पिछले दो साल से ‘सहारा’ वृद्धाश्रम में रह रही हैं. वे गरीब परिवार से आती हैं.
वे बताती हैं कि सरकार की ओर से 400 रुपये प्रतिमाह पेंशन मिलता है. इससे वे अपना खुद का खर्च चलाती हैं. इसमें कपड़े, चप्पल और साड़ी खरीदने के साथ दूध भी खरीदना शामिल है.
केंद्र की योजनाओं में बिहार की हिस्सेदारी कम
एक अप्रैल, 2017 को केंद्र सरकार ने देश के वरिष्ठ नागरिकों के लिए राष्ट्रीय वयोश्री योजना शुरू की थी. इस योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे के बुजुर्गों को अधिक उम्र में होने वाली बीमारियों- चलने में तकलीफ, कम दिखाई देना, बहरापन और मुंह में दांत न होने के लिए सहायता उपकरण दिए जाते हैं.
इस योजना के तहत साल 2018 से 16 सितंबर, 2020 तक बिहार के 38 में से केवल चार- भोजपुर (आरा), बक्सर, गया और बेगूसराय के 2,422 बुजुर्गों को ही इसका फायदा मिल पाया है.
वहीं, बीते 11 मार्च को केंद्र सरकार ने राज्यसभा में इसकी जानकारी दी थी कि पिछले दो वर्षों में इंटिग्रेटेड प्रोग्राम फॉर सीनियर सिटिजंस के तहत पूरे देश में 104 वृद्धाश्रमों की स्थापना को मंजूरी दी गई है. लेकिन राज्य सरकार की अनदेखी के शिकार बिहार के बुर्जुगों को इसमें से एक भी वृद्धाश्रम नसीब नहीं हुआ है.
साल 2018-19 में केंद्र सरकार से चार वृद्धाश्रमों के लिए कुल 20.84 लाख रुपये मिले थे, लेकिन 2019-20 में एक रुपया भी नहीं मिला है.
देश की आबादी में बुजुर्गों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ती जा रही है. जनगणना-1991 में यह 6.8 फीसदी थी. इसके 10 साल बाद यह बढ़कर 7.5 फीसदी हो गई. वहीं, 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल आबादी में 8.6 फीसदी की उम्र 60 साल से अधिक थी.
वृद्धाश्रम में रह रहीं अररिया के कुर्साकांटा की रहने वाली अरुणा देवी को पोलियो है. पैर में तकलीफ रहती है. अधिक चल फिर भी नहीं सकतीं. उनका एक बेटा है, लेकिन वे उनके साथ नहीं रहती हैं.
अरुणा कहती हैं, ‘बहू कहती थी कि हम नहीं करेंगे सेवा. इसी दुख से यहां चले आए. मेरी वापस घर जाने का इच्छा होती है, लेकिन बेटा अपनी पत्नी से लाचार है. वह नहीं चाहती है कि मैं घर में रहूं. वह अकेले रहना चाहती है.’
वे आगे बताती हैं, ‘बेटा हमसे पूछता था कि किराये के घर में रहोगी मां, लेकिन हम बनाकर खा नहीं सकते हैं. भाड़े पर अकेले कैसे रहते. जिस दिन भगवान का मन होगा चले जाएंगे. अब मन तो होता है कि कब चले जाएं… जीने की अब इच्छा नहीं रहती.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)