ग्राउंड रिपोर्ट: मध्य प्रदेश के श्योपुर में कुपोषण के लिए जिम्मेदार कौन?

अ​धिकांश लोगों को पता ही नहीं है कि कुपोषण होता क्या है?

/

अधिकांश लोगों को पता ही नहीं है कि कुपोषण होता क्या है?

malnutrition 4
मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में संचालित एनआरसी. (फोटो: दीपक गोस्वामी)

(मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में कुपोषण के हालात का जायजा लेने वाली रिपोर्ट की दूसरी व अंतिम कड़ी)

मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में कुपोषण की भयावहता का सबसे बड़ा कारण गरीबी ही है. गरीबी के चलते आदिवासी समुदाय पहला तो अपने बच्चों को भरपूर पोषण नहीं दे पाता, दूसरा कि उसके पास कोई स्थायी रोजगार नहीं है. वह परिवार का पेट पालने की जद्दोजहद में बच्चों के स्वास्थ्य की अनदेखी कर लगातार पलायन करता रहता है. झरेर गांव का ऐसा ही एक मामला प्रकाश में आया.

आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मुन्नी बाई के अनुसार, ‘27 मई को एनआरसी में भर्ती कराए गए 16 बच्चों में से नौ झरेर गांव के थे. वास्तव में उस समय तक झरेर में 18 बच्चे ऐसे अतिकुपोषित थे जिन्हें एनआरसी की जरूरत थी. लेकिन किसी भी बच्चे के मां-बाप उन्हें लेकर जाने तैयर नहीं थे. कोई अपने दूसरे बच्चों की देखभाल का हवाला दे रहा था कि उनके जाने के बाद बाकी बच्चों का ख्याल कौन रखेगा तो कोई काम के सिलसिले में पलायन करने की तैयारी में था.’

पहली कड़ी: ‘भारत के इथोपिया’ का दर्जा पा चुके मध्य प्रदेश के श्योपुर में कुपोषण का कहर

मुन्नी देवी ने ये सूचना बड़े अधिकारियों तक पहुंचाई, तब पुलिस की सहायता से नौ बच्चों को एनआरसी पहुंचाया गया. बाकी छह बच्चों के परिजन तब भी नहीं आये. इस समय तक तीन अतिगंभीर कुपोषित बच्चों के मां-बाप उन्हें साथ लेकर रोजगार की तलाश में कहीं और पलायन कर चुके थे.

अपने ही बच्चों के स्वास्थ्य की अनदेखी कर मां-बाप उन्हें इस तरह इलाज न कराकर मौत के मुंह में धकेल सकते हैं, यह बात गले नहीं उतरती. लेकिन ग्रामीणों और स्थानीय कार्यकर्ताओं से बात करने पर हमें पता लगा कि यहां का आदिवासी यह मानकर जीवन जीता है कि एक न एक दिन उनके बच्चे मरने ही हैं.

इसलिए वह कई बच्चे पैदा करता है. ताकि 1-2 मर भी जाएं तो बाकी का सहारा रहे. इसीलिए वो अपने बच्चों के स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देता. वे इसे भी कुपोषण का एक सबसे बड़ा कारण बताते हैं.

वीरेंद्र कहते हैं, ‘गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी के चलते आदिवासी अपने बच्चों का पेट भरने में असमर्थ है. तब भी लगातार बच्चे पैदा करता है. एक बच्चा गर्भ में है, एक दूध पी रहा है, एक डेढ़ दो साल का नीचे खेल रहा है और एक स्कूल जाने की तैयारी कर रहा है. इस तरीके से लगातार बच्चे होते हैं. गैप कम मिलता है जिससे न तो बच्चे को मां का पर्याप्त दूध मिल पाता है और न ही उसकी देखरेख हो पाती. वह कुपोषण की ओर बढ़ने लगता है. लगातार बच्चे करने से मां भी कमजोरी का शिकार होकर कुपोषण की गिरफ्त में आ जाती है. फिर एक कुपोषित मां कुपोषित बच्चे को ही जन्म देती है.’

अशिक्षित आदिवासियों को नहीं पता कि कुपोषण क्या है?

ऐसा भी नहीं है कि उन्हें अपने बच्चों की फिक्र बिल्कुल ही न हो. बीमार होने पर वे बच्चे को डॉक्टर को दिखाते तो जरूर हैं पर सरकारी अस्पताल न आकर आसपास के झोलाछाप या बंगाली डॉक्टरों पर पहुंचते हैं. सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर उन्हें यकीन नहीं है.

उन्हें हमेशा डर रहता है कि कहीं वे बच्चे को एनआरसी में भर्ती न कर लें. इसके अतिरिक्त इलाज के नाम पर वे घरेलू नुस्खों और तंत्र-मत्र-ताबीजों पर यकीन रखते हैं. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि जिस कुपोषण पर देशभर में बात होती है, उससे प्रभावितों को पता ही नहीं कि कुपोषण क्या है?

श्योपुर एनआरसी में भर्ती सलापुर गांव की गुड्डी का बेटा 4 महीने का है. पर उन्हें पता ही नहीं था कि उनके बच्चे को क्या हुआ है? उन्हें तो 10 दिन पहले आंगनबाड़ी कार्यकर्ता यह कहकर एनआरसी ले आयीं कि उनका बच्चा कमजोर है, 15 दिन अस्पताल में रखेंगे. रहना-खाना फ्री होगा और पैसे भी मिलेंगे. बच्चा कैसे कमजोर हुआ, कुपोषण क्या होता है! इसका जवाब भी उनके पास नहीं था.

कुछ ऐसा ही हाल डेढ़ साल के अनुराग की दादी आनंदी बाई का था. अनुराग को कुपोषण के चलते करीब तीन महीने पहले कराहल की एनआरसी में भर्ती कराया गया था. अनुराग की मां नीरज अपनी सास और अन्य परिजनों को बिना बताए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के साथ भर्ती होने एनआरसी चली गयी थीं.

आनंदी बाई कहती हैं, ‘पैसों का लालच देकर वो बहू को ले गयीं. कुछ नहीं हुआ था बच्चे को. बस दांत निकल रहे थे तो थोड़ी कमजोरी आ गयी थी. हम यहीं इलाज करके उसे ठीक कर लेते.’ एनआरसी में भर्ती अन्य बच्चों की मां का भी ऐसा ही सोचना था.

जब हम अनुराग से मिले तब भी उसकी तबीयत दुरुस्त नहीं थी. उसकी मां और दादी का कहना था कि उसके दांत निकलने के चलते वह दस्त कर रहा है. उसने गले में एक काले कपड़े की माला पहन रखी थी. जिसके बारे में पूछने पर बताया गया कि ये फिर से कमजोरी से सूखना शुरू न कर दे इसलिए पहना रखी है.

जहां तक पैसों के लालच की बात है तो ऐसा प्रावधान है कि हर मां को बच्चे के साथ एनआरसी में 14 दिन रुकने के लिए 1,680 रुपये प्रोत्साहन राशि के तौर पर भुगतान किए जाते हैं. वहीं हर फॉलोअप का 220 रुपये मिलता है.

नियामानुसार एनआरसी से छुट्टी के बाद हर 15 दिन में मां बच्चे के स्वास्थ्य फॉलोअप के लिए वापस वहां जाती है. ऐसे कुल चार फॉलोअप होते हैं ताकि एनआरसी से छूटने के बाद भी बच्चे के स्वास्थ्य पर नजर बनी रहे. यह प्रोत्साहन राशि एक बड़ा कारण है जिसके लालच में अभिभावक अपने बच्चों को एनआरसी लेकर आते हैं. लेकिन यहां भी विसंगतियों का बसेरा है.

प्रोत्साहन राशि का पैसा भी महिलाओं को मिल नहीं रहा है. अनुराग की मां नीरज कहती हैं, ‘वहां बच्चे की तबीयत ठीक तो हुई. वापस आते वक्त उन्होंने बताया कि बच्चे को क्या खिलाना है! मैंने खिलाया. सोचा कि जब पैसा मिलेगा तो पोषण का सामान इकट्ठा खरीदकर रख लूंगी. मेरे चारों फॉलोअप हो गए, लेकिन अब तक पैसा नहीं मिला.’

नीरज की सास आनंदी बाई कहती हैं, ‘हम तो इसे भेज ही नहीं रहे थे. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता रोज आकर जिद करती थीं. ये बिन बताए उनके साथ कब चली गयी, पता ही नहीं चला. घर पर सब बहुत गुस्सा हुए. पैसे का लालच दिया उन्होंने लेकिन पैसा भी नहीं मिला. यहां रहती तो कुछ काम-धाम करके घर खर्च में हाथ बंटाती.’

अजय कहते हैं, ‘ये लोग बच्चों को एनआरसी नहीं भेजते क्योंकि इनका एक बच्चा तो होता नहीं, तीन-चार होते हैं. अगर मां एक को लेकर एनआरसी पहुंच जाएगी तो बाकी की देखभाल कौन करेगा? एनआरसी में तो सिर्फ मां और बच्चे को भोजन मिलेगा. जो घर पर बच्चे हैं, उन्हें तो नहीं मिलेगा न. दूसरी बात जितने दिन वे एनआरसी रहेंगी, काम छोड़ना पड़ेगा. गरीबी के चलते अगर ये लोग एक दिन काम न करें तो भूखे मर जाएंगे. इसलिए इन्हें एनआरसी लाने के लिए 14 दिन का भुगतान भी किया जाता है और हर फॉलोअप का भी. लेकिन यहां भी दिक्कत है कि कितनी ही महिलाओं को पैसा अब तक नहीं मिला.’

इस पर जब हमने जिम्मेदार अधिकारियों से बात की तो उन्होंने पैसा समय पर न पहुंचने की बात से इंकार कर दिया. लेकिन स्वास्थ्य विभाग के ही एक सुपरवाइजर जो जिले भर में कुपोषण के मामले में सरकारी प्रयासों पर नजर रखते हैं, नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘पैसा खाता भुगतान चैक के जरिए हितग्राहियों को भेजा जाता है. लेकिन समस्या यह है कि इन लोगों के बैंक खाते ही नहीं हैं. 194 चैक तो महीनों से हमारे पास ही पड़े-पड़े एक्सपायर हो गये.’

उनके सहयोगी बोलते हैं, ‘बैंक खाते तो तब बनेंगे जब इनके आधार और वोटर कार्ड बनें. वही नहीं बने हैं. पूरी तरह से अशिक्षित आबादी है ये. सरकारी योजनाओं की जानकारी इन्हें है नहीं और जिम्मेदार सरकारी विभाग यहां पहुंचते नहीं.’

सुपरवाइजर कहते हैं, ‘कहने को तो मोदी जी ने सबके खाते खुलवा दिए हैं. मप्र सरकार ने भी कह दिया कि इतने प्रतिशतों के खाते खुले हैं. पर धरातल पर जाकर देखो तो आधों के भी खाते नहीं हैं.’

भुगतान का प्रावधान आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी है. वे जितने कुपोषित बच्चे एनआरसी लाती हैं, प्रत्येक बच्चे का 120 रुपये के हिसाब से उन्हें भुगतान होता है. लेकिन इसमें भी एक शर्त यह है कि वह बच्चा 14 दिन एनआरसी में टिके और चार फॉलोअप पूरे करे. लेकिन ऐसा कम ही हो पाता है. कुपोषित बच्चे को उसकी मां पुलिस और प्रशासन के दबाव में एनआरसी तो ले आती है लेकिन मौका देखते ही वहां से भाग जाती है. इससे आंगनबाड़ी कार्यकर्ता भुगतान की पात्र नहीं रहतीं.

एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताती हैं, ‘नौकरी से महीने का बस पांच हजार मिलता है. कुपोषित बच्चों को एनआरसी पहुंचाने उनके घर कई-कई चक्कर लगाने होते हैं. क्योंकि कोई भी महिला 14 दिन के लिए एनआरसी जाना नहीं चाहती है. उनके आने-जाने का किराया तक देते हैं और पान-पुड़िया का खर्च भी. जब आखिर में पैसों का लालच और पुलिस का भय दिखाया जाता है तो वे आ तो जाती हैं पर 14 दिन के भीतर ही भाग जाती हैं या फॉलोअप को ही नहीं आतीं. इस तरह हमारी गांठ का ही उन्हें लाने में लग जाता है पर मिलता कुछ नहीं. इसी कारण कई कार्यकर्ताएं अपने काम के प्रति लापरवाही भी बरतती हैं.’

बच्चों के मरने के डर से कई बच्चों को जन्म देना, इलाज के तौर पर टोने-टोटकों और घरेलू इलाज पर निर्भर रहना, कुपोषण की जानकारी न होना, पैसों के लालच में ही बच्चों को अस्पताल ले जाना. इऩ सभी समस्याओं को सीधे तौर पर अशिक्षा से जोड़कर देखा जा सकता है.

अशिक्षा से वास्ता रखने वाले ऐसे कई और कारण हैं जो कुपोषण के जनक हैं. जैसे कि कम उम्र में शादी होना, कच्ची उम्र में गर्भ ठहरना, बच्चे को मां को दूध न मिलना आदि. इस सबको शिक्षा का प्रसार करके दूर किया जा सकता है लेकिन कुपोषण से लड़ने के सरकारी प्रयास जिले में कुपोषित बच्चों को खोजने और उन्हें स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने तक ही सीमित हैं.

malnutrition 6 pti
(प्रतीकात्मक तस्वीर: पीटीआई)

श्योपुर के एक स्वास्थ्यकर्मी बताते हैं, ‘बच्चे को बुखार आने पर वे तीन-तीन तक बच्चे को घर पर उनके सिर पर पानी की पट्टी लगाकर रखते हैं. इलाज नहीं कराते. डॉक्टर से सुई नहीं लगवाते, झाड़-फूंक करके इलाज ढूढ़ते हैं. इस चक्कर में इनके बच्चे ही नहीं व्यस्क भी मर जाते हैं. यह शिक्षा का ही तो अभाव है. केवल स्वास्थ्य सेवाएं दुरुस्त करने से समस्या का हल नहीं होगा.’

बकौल स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी जिनका काम जिले में स्वास्थ्य सेवाओं की निगरानी करके, समस्या का कारण आला अधिकारियों तक भेजना है, ‘धेंगदा गांव में अभी 25 मई को प्रसव के समय मां मर गयी. धेंगदा और अस्पताल एक किलोमीटर की दूरी है. प्रसव के लिए वहां नहीं ले गये, घर पर ही करा दिया. जबकि अस्पताल निशुल्क है, उल्टा प्रसव के एवज में पैसे मिलते हैं. लाने-ले जाने के लिए जननी एक्सप्रेस की सुविधा निशुल्क है. बस उन्हें आना ही नहीं है. जो बच्चा हुआ उसकी भी हालत गंभीर थी, पर वे उसे अस्पताल नहीं ले जा रहे थे. तब हम जबरन लेकर गये, आज वो ठीक है. मतलब की स्वास्थ्य के लेकर लोग जागरूक ही नहीं हैं.’

सचिन जैन इसके इतर एक और बात कहते हैं, ‘वे जाना नहीं चाहते क्योकि वहां उन्हें सही इलाज नहीं मिलता, व्यवहार अच्छा नहीं होता. पूरी सुविधाएं वहां नहीं होतीं. इसलिए उनका मन खट्टा पड़ जाता है. साथ ही उन्होंने यह भी देखा है कि एनआरसी से लौटकर भी बच्चे मर जाते हैं. कुल मिलाकर आप उनमें विश्वास ही नहीं जगा सके हैं. सरकार को बस यह लगता है कि कम से कम उन्हें एनआरसी लाया जा सके. ताकि कह सकें कि जब वे गंभीर स्थिति में थे, हम तो लेकर आये थे. ठीक करके भेजा था. बाद में अन्य कारणों से मर गये.’

वीरेंद्र कहते हैं, ‘आप कितनी भी योजना बना लीजिए, जब तक वे सहयोग नहीं करेंगे, आप सफल नहीं होंगे. उनमें जागरूकता का अभाव है, वे अशिक्षित हैं. उन्हें पहले बैठाकर समझाना होगा कि उक्त योजना आपके हित में है, इससे आपको ये लाभ मिलेगा. उन्हें शिक्षित करना होगा कि मान लीजिए 100 में से 10 को समझाने में भी आप सफल हो गये तो जब उन्हें उनके बच्चे स्वस्थ दिखेंगे तो व सभी आपका सहयोग करेंगे. लेकिन यहां तो बस योजना ला दी जाती है. बाकी सब आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के भरोसे छोड़ दिया जाता है. वे भला कितना समझा पाती हैं.’

शिक्षा घोटाला बाधक है उनके शिक्षित होने में

वहीं, शिक्षा के मामले में कहा जाता है कि मां-बाप भले ही पढ़े न हों लेकिन बच्चे पढ़कर उनकी सोच बदलते हैं. पर जब शिक्षा के मंदिर में भ्रष्टाचार देवता बनकर बैठा हो तो नयी पीढ़ी भी भला कैसे शिक्षित होगी! और समाज की सोच बदल सकेगी.

वीरेंद्र बताते हैं, ‘ये लोग फरवरी से अप्रैल के बीच पलायन करते हैं. यही वे महीने हैं, जब बच्चों की वार्षिक परीक्षाएं होती हैं. वे बच्चा मां-बाप के साथ पलायन कर जाता है और परीक्षा के बाद वापस आता है. लेकिन परीक्षा परिणाम आने पर वह पास भी हो जाता है. बिन परीक्षा दिए ही वह कक्षा दर कक्षा पास होता रहता है. बिन परीक्षा में बैठे कैसे पास हो रहा है! कौन उसकी कॉपी लिखता है? वे पास हो रहे हैं क्योंकि शिक्षक की मजबूरी है 100 प्रतिशत रिजल्ट देने की. वरना वेतन वृद्धि रोक दी जाती है. उनकी भी दस तरीके की समस्या हैं इसलिए बच्चों को पास करना ही पड़ेगा. उसकी उपस्थिति दर्ज करनी पड़ेगी. बताइए ऐसे बच्चे की नींव कैसे मजबूत रहेगी. क्या वो 10वीं, 12वीं कक्षा में पहुंच सकेगा? पूरे कराहल ब्लॉक में देखा जाए तो शिक्षा का स्तर न के बराबर है. इस तरह शिक्षा के सहारे भी कुपोषण के कारणों पर फतह पाना कम ही मुमकिन है.’ ऐसा भी नहीं हैं कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता प्रयास नहीं करतीं.

मुन्नी बाई बताती हैं, ‘हम मांओं को साफ-सफाई से रहने की सीख देते हैं. रोज खुद भी नहाने और बच्चे को भी नहलाने का सुझाव देते हैं. लेकिन वे जवाब दे देती हैं कि पीने का पानी नहीं और आप नहाने की बात करती हैं. बताइए अब आंगनबाड़ी कार्यकर्ता क्या करे? जब कुपोषण से बच्चा मरता है तो जिम्मेदारी हम पर डाल दी जाती है. लेकिन आप लोगों को पीने का पानी नहीं देंगे तो वे कुपोषित ही तो होंगे, मरेंगे ही तो. झरेर के लोग गंदा पानी पीने को मजबूर हैं. एक बोरिंग है, वो भी खराब हो गयी है. तीन हैंडपंप में से दो ने काम करना बंद कर दिया है. 1,045 लोगों की आबादी अब एक हैंडपंप पर निर्भर है. और ये आज के नहीं, 20 साल से यही हालात हैं.’

झरेर वही गांव है जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया था, जहां से 16 कुपोषित बच्चे मिले थे. इस गांव तक पहुंचने के लिए न सड़क है और न कोई साधन.

स्थानीय लोगों के अनुसार, इस कारण भी वे समय पर स्वास्थ्य लाभ नहीं पा पाते. बच्चे को एनआरसी न भेजने का एक कारण यह भी है कि परिजन इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि वे देखने तो जा नहीं पाएंगे, पता नहीं वहां बच्चे और उसकी मां के साथ कैसा व्यवहार होगा?

पोषण आहार में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार

स्वास्थ्य विभाग से जुड़े उपरोक्त सुपरवाइजर बताते हैं, ‘जिले के 612 गांव में सर्वे को जाता हूं. एक आंगनबाड़ी ऐसी नहीं मिली, जहां मैन्यू के अनुसार खाना परोसा जाता हो. दाल के नाम पर पीला पानी होता है और खीर के नाम पर मीठे पतले चावल. पर आदिवासी तब भी कहेगा कि वहां भरपेट खाने मिलता है क्योंकि उसे तो इतना भी नसीब नहीं होता है.’

वीरेंद्र भी आंगनबाड़ी केंद्रों पर मिलने वाले खाने की गुणवत्ता पर सवाल उठाते हैं और बताते हैं कि दूर-दराज के गांवों में जहां निगरानी का अभाव है, महीने-महीनेभर तक आंगनबाड़ी में खाना नहीं परोसा जाता.

वहीं, अजय कहते हैं, ‘तय मैन्यू के अनुसार आंगनबाड़ियों में खाना तभी मिलता है, जब-जब किसी बड़े अधिकारी का दौरा होता है.’

सचिन जैन कहते हैं, ‘कमी पोषण आहार में है. इस क्षेत्र में आप काम नहीं करना चाहते हैं. 1975 से आपका आंगनबाड़ी का कार्यक्रम चल रहा है लेकिन परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिल रहे हैं तो क्यों इसे रिव्यू नहीं कर रहे हैं?’

आंगनबाड़ी किस तरह काम कर रही हैं! इसे इस तरह समझिए कि झरेर गांव में रात ही रात आंगनबाड़ी भवन गायब हो जाता है. 4 साल पहले ग्राम पंचायत ने आंगनबाड़ी भवन बनाने की राशि तो पूरी ले ली लेकिन निर्माण अधूरा करवाया. इस दौरान सरपंच बदल गया, पंचायत सचिव भी बदल गये. बीते वर्ष जब श्योपुर में कुपोषण के मामले उठे तो वरिष्ठ अधिकारियों ने गांव-गांव जाकर दौरे करने शुरू किए.

तत्कालीन पंचायत सचिव को भनक लगी. उसे डर लगा कि कहीं उसकी चोरी न पकड़ी जाये तो उसने अधूरा निर्माण ही गायब करवा दिया. भवन गायब हो गया, कुपोषण के खिलाफ लड़ाई फिर आंगनबाड़ी पेड़ के नीचे लगाकर लड़ी जाने लगी.

इस मामले में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता पर भी गाज गिरी क्योंकि वे हीरापुर में रहती थीं और महीनों में एकाध ही चक्कर झरेर आंगनबाड़ी में मारती थीं.

malnutrition reuters
(प्रतीकात्मक तस्वीर: रॉयटर्स)

सवाल खड़ा होता है कि जब वे आंगनबाड़ी ही नहीं आती थीं तो कुपोषण मिटाने के प्रयास भला कैसे करती होंगी? दुखद है कि इसी संदेवनहीन और भ्रष्टाचारी व्यवस्था के बूते कुपोषण को मिटाने की बात की जाती है.

अंगुली यहां स्वयंसेवी संस्थाओं (एनजीओ) के कामकाज पर भी उठती है. 4 हजार संस्थाएं श्योपुर में काम कर रही हैं. उन्होंने कई-कई गांवों को गोद ले रखा है लेकिन बावजूद इसके कुपोषण नहीं मिट रहा है. ये संस्थाएं बस अपने कागजी प्रोजेक्ट तैयार करके सरकारी अनुदान पाने की जुगाड़ में लगी हैं. एक हिंदी के प्रतिष्ठित अखबार ने पिछले ही दिनों इन पर खुलासा भी किया था. देखते हैं तो पाते हैं कि कुपोषण मिटाने जिस कुएं का सहारा है, उसमें तो खुद ही भांग पड़ी है.

कुपोषण से लड़ना है तो आजीविका के साधन देंगे होंगे, जंगल पर अधिकार देना होगा.

बहरहाल, बात जब भी कुपोषण की होती है तो गरीबी सबसे आगे खड़ी होती है और गरीबी का सीधा जुड़ाव रोजगार और आजीविका से होता है. आजीविका के लिए ही तो आदिवासी पलायन करता है. उसका पलायन ही तो कुपोषण का जनक होता है. स्थानीय स्तर पर ही आजीविका मिले तो पलायन ही न हो. और पलायन न हो तो कुपोषण न हो.

सरकार तो कहती है कि नरेगा स्थानीय स्तर पर ही रोजगार देता है पर नरेगा में रोज काम कहां मिलता है, पैसा समय पर नहीं मिलता है. गरीब सहरिया सुबह कमाता है, तब शाम को खाता है. लेकिन नरेगा में पैसा महीनों बाद उसके खाते में आता है. इसलिए वह काम के लिए पलायन कर जाता है. निजी ठेकेदार के यहां काम करता है तो जरूरत पड़ने पर एडवांस भी मिल जाता है. लेकिन नरेगा के सरकारी काम में वो पैसा पाने के लिए फाइलें आगे बढ़ने की ही बाट जोहता रह जाता है. बात जल, जंगल और जमीन पर अधिकार की भी करनी होगी. औद्योगिकीकरण से हुए जंगलों के क्षरण पर भी चर्चा होनी होगी.

आनंदी बाई के शब्दों में, ‘हमारे समय सब ठीक था. क्योंकि जंगल ही हमारा पोषण थे और जंगली जड़ी-बूटियां इलाज. जमीन पर उगने वाली फसल रसायनों की देन नहीं थी. मवेशियों को चारे की कमी नहीं थी. घी-दूध तो तब घास-फूस से लगते थे. आज मवेशी भूखे हैं, तो घी-दूध नसीब ही नहीं होते हैं. जमीन पर उगने वाले अनाज में पोषक तत्व ही नहीं होते हैं.’

वहीं, जंगल से भी आदिवासी बेदखल हो रहा है. प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार खो रहा है. उद्योग-धंधों और सरकार का वहां कब्जा हो रहा है. इस स्थिति में कुपोषण और हावी हो रहा है.

(पूरे मामले पर हमने मध्यप्रदेश सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री रुस्तम सिंह और महिला बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस से संपर्क साधने की कई बार कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq pkv games pkv games slot gacor slot thailand pkv games bandarqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq pkv games bandarqq dominoqq judi bola judi parlay pkv games bandarqq dominoqq pkv games pkv games pkv games bandarqq pkv games bandarqq dominoqq bandarqq slot gacor slot thailand slot gacor pkv games bandarqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq bandarqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq slot gacor slot gacor bonus new member bonus new member bandarqq domoniqq slot gacor slot telkomsel slot77 slot77 bandarqq pkv games bandarqq pkv games pkv games rtpbet bandarqq pkv games dominoqq pokerqq bandarqq pkv games dominoqq pokerqq pkv games bandarqq dominoqq pokerqq bandarqq pkv games rtpbet bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq pkv games bandarqq pkv games dominoqq slot bca slot bni bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq pkv games bandarqq dominoqq slot bca slot telkomsel slot77 slot pulsa slot thailand bocoran admin jarwo depo 50 bonus 50 slot bca slot telkomsel slot77 slot pulsa slot thailand bocoran admin jarwo depo 50 bonus 50 slot bri slot mandiri slot telkomsel slot xl depo 50 bonus 50 depo 25 bonus 25 slot gacor slot thailand sbobet pkv games bandarqq dominoqq slot77 slot telkomsel slot zeus judi bola slot thailand slot pulsa slot demo depo 50 bonus 50 slot bca slot telkomsel slot mahjong slot bonanza slot x500 pkv games slot telkomsel slot bca slot77 bocoran admin jarwo pkv games slot thailand bandarqq pkv games dominoqq bandarqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq pkv games bandarqq dominoqq bandarqq pkv games bandarqq bandarqq pkv games pkv games pkv games bandarqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq bandarqq pkv games dominoqq pkv games dominoqq bandarqq