हिंदी थोपने की कोशिशों को ख़ारिज करना उत्तर की सांस्कृतिक प्रभुता को ख़ारिज करना भी है और अंग्रेज़ी के सहारे आर्थिक गतिशीलता की ख़्वाहिश का इज़हार भी है.
3 जून को द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) नेता एम. करुणानिधि के 94 साल पूरे करने के मौके पर पार्टी ने एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें भाजपा के अलावा सभी दलों के नेताओं को न्योता भेजा गया.
इस कार्यक्रम का मकसद सिर्फ करुणानिधि का जन्मदिन मनाना या विधायक के तौर पर उनके साठ वर्षों के करिअर का अभिनंदन करना ही नहीं था. यह आयोजन विभिन्न वंचित तबकों के खिलाफ केंद्र सरकार के तानाशाही कदमों का विरोध करने की चाहत रखनेवाली राजनीतिक शक्तियों को एकजुट करने का मौका भी बन गया.
जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हिंदी भाषण का तमिल में अनुवाद किया गया, तब दर्शकों की तरफ से कई बार वाहवाही के तौर पर तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी.
अपनी बारी आने पर डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन ने इस ओर इशारा करते हुए कहा कि यह साफ तौर पर दिखाता है कि तमिल लोग हिंदी भाषा के खिलाफ नहीं हैं. उनकी यह टिप्पणी हिंदी को पिछले दरवाजे से थोपने की केंद्र सरकार की कोशिशों के खिलाफ हुए विरोधों, खासतौर पर राजभाषा पर संसदीय समिति की सिफारिशों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद हुए आंदोलनों के बाद आई है.
इन सिफारिशों में हिंदीभाषी क्षेत्र के विधायकों को सिर्फ हिंदी में संवाद करने का निर्देश देना, केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) और केंद्रीय विद्यालयों में हिंदी को अनिवार्य बनाना और गैर-हिंदीभाषी राज्यों में भी हिंदी माध्यम में इंटरव्यू करने की इजाजत देना शामिल है.
जबकि ऐसा कोई विकल्प गैर-हिंदीभाषी लोगों को नहीं दिया गया है. बीते दिनों तमिलनाडु के राष्ट्रीय राजमार्गों पर अंग्रेजी में लिखे गए नामों को बदलकर हिंदी में लिखने की भी व्यापक आलोचना हुई.
नीतीश कुमार के उलट तकरीबन 60 साल पहले समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया को गर्मजोशी से भरा ऐसा स्वागत नसीब नहीं हुआ था. जून, 1960 में लोहिया को श्रोताओं के हंगामे और कुछ दफे पत्थरबाजी की घटनाओं के कारण चेन्नई (तब मद्रास) में हिंदी भाषा में संबोधित की गई अपनी कई जनसभाओं को बीच में ही अचानक समाप्त करना पड़ा था.
फिर भी, उन्होंने हिंदी भाषा का पक्ष लेने वालों को आगाह करते हुए कहा था ‘हिंदी की तरफदारी करने वाले योद्धा हिंदी का भारी नुकसान कर रहे हैं, अगर वे यह नहीं समझते कि हिंदी, बांग्ला, तेलुगू और तमिल आदि को एक-दूसरे की बहनें बन कर रहना है.’
उन्होंने यह भी कहा था कि द्रविड़ राजनीतिक दल भले हिंदी का विरोध करते हों, लेकिन वे उनका और सामाजिक न्याय के लक्ष्य का विरोध नहीं करते. अगर स्टालिन की टिप्पणी पर गौर करें, तो लोहिया की टिप्पणी किसी भविष्यवाणी की तरह लगती है.
वैचारिक आधार पर भाषाई लड़ाई
हिंदी की अनिवार्य शिक्षा को लेकर द्रविड़ आंदोलन का दशकों लंबा विरोध ब्राह्मणवाद, संस्कृत के प्रभुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिए जाने के खिलाफ वैचारिक लड़ाई पर आधारित था. उन्होंने दो आधारों पर हिंदी को लादने का विरोध किया.
पहला, संस्कृत को ब्राह्मणवादी हिंदू धर्मग्रंथों के प्रसार की सवारी के तौर पर देखा गया जो जातिगत एवं लैंगिक ऊंच-नीच की व्यवस्था को बनाए रखने का काम करती है. संस्कृत से नजदीकी को देखते हुए हिंदी को भी जातिगत एवं लैंगिक शोषण की ‘पिछड़ी’ संस्कृति को बढ़ावा देनेवाली भाषा के तौर पर देखा गया.
द्रविड़ आंदोलन के जानकार वी. गीथा और एसवी राजादुरई लिखते हैं, ‘पेरियार राष्ट्रवाद के इस संस्करण के आलोचक थे. उनकी आलोचना इस मान्यता पर आधारित थी कि यह अपने प्रभुत्व को फिर से कायम करने के लिए मूलतः एक ब्राह्मण-बनिया उद्यम है.
इसलिए, हिंदी थोपने की कोशिशों को एक व्यापक प्रभुत्ववादी परियोजना के अंग के तौर पर देखा गया जिसका मकसद भारत के विचार को ब्राह्मणवादी हिंदुत्व और हिंदी के साथ जोड़ना था. इसे गैर-हिंदीभाषियों, निचली जातियों और गैर-हिंदुओं के लिए नुकसानदेह माना गया.
यहां तक कि तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने हिंदू पुनरुत्थानवादी राजनीति के लक्षणों प्रकट करने के बावजूद जुलाई, 2014 में संस्कृत सप्ताह मनाने के आदेश पर अपनी कड़ी आपत्ति जताई थी.
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संस्कृत के इस गौरवगान का एक अर्थ सार्वजनिक तौर पर तमिल को संस्कृत से हीन भाषा करार देना था, जबकि तमिल भाषा का इतिहास भी उतना ही समृद्ध रहा है. तमिल भाषा को हीन बताने का अर्थ यह भी था कि तमिल लोग भी हिंदी बोलनेवालों या संस्कृत जाननेवालों (उच्च जातियां पढें) से हीन या कमतर हैं.
दूसरा, हिंदी का विरोध इस आधार पर किया गया कि आधुनिक, उपयोगी और प्रगतिशील ज्ञान, यानी विज्ञान, तकनीक और तार्किक विचारों को हासिल करने की दृष्टि से हिंदी एक समर्थ भाषा नहीं है. इसलिए अंग्रेजी एक आदर्श भाषा थी और इस लिहाज से हिंदी से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती थी.
हिंदी के स्थान पर तमिल की मांग करने की जगह , शिक्षा और संवाद के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल करने की मांग की जाती रही है. ये बात सबसे अच्छी तरह से कांग्रेस सरकार में उप-शिक्षामंत्री पी. सुब्बारायण, जो 1955 में गठित किए गए पहले राजभाषा कमीशन के सदस्य भी थे, ने रखी थी.
कमीशन में अपनी असहमति जताते हुए सुब्बरायण ने ( अपने डाइसेंट नोट में) लिखा था, ‘…यह जरूर से स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिंदी उतनी पुरानी और समृद्ध भाषा नहीं है, जितनी तमिल और बांग्ला भाषाएं हैं…कुछ तमिल लोगों को यह भी लगता है कि हिंदी की तुलना में अंग्रेजी समझना और सीखना ज्यादा आसान है…वे स्वाभविक तौर पर महसूस करते हैं कि ऐसा कोई कारण नहीं है आखिर वे अपने पास पहले से मौजूद एक आला दर्जे की भाषा को अविकसित और दोयम दर्जे की भाषा के लिए क्यों छोड़ दें…’
उन्होंने अपनी टिप्पणी का समापन यह कहते हुए किया कि अंग्रेजी को उस समय तक राजभाषा बने रहना चाहिए, ‘जब तक हिंदी राजभाषा के तौर पर अंग्रेजी का स्थान लेने लायक न बन जाए.’
1965 में जब हिंदी को राजभाषा बनना था, तमिलनाडु में डीएमके के नेतृत्व में हिंसक आंदोलन चलाया गया, जो 55 दिनों तक चला. इस आंदोलन को बंगाल जैसे दूसरे राज्यों का भी समर्थन प्राप्त था. इसने केंद्र सरकार को आधिकारिक राजभाषा संशोधन, अधिनियम, 1967 लाने के लिए बाध्य कर कर दिया. इस संशोधन ने यह सुनिश्चित किया कि अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए सह-राजभाषा का दर्जा मिला रहेगा.
इसके बाद 1967 से तमिलनाडु पर राज करने वाली दो द्रविड़ पार्टियों (डीएमके और एआईडीएमके) ने अंग्रेजी और तमिल में शिक्षा को बढ़ावा दिया है, जिसने निश्चित तौर पर राज्य की तरक्की में योगदान दिया है. एक ऐसा राज्य जो 1980 के दशक में गरीबी के मामले में बिहार से ज्यादा दूर नहीं था, आज मानव विकास के मामले में एक मॉडल राज्य बन गया है.
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जाति आधारित सकारात्मक कार्रवाइयों के साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश और तुलनात्मक रूप से मजबूत सामाजिक सुरक्षा के बंदोबस्त ने तमिलनाडु के इस विकास में योगदान दिया है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन राज्य के विकास मॉडल की एक महत्वपूर्ण विशेषता है.
यहां हाई-स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वाले 18 से 23 वर्ष आयुवर्ग के 45 प्रतिशत युवा किसी न किसी तरह की उच्च शिक्षा में दाखिला लेते हैं. इस तरह, उच्च शिक्षा तक युवाओं की पहुंच के मामले में तमिलनाडु देश में सबसे आगे है.
मौजूदा विरोध को कैसे समझें
दशकों से जारी सकारात्मक कार्रवाई ने ‘निचली’ जाति के तमिलों में एक आत्मविश्वास से लबरेज तबके को जन्म दिया है. जैसा कि एमएसएस पांडियन ने कहीं लिखा है कि वे अब ताकतवर पदों पर पहुंच गए हैं और उनमें इस बात का यकीन हो गया है कि सिर्फ अंग्रेजी ही एक सफल पेशेवर भविष्य तक ले जानेवाली गाड़ी है. अब अतीत के उलट उन्हें न हिंदी, न ही संस्कृत से खतरा महसूस होता है.
मिसाल के लिए तमिल भाषा में भाषाई और सांस्कृतिक सामग्री का उत्पादन हरावल (अवां गार्द) पत्रिकाओं, प्रकाशन संस्थानों, दुनियाभर में फैले पाठक समुदाय, विश्व स्तर की सामग्री और डिजाइन वाली किताबों आदि के माध्यम से काफी फल-फूल रहा है और इस तरह यह राष्ट्रीय राजनीति की दीवारों और हिंदी के प्रभुत्व की दुनिया से आगे निकल गया है.
जैसा कि पांडियन का कहना है, ‘ज्यादातर तमिलों को यह नहीं लगता कि उनकी भाषा या उन्हें रक्षात्मक तरीके से बचाए जाने की जरूरत है. उनका तमिल बने रहना कोई सचेत तरीके से किया गया प्रयास नहीं है. वे अपनी तमिल पहचान को बिना किसी दिखावे या अतिरिक्त प्रयास के साथ लिए चल रहे हैं.’
ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि आखिर आज तमिल केंद्र द्वारा हिंदी को थोपने के विरोध में आंदोलनरत क्यों हैं?
राज्य में हिंदी विरोध का यह हालिया दौर भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा तमिलों की स्वायत्तता को कतरने और उनकी पहचान को कमजोर करने की कई कोशिशों के जवाब में और उसके प्रतिरोध के तौर पर सामने आया है.
कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी के जल के बंटवारे का विनियमन करने के लिए कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड का गठन करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद केंद्र सरकार ने इस मोर्चे पर कुछ भी ठोस नहीं किया है.
लेकिन, यही केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा जल्लीकट्टू को प्रतिबंधित किए जाने के आदेश पर तुरंत हरकत में आ गई, जिसे तमिलों की अस्मिता से अटूट ढंग से जुड़ा हुआ खेल माना जाता है.
केंद्र के कुछ बड़े फैसलों को राज्य की स्वायत्तता का अतिक्रमण करने की कोशिशों के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है.
एक, राज्यों से कोई सलाह-मशविरा किए बगैर 500 और 1000 के नोटों को बंद करने का मनमाना फैसला.
दो, जीएसटी लागू किया जाना, जिससे राजस्व जमा करने की राज्यों की क्षमता घटेगी.
तीन, नेडुवसाल में हाइड्रोकार्बन (तेल और प्राकृतिक गैस) उत्खनन की कोशिशें, जिसका विरोध पर्यावरण का होने वाले नुकसान की आशंका के मद्देजनर स्थानीय समुदाय द्वारा किया जा रहा है.
इसके साथ ही देशभर में मेडिकल में दाखिले के लिए नीट को अनिवार्य बनाने का मतलब ये है कि राज्य द्वारा खड़ा किया गया मेडिकल शिक्षा का बुनियादी ढांचा राज्य के ग्रामीण विद्यार्थियों की पहुंच से बाहर हो सकता है.
स्क्रॉल.इन (scroll.in ) में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रैंकिंग फ्रेमवर्क की रैंकिंग में देश में उच्च शिक्षा के 100 शीर्ष संस्थानों में राज्य के 26 संस्थान शामिल थे, जबकि इस फेहरिस्त में सभी हिंदी भाषी राज्यों से मिलाकर सिर्फ 21 संस्थानों को जगह मिल सकी थी.
चीजों को और ज्यादा बिगाड़ते हुए भाजपा के पूर्व सांसद तरुण विजय ने भारत में नस्लभेद के आरोपों का जवाब देते हुए यह बयान दिया कि उत्तर भारतीय लोग दक्षिण भारत के अश्वेत लोगों के साथ रहते आए हैं, इसलिए उन पर नस्लभेदी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता.
हिंदी को अप्रत्यक्ष तौर पर थोपने की कोशिशों को लेकर विरोध की सुगबुगाहट अभी चल ही रही थी कि कीझाडी उत्खनन प्रकरण ने एक बड़े विवाद को जन्म दे दिया. 2013-14 में राज्य के शिवगंगा जिले के कीझाडी क्षेत्र में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (इंडियन आर्कियोलॉजिकल सर्वे) (एएसआई) द्वारा किए गए एक उत्खनन से वैगई नदी के किनारे एक 200 ईसा पूर्व की प्राचीन नगरीय सभ्यता के अस्तित्व की बात सामने आई.
यह एक महत्वपूर्ण खोज थी, क्योंकि यह संगम काल में नगरीय बसावट के अस्तित्व का पहला पुरातात्विक प्रमाण था जिसकी कलाकृतियों पर तमिल ब्राह्मी अक्षर थे. इस खोज के तुरंत बाद एएसआई की उत्खनन शाखा (बेंगलुरु) के सुपरिटेंडिंग आर्कियोलॉजिस्ट अमरनाथ रामकृष्ण का तबादला कर दिया गया.
यह उत्खनन रामकृष्ण की देख-रेख में चल रहा था और उन्हें ही इस उत्खनन को आगे बढ़ाने का काफी श्रेय जाता है. उत्खनन के तीसरे चरण को आगे बढ़ाने के लिए फंड देने में भी काफी देरी की गई. यह फंड राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध किए जाने के बाद जारी किया गया.
हकीकत ये है कि मद्रास उच्च न्यायालय ने उत्खनन में धीमी गति से हो रही प्रगति पर नाराजगी जताई है. उच्च न्यायालय की पीठ के एक जज, जस्टिस सेवलम ने टिप्पणी की, ‘अफसर (रामकृष्ण) के तबादले के पीछे कोई छिपी हुई वजह नजर आती है. ऐसे कदमों से उत्खनन कार्य को नुकसान पहुंचता है.’
कई लोग इस तबादले और देरी के पीछे सोची-समझी बदनीयती का हाथ मानते हैं, जिसका मकसद सुदूर दक्षिण भारत में तमिलों द्वारा गर्व किए जा सकने लायक एक द्रविड़ बसावट को सामले न आने देना है.
एक दूसरे मामले में कुछ दिन पहले केंद्र सरकार ने अब तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मदद से चलनेवाले सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल को तिरुवरूर में स्थित तमिलनाडु सेंट्रल यूनिवर्सिटी के मातहत लाने की घोषणा की है.
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इसका मतलब है कि संस्थान को न सिर्फ अपनी वित्तीय स्वायत्तता बल्कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण रूप से अपनी अकादमिक स्वायत्ता भी गंवानी पड़ेगी. अब उसे अपने हर फैसले के लिए यूनिवर्सिटी की सहमति लेनी पड़ेगी, जो केंद्र सरकार की ज्यादा दखलंदाजी का रास्ता तैयार करेगा.
इन कदमों को ‘एक भारत, एक संस्कृति’ के विचार को लादे जाने के तौर पर देखा जा रहा है, जो क्षेत्रीय स्वायत्तता, भाषाई पहचान और संस्कृति को कमजोर करता है. इसके अलावा, जैसा कि तमिल कार्यकर्ताओं की दलील है, हिंदी पढ़ने का उपयोगितावादी तर्क पूरी तरह से खत्म हो चुका है.
इसे विडंबना ही कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण के आज के दौर में हिंदी सीखने के लिए कहा जा रहा है, जबकि सारी तकनीकें भी कस्टमाइजेशन (अलग-अलग लोगों की जरूरत के हिसाब से अलग-अलग सुविधाएं देने) को लेकर इतनी खुली हुई हैं. पहले के हिंदी विरोधी आंदोलनों के दौरान इस तर्क में कुछ न कुछ दम जरूर था कि हिंदी सीखने से उत्तर भारत में नौकरी के मौके बढ़ जाते हैं.
लेकिन, वर्तमान समय में राज्य में बिहार, छत्तीसगढ़, असम और ओड़िशा से कम कौशल वाले श्रमिक बड़ी मात्रा में आ रहे हैं और उनके सामने किसी तरह की भाषाई दीवार खड़ी नहीं हो रही है.
दूसरी तरफ स्थिति यह है कि, भले ही राज्य अपने कुशल श्रमबल के लिए पर्याप्त अच्छी नौकरियां पैदा कर पाने में समर्थ नहीं हो पाया है, लेकिन शिक्षा में निवेश ने अंतरराष्ट्रीय प्रवास को मुमकिन बनाया है.
एस. इरुदया राजन, बर्नार्ड डी‘सामी और सैम्युएल असीर राज द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन के मुताबिक विदेशों से भारत में आनेवाले धन (रेमिटेंसेज) के मामले में तमिलनाडु, केरल के बाद दूसरे स्थान पर आता है. राज्य की कुल आय में विदेशों से आनेवाले धन का योगदान 14 फीसदी है.
दरअसल, प्रवासियों की बड़ी संख्या अमेरिका की ओर चली गई है, जो कि बाहर की ओर हो रहे प्रवास के कौशल के स्तर को दिखाता है. इसकी तुलना में रोजगार के लिए आंतरिक प्रवास उतना ज्यादा नहीं रहा है और यह भी पास के दक्षिण भारतीय राज्यों तक ही सीमित है.
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण ही भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियां कम लागत वाले प्रोग्रामिंग पेशेवरों की मौजूदगी का फायदा उठा पाईं और वैश्विक बाजार में अपने लिए जगह बना सकीं.
जैसा कि स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर ध्यान दिलाते हैं, अंग्रेजी का यह ज्ञान द्रविड़ आंदोलन के अपने पक्ष पर अडिग रहने के कारण ही संभव हुआ, जिसकी परिणति 1965 में बड़े पैमाने के आंदोलनों में हुई और जिसने अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा बनाए रखा. इसलिए एकरूपता थोपने की भाजपा की परियोजना के आगे झुकने से इनकार करना दरअसल वह राजनीति है, जो देश की सरहद को पार कर जाती है और आर्थिक गतिशीलता की ख्वाहिशमंद है.
दूसरी तरफ, यह एकरूपता लाने की कोशिशों के बीच उप-राष्ट्रीय सांस्कृतिक और भाषाई पहचानों को बचाए रखने की राजनीति भी है.
(एस. आनंदी और विजय भास्कर मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज, चेन्नई से जुड़े हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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