मंटो नूरजहां को लेकर कहते थे, ‘मैं उसकी शक्ल-सूरत, अदाकारी का नहीं, आवाज़ का शैदाई था. इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा अगर ये चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, वैसे ही जैसे बाज़ीगर तने रस्से पर बग़ैर किसी लग्ज़िश के खड़े रहते हैं.’
कुछ दिन हुए, एक प्रसिद्ध बॉलीवुड फिल्म में फ़ैज़-अहमद-फ़ैज़ की नज़्म, ‘मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ को सुना. गीत को थोड़ा आधुनिक बनाकर शिल्पा राव ने गाया था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ.
इसी तरह कोक स्टूडियो में हुमैरा चन्ना और नबील शौकत अली ने इसी नज़्म को अपने अंदाज़ में गाया था, जिसे लाखों लोगों ने पसंद किया. इन गानों की लोकप्रियता को देखते हुए हैरत भी होती है और अभिमान भी.
हैरत इसीलिए कि फ़ैज़ की वह असली नज़्म, जिसे मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां ने गाया था, उसके सामने ये सारे गीत बस एक आभास-भर लगते हैं, पर फिर भी लोकप्रिय होते हैं और साहित्य और संगीत की विद्यार्थी होने की वजह से साथ ही यह अभिमान भी होता है कि आज भी अगर कुछ लोकप्रिय हो रहा है तो फ़ैज़ के नज़्मों की बदौलत, नूरजहां द्वारा उन शब्दों को अमर कर दिए जाने की बदौलत.
मौसिक़ी की दुनिया में नूरजहां का नाम पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मशहूर रहा है. पंजाबी, उर्दू और हिंदी, तीनों भाषाओं में उन्होंने हज़ारों गाने गाए.
उन्हें पाकिस्तान की सबसे चर्चित और सफल अभिनेत्री होने का गौरव भी प्राप्त है, जिन्होंने पचास से भी ज़्यादा फिल्मों में बतौर अभिनेत्री काम किया और दर्शकों के दिलों में जगह बनाई.
टोक्यो में आयोजित वर्ल्ड म्यूजिक के प्रतिनिधियों में वे भारतीय उपमहाद्वीप का प्रतिनिधित्व करने वाली एकमात्र एशियाई गायिका थीं.
वैश्विक फ़लक पर नूरजहां, भले ही पाकिस्तान की मशहूर गायिका के नाम से जानी जाती हों, पर उनका नाम संगीत की उस गंगा-जमुनी संस्कृति से भी जुड़ता है, जो कभी दोनों मुल्कों की साझी धरोहर थी.
संगीत की दुनिया में नूरजहां का उद्भव ऐसे समय में हुआ जब विभाजन नहीं हुआ था और बंबई और लाहौर दोनों ही कला और फिल्मों के केंद्र थे. यह वह समय था जब बोलती हुई फिल्में (Talkies) बस पहले-पहल आई ही थीं.
संभावनाओं और स्वप्नों से भरे फिल्म जगत के इस शैशव काल में उन्होंने अपनी गायकी की शुरुआत की और भारत और पाकिस्तान (विभाजन के बाद) दोनों ही फिल्म इंडस्ट्री में अंतिम समय तक लगातार गाती रहीं.
अपने फिल्मी सफ़र में वह न केवल इतिहास के कई महत्वपूर्ण क्षणों की गवाह बनीं बल्कि अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण स्वयं एक ट्रेंड सेटर बनीं.
सितारे का उदय
21 सितंबर 1925 को कसूर (लाहौर) के कोट मुराद खान में जन्मीं अल्लाह वसाई (नूरजहां का असली नाम) माता-पिता की ग्यारह संतानों में से एक थी. ‘
कसूर की धरती प्रारंभ से ही कुछ बड़ी ही नामी हस्तियों के साथ जुड़ी हुई है, मसलन, सूफी संत बुल्ले शाह, उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खान, बरकत अली खान, ये सब कसूर से ही थे.
उनके पिता मियां मदद अली ख़ान और मां, फतेह बीबी ने बचपन में ही उनकी प्रतिभा को देख लिया था. नूरजहां कहती थीं कि गाने का फ़न जन्म से ही उन्हें हासिल था. वो किसी भी गाने की लय को बड़ी आसानी से पकड़ लेतीं.
गायकी में उन्होंने मुख्तार बाई, अख्तरी बेग़म और कज्जन बाई को अपना आदर्श माना था. बेग़म अख़्तर के कहने पर ही उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया था और ग़ुलाम मुहम्मद खान उनके पहले गुरु हुए थे.
बेग़म अख्तर नूरजहां के बारे में कहा करती थीं: ‘जब वह गाएगी, कोई और उसका मुकाबला नहीं कर पाएगा.’
नूरजहां मात्र नौ साल की थीं, जब प्रसिद्ध पंजाबी संगीतकार जीए चिश्ती ने उन्हें लाहौर के मंच पर प्रस्तुत किया. इसके बाद उन्होंने अपनी दो बड़ी बहनों के साथ लाहौर में थियेटर के स्टेज पर व्यावसायिक गायन शुरू कर दिया.
इन दिनों उनके गाए गीतों में से कुछ गीत जैसे, ‘हंसते हैं सितारे’ या ‘शाहे मदीना’ बड़े मक़बूल हुए. उसके बाद कलकत्ता के करनानी थिएटर ने इन बहनों की कला को पहचाना और इस तरह अल्लाह वसाई कलकत्ता आ गईं, जहां पर उन दिनों की सुप्रसिद्ध गायिका मुख्तार बेग़म से मिलने का मौका मिला.
अपने फिल्मी करिअर के शुरुआती दौर में नूरजहां के गायन पर मुख्तार बेग़म का सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ा. इन्हीं मुख़्तार बेग़म के शौहर आगा हश्र कश्मीरी (प्रसिद्ध उर्दू नाटककार जो अपने मैदान थियेटर के लिए जाने जाते थे) ने अपने थिएटर के मंच पर अल्लाह वसाई को प्रस्तुत किया और यहीं उन्हें बेबी नूरजहां का नाम हासिल हुआ.
कलकत्ते में नूरजहां और इनकी बहनों की शुरुआती सफलता को देखते हुए, सन 1930 में पूरे परिवार ने फिल्मों के सबसे बड़े केंद्र बंबई (वर्तमान मुंबई) का रुख किया.
बंबई में एक बाल कलाकार के रूप में बेबी नूरजहां ने ग्यारह मूक फिल्मों में अभिनय किया और उस दौर की सबसे प्रसिद्ध ‘बाल कलाकार’ के रूप में चर्चित हुईं.
नूरजहां की पहली बोलती फिल्म, जिसमें उन्होंने अभिनय किया था, ‘ससी पुन्नु’ (1932), थी. उन्होंने अपना सबसे पहला फिल्मी गीत सन 1935 में केडी मेहरा की फिल्म पिंड दी कुड़ी में गाया था.
इसके बाद मिस्र का सितारा (1936), हीर-साय्याल (1937) जैसी फिल्मों में गायन के बाद 1938 में वह वापस लाहौर चली आईं.
यहां प्रख्यात संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर ने उनकी गायकी को पहचाना और हुनर को तराशा. उनके ही संगीत निर्देशन में नूरजहां ने गुलबकावली(1939), यमला जट्ट (1940) और फिर खजांची (1941) जैसी हिट फिल्मों में काम किया.
ये वही मास्टर ग़ुलाम हैदर थे, जिन्होंने आगे चलकर लता मंगेशकर की आवाज़ से फिल्मी दुनिया का परिचय करवाया था.
1941 आते-आते ‘बेबी नूरजहां’ जो सिर्फ बतौर एक बाल-कलाकार के रूप में प्रसिद्ध थीं, अब, ‘नूरजहां’ के रूप में सिनेमा की मुख्य अभिनेत्री के रूप में पेश होने के लायक हो गईं थीं.
पंद्रह साल की बालिका नूरजहां को बाल कलाकार की इमेज से बाहर निकालना भी निर्माताओं के लिए एक चुनौती ही था, पर अपनी भरी-पूरी देहयष्टि के कारण अपनी उमर से बड़ी लगने वाली नूरजहां जल्द ही बेबी नूरजहां के इमेज को तोड़ अभिनेत्री नूरजहां के रूप में स्थापित हो गईं.
हिंदुस्तान में फिल्मी सफर
नूरजहां की बतौर मुख्य अभिनेत्री, पहली फिल्म खानदान थी, जो उर्दू में बनी थी. इस फिल्म से नूरजहां की ख्याति अपने समय की सफलतम गायिकाओं (कानन देवी, शांता आप्टे और खुर्शीद) में होने लगी.
खानदान का गीत, ‘तू कौन-सी बदली में मेरे चांद है आजा’ उनकी प्रसिद्धि का पहला मोड़ था. इसके बाद एक-से-बढ़कर-एक हिट फिल्में आईं, जिसमें उन्होंने बतौर अभिनेत्री और गायिका के रूप में काम किया।
इनमें नौकर (1943), नादान (1943), दोस्त (1944), लाल हवेली (मीना कुमारी ने बतौर बाल कलाकार, नूरजहां के बचपन का किरदार निभाया था,1944) काफी प्रसिद्ध हुए.
सन 1945 में नूरजहां ने, मास्टर विनायक (अभिनेत्री नंदा के पिता) की फिल्म ‘बड़ी मां’ में मुख्य अभिनेत्री का किरदार निभाया, जिसमें बेबी लता (मंगेशकर) और बेबी आशा (भोंसले) ने बहनों का किरदार निभाया था.
इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ही एक बार लता ने उनके सामने उन्हीं की फिल्म ख़ानदान का एक गीत सुनाया, जिसे सुनकर नूरजहां ने, मास्टर विनायक से कहा था ‘आप मेरी ये बात नोट कर लीजिए कि इसकी ये अलग तरह की आवाज़ एक दिन पूरी दुनिया से अपना लोहा मनवाएगी।’
नूरजहां लता को प्यार से ‘लत्तो’ कहा करती थीं और उनकी आवाज़ का असर इतना गहरा था कि लता खुद जब पार्श्वगायिका बनीं तो शुरुआती दौर की उनकी आवाज़ नूरजहां से ही प्रभावित थी.
इतना ही नहीं, अक्सर संगीत निर्देशक भी लता से नूरजहां की आवाज़ में ही गाने को कहा करते थे. फिल्म अंदाज़ में लता द्वारा गाया गया एक गीत, ‘उठाए जा उनके सितम’ तो सुनने वालों को नूरजहां का भ्रम दे सकता है.
लता और नूरजहां की मैत्री और एक-दूसरे के प्रति सम्मान के किस्से मशहूर रहे हैं. पाकिस्तान चले जाने के बाद भी दोनों कभी वाघा बार्डर, तो कभी न्यूयार्क में एक-दूसरे से मिलती रहीं.
लता ने हमेशा यह स्वीकार किया है, ‘मैं नूरजहां की सबसे बड़ी प्रशंसक हूं . वह मलिका-ए-तरन्नुम थीं और रहेंगी. हर किसी का कोई न कोई आदर्श होता है और मुझे यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं है कि नूरजहां मेरी रोल मॉडल थीं. हम नूरजहां को अपने बचपन में सुनते थे और उनके सुरों के साथ ही बड़े हुए थे.’
नूरजहां की पहली सुपरहिट फिल्म सन 1945 में आई ‘ज़ीनत’ थी, जिसमें उनकी गायकी का एक नया रंग देखने को मिला. इसके बाद से ही उन्हें मलिका-ए-तरन्नुम के नाम से जाना गया.
‘नूरजहां की गायकी और आवाज़ इस अर्थ में एक ट्रेंड सेटर थीं कि उसने अपने समय की एक खास किस्म की गायकी जो दरबारी गायकी थी, और तवायफ़ों की गायकी थी, जैसा कि ज़ोहराबाई अंबालेवाली, अमीरबाई करनाटकी की गायकी में देखा जाता था, उसे एक तरह से खत्म ही कर दिया था’.
नूरजहां को ही सबसे पहले-पहल पूरे भारतीय उप महाद्वीप में क़व्वाली गाने का भी श्रेय प्राप्त था. (फिल्म ज़ीनत,1945). 1946 से 1947 के दौर की मशहूर हुई नूरजहां की फिल्मों में से कुछ जैसे कि खानदान (प्राण के साथ), अनमोल घड़ी तथा जुगनू (दिलीप कुमार के साथ) के गीत आज भी संगीतप्रेमियों को याद हैं.
फिल्म अनमोल घड़ी में उस दौर के तीन गायक एक साथ काम कर रहे थे- सुरेंद्र, सुरैया और नूरजहां और इसी के कुछ अनमोल नगमें जैसे, जवां है मोहब्बत और आवाज़ दे कहां है आज भी मशहूर हैं.
फिल्म जुगनू के गीत, ‘यहां बदला वफा का ने मोहम्मद रफ़ी को भी फिल्म जगत में गायक के रूप में स्थापित किया था. 1947 में बनी फिल्म मिर्ज़ा-साहिबा नूरजहां की भारत में आखिरी फिल्म थीं, जिसमें उन्होंने पृथ्वीराज कपूर के भाई त्रिलोक कपूर के साथ अभिनय किया.
पाकिस्तान में नई सहर
1947 के बंटवारे के बाद नूरजहां ने पाकिस्तान में जाकर बसने का फैसला लिया. अपनी सफलता के शिखर पर पहुंचे कलाकार के लिए एकबारगी सबकुछ छोड़कर एक ऐसी जगह चले जाना, जहां फिल्म उद्योग को शून्य से सब कुछ शुरू करना पड़ा हो, वस्तुतः साहस की मांग रखता होगा.
नूरजहां ने अपने सहकलाकार और मित्र दिलीप कुमार को इस विषय में कहा था, ‘जहां पैदा हुई थी, वहां ही जाऊंगी.’
नूरजहां का इस प्रकार पाकिस्तान चले जाना पूरे संगीत जगत के लिए ही एक ऐतिहासिक घटना बन गया क्योंकि अगर वह भारत में ही रह जातीं तो कौन जाने भारतीय फिल्म संगीत की दुनिया का रूपाकार भिन्न होता या शायद नहीं भी होता.
नूरजहां के पहले पति सैय्यद शौकत हुसैन रिज़वी, अपने समय के उभरते हुए निर्देशक थे और स्वयं नूरजहां के साथ कई फिल्में उन्होंने की थीं. (खानदान, जुगनू और ज़ीनत)
रिज़वी, जो मूल रूप से आजमगढ़ के थे, विभाजन के बाद बंबई छोड़कर कराची आ गए और फिर लाहौर आकर फिल्म निर्माण शुरू किया.
इन दोनों ने मिलकर विभाजन के दंगों में जला दिए गए शौरी स्टूडियो को नए सिरे से बसाया और ‘शाह-नूर’ स्टूडियो के रूप में विकसित किया, पर पाकिस्तान में नूरजहां की पहली फिल्म आते-आते तीन साल लग गए.
1951 में उनकी पहली पाकिस्तानी फिल्म ‘चन्न वे’ (संतोष कुमार के साथ) आई. इस फिल्म ने उन्हें पाकिस्तान की पहली महिला फिल्म निर्देशक होने का गौरव भी दिया. फिल्म पंजाबी में थी और निर्देशक रिज़वी पंजाबी नहीं जानते थे, इसीलिए नूरजहां ने सह-निर्देशन किया था.
इस फिल्म का गीत ‘तेरे मुखड़े द काला काला तिल वे’ सरहद के इस पार भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था. इसके बाद आई फिल्म ‘दुपट्टा’ (1952) जो पाकिस्तान में सुपरहिट रही. इस फिल्म का ही एक गीत चांदनी रातें भारत में बहुत मशहूर हुआ और 1990 के दशक में रीमिक्स भी हुआ.
नूरजहां की पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री की सबसे मशहूर फिल्म ‘इंतज़ार’ 1956 में आई, जिसे अपने संगीत के लिए आज भी सराहा जाता है. इन्होंने इसमें एक दृष्टिहीन गायिका का किरदार निभाया था.
इस फिल्म में संगीत निर्देशन, ख़्वाजा खुर्शीद अनवर ने किया था, जिनकी नूरजहां के साथ जोड़ी इतनी ही प्रसिद्ध हुई जैसे लता मंगेशकर और मदन मोहन की जोड़ी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में.
लता मंगेशकर ने भी ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सेवा को दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि, ‘इंतज़ार’ उनका सबसे पसंदीदा म्यूज़िकल एल्बम है.
इसके बाद नूरजहां ने कई बड़ी और हिट फिल्मों में एक के बाद एक काम किया, मसलन ‘छू-मंतर’, ‘अनारकली’ (दोनों 1958), कोयल (1959), मिर्ज़ा ग़ालिब (1961).
1963 में आई फिल्म बाज़ी, नूरजहां की बतौर अभिनेत्री अंतिम फिल्म थी क्योंकि इसके बाद उन्होंने केवल पार्श्वगायन किया. अपने 33 साल के लंबे अभिनय करिअर (1930-1963) को अंतत: 1963 में उन्होंने अलविदा कह दिया.
पाकिस्तानी फिल्मों में नूरजहां के योगदान को देखते हुए, न केवल उन्हें पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति सम्मान से नवाजा गया, बल्कि पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से भी सम्मानित किया गया.
1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दिनों में नूरजहां ने पाकिस्तानी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए कठिन परिस्थितियों में भी देशभक्ति के गीत गाए थे और इसी के लिए उन्हें तमगा-ए-इम्तियाज़ दिया गया था.
नूरजहां अपने एक इंटरव्यू में इस वक़्त को याद करते हुए बताया, ‘किसी ने मुझसे गाने को नहीं कहा. मैंने खुद ही रेडियो पाकिस्तान को एक सुबह फोन किया और कहा कि मैं आपके स्टूडियो आकर जवानों के नाम कुछ गाना चाहती हूं. उन लोगों ने विश्वास नहीं किया. वो पूछते रहे कि क्या आप वाकई में मैडम नूरजहां बोल रही हैं. उन्हें लगा कि यह कोई मज़ाक कर रहा है. अंत में मैंने कहा कि आपको लगता है कि मैं वाकई मज़ाक कर रही हूं और वो भी तब जब हर ओर बम के धमाके गूंज रहें हैं और बारूद के गोले फूट रहे हैं.’
पार्श्वगायन की राह
अभिनय को अलविदा कहने के बाद नूरजहां ने 1960 में पार्श्वगायन की दुनिया को पूरी तरह से अपना लिया था. बतौर गायिका उनकी पहली फिल्म सलमा थी, जिसके गीत ‘ज़िंदगी है ये किसका इंतज़ार’, से अपने पेशेवर प्लेबैक करिअर की एक नई शुरुआत उन्होंने की.
इस प्रकार 1960 से लेकर के 1990 के दशक तक उन्होंने लगातार गाया और पाकिस्तानी फिल्म संगीत का पर्याय बन गईं. पंजाबी मातृभाषा होने के कारण नूरजहां को गायन में सबसे अधिक सफलता अपने पंजाबी गीतों में मिली. मिर्ज़ा जाट (1967) और हीर-रांझा (1970) के गीत इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय रहे.
हालांकि उर्दू के उनके गीत भी खासे सफल रहे. फिल्म कैदी (1962) में नूरजहां ने फ़ैज़ की नज़्म मुझसे पहली से मोहब्बत गाया था, जिसे शमीम आरा और दर्पण पर फिल्माया गया था.
इस गाने में नूरजहां और रशीद आत्रे की गायक-संगीतकार जोड़ी ने अपना जलवा दिखलाया था, जो आगे आने वाले दिनों में भी जारी रहा.
एक गायिका के रूप में उनके कुछ सर्वश्रेष्ठ गीत 1950 के दशक में ही आए. मसलन फिल्म ‘नींद’ (1959) का वह सुप्रसिद्ध गीत तेरे दर पर सनम चले आए, उनकी आवाज की रेंज को दिखलाता है.
उनकी गायकी का एक और बड़ा मुकाम फिल्म मिर्ज़ा ग़ालिब में दिखता है. ग़ालिब के ग़ज़लों को जिस गहराई और ठहराव से उन्होंने गाया है वह उनकी शास्त्रीय गायन पर पकड़ और सधी हुई आवाज़ का बेहतरीन नमूना है.
इसी गायकी का चरम रूप हमें वहां दिखाई पड़ता है, जहां वह फैज-अहमद-फैज के तरन्नुम को अपनी आवाज़ देती हैं. पर 1980 आते-आते पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री का रुख बदलने लगा.
पंजाबी एक्शन फिल्मों के उभरते दौर में कला की दृष्टि से फिल्मों का स्तर अपेक्षाकृत घट गया था और इसीलिए इस दौर के नूरजहां के गीतों में भी कला का आग्रह कम दिखता है.
इन फिल्मों में उन्होंने कुछ चलताऊ-से गीत गाए , पर यहां भी उनकी गायकी की तकनीक पर कोई उंगली नहीं उठा सकता.
1970-80 के सालों में नूरजहां की नैसर्गिक आवाज़ में भी धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगा था. बढ़ते वज़न ने जहां आवाज़ को प्रभावित किया था, वहीं लगातार ऊंचे सुरों में पंजाबी गीतों के गाने की प्रक्रिया में आवाज़ मोटी और गहरी होती जा रही थी.
इसका एक परिणाम यह हुआ कई नए संगीतकार नूरजहां के बदले नई आवाज़ों को तलाशने लगे. उदाहरण के तौर पर युवा संगीतकार अब रुना लैला और नहीद अख्तर जैसी नई गायिकाओं को अपने गीत देने लगे.
पर इसके बावजूद वह नूरजहां की ही आवाज़ थी, जिसने फिल्म उमराव जान अदा (1972) में अमीरन की व्यथा को अपनी आवाज़ में ढालकर गाया था ‘आखिरी गीत सुनाने के लिए आए हैं.’
नूरजहां ने पार्श्वगायन में एक लंबी पारी खेली और लगभग हर दौर की अभिनेत्रियों को अपनी आवाज़ दी. पुरानी अभिनेत्रियों में साबिहा खानम से लेकर के शमीम आरा और नब्बे के दशक में नीली और रीमा जैसी नई अभिनेत्रियों के लिए भी उन्होंने भरपूर गाया.
फिल्म गायकी में उनकी सफलता और श्रेष्ठता का एक मंज़र यह भी था कि जहां उनकी समकालीन गायिकाओं को एक गाने के लिए तीन सौ पचास रुपये मेहनताना मिलता था, वहीं नूरजहां सिर्फ एक गीत के लिए दो हज़ार रुपये लेती थीं.
1996 में नूरजहां ने अपना अंतिम गीत ‘दम दा की भरोसा, दम आवे न आवे’ फिल्म सखी बादशाह के लिए गाया. लगातार गिरती सेहत के कारण नब्बे के अंतिम वर्षों में उन्होंने गायन एकदम बंद कर दिया.
पर बिना संगीत के नूरजहां की ज़िंदगी का तसव्वुर शायद ऊपर वाले को भी नहीं था और महज़ चार साल के अंदर ही 23 दिसंबर 2000 को (रमज़ान की सबसे मुबारक 27वीं रात) को हृदयाघात के कारण नूरजहां का इंतकाल हो गया और फिल्म गायकी के एक युग की भी समाप्ति हो गई.
नूरजहां: एक शख्सियत
एक गायिका और अभिनेत्री के आवरण के पीछे छिपी नूरजहां की असली शख्सियत के कई रंग-ओ-निशां थे. पर नूरजहां के इस बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्माण में कुछ जरूरी सवाल भी उठते हैं, मसलन आजादी से पहले के भारत में एक गायिका होने के माने क्या रहे होंगे?
कितना मुश्किल रहा होगा व्यावसायिकता, मनोरंजन और कला के बीच संतुलन बनाए रखना या कैसे एक पुरुष-प्रधान फिल्म जगत में (जहां संगीत निर्देशक से लेकर के गीतकार, सभी प्रायः पुरुष ही हुआ करते थे) नूरजहां की एक विशिष्ट धार्मिक और लैंगिक पृष्ठभूमि ने अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनाने की राह आसान या मुश्किल की होगी?
सवाल जितने भी हों, नूरजहां ने अपनी बुलंद आवाज़ और रूप के जादू से एक पूरी पीढ़ी को बांधे रखा. एक पुरुष-प्रधान फिल्म जगत में एक महिला के लिए पेशेवर सफलता प्राप्त करना, पूरे दक्षिण एशियाई समाज में एक चुनौतीपूर्ण अवधारणा है.
ऐसे में नूरजहां तो एक ऐसे समाज से आती थीं, जहां महिलाओं का दायरा केवल उनके घर तक सीमित था या जो आम तौर पर अपने इनर स्पेस (inner space) में ही बंद रहती थीं. ऐसे में उनका फिल्मों में काम करना और भी ज़्यादा साहस का काम था.
बाहरी दुनिया के शोर और चमक-दमक के पीछे एक ऐसी नूरजहां थी, जिनकी ज़िंदगी के कई पड़ाव थे. वह पहले अपने मां-बाप की कमाऊ संतान थीं, जो आगे चलकर दो-दो शादियों के विविध अनुभवों से भरी एक कामकाजी स्त्री और इससे भी आगे बढ़कर, अपनी छह संतानों के लिए एक जिम्मेदार मां के रूप में ढलीं.
सन 1942 में मात्र सत्रह साल की अवस्था में नूरजहां की पहली शादी शौकत हुसैन रिज़वी से हुई थी. रिज़वी, जो किसी जमाने में नूरजहां के दीवाने थे, उनके लिए सिर्फ पति नहीं बल्कि उनके निर्देशक और मार्गदर्शक भी थे.
पर रिश्ते दिन और मुहूर्त देखकर नहीं खराब होते. रिज़वी से अलगाव की बानगी भी एक दिन का परिणाम नहीं थी बल्कि वर्षों में ये दरार उत्पन्न हुई.
बाद में दोनों ही में फासले इतने बढ़ गए कि 1954 में तलाक के बाद बेटी ज़िल्ले हुमा की कस्टडी के लिए नूरजहां को शाहनूर स्टूडियो के अपने शेयर्स बेच कर कोर्ट केस लड़ने पड़े.
आगे चलकर 1959 में नूरजहां ने अपने से नौ साल छोटे एजाज़ दुर्रानी से दूसरी शादी की, जो एक नवोदित अभिनेता थे. शादी के चार साल बाद ही नूरजहां ने अपने अभिनय से संन्यास ले लिया क्योंकि दुर्रानी के अभिनय करिअर की दिनोंदिन बढ़ती मांग के सामने घर संभालने की ज़िम्मेदारी केवल उन पर ही थी.
पर यह शादी भी 1979 तक चली, क्योंकि रंगीन मिज़ाज दुर्रानी के अपनी एक सह-कलाकार से संबंध की खबरों ने विश्वास की नींव हिला दी थी.
इन दोनों ही शादियों से हुए छह बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी नूरजहां ने एक अकेली मां के रूप में निभाई क्योंकि दोनों ही शादियों में तलाक के बाद बच्चों की पूरी कस्टडी उन्हें ही मिली थी.
एक ऐसे दौर में जहां नारीवादी अवधारणाएं केवल कुछ किताबों का हिस्सा थीं, नूरजहां की एक अकेली कामकाजी मां की छवि अपने समय से कहीं आगे की अवधारणा लगती है.
अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास नूरजहां को इतना ही था कि अपनी मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपनी जायदाद अपने सारे बच्चों में बराबर-बराबर बांट दिया था.
नूरजहां हमेशा से अपनी अलग छवि के लिए मशहूर थीं. भीड़ से अलग नूरजहां की इस शख्सियत का ही एक आलम था कि वह किसी भी नियम की पाबंद नहीं थीं.
सआदत हसन मंटो ने नूरजहां के बारे में लिखा है, ‘शराब गले के लिए सख़्त गैर मुफीद है. खट्टी और तेल की चीज़ें गले के लिए तबाहकुन हैं. ये कौन नहीं जानता? मगर नूरजहां पाव-पाव भर तेल का अचार खा जाती है और लुत्फ़ की बात ये है कि जब उसे फिल्म के लिए गाना होता है तो वो ख़ास एहतिमाम से पाव भर अचार खाएगी, उसके बाद बर्फ़ का पानी पिएगी, फिर माइक्रोफोन के पास जाएगी. उसका ये कहना है कि इस तरह आवाज़ निखार जाती है.’
ऊपर फ़ैज़-अहमद-फ़ैज़ के जिस मक़बूल नज़्म का ज़िक्र किया था, उसके पीछे भी एक ऐसी यादगार घटना जुड़ी हुई है जो नूरजहां के साहसी और बेबाक व्यक्तित्व पर प्रकाश डालती है.
हुआ यों कि सन 1957 में जब अयूब खान ने पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगा दिया था, उसी दौरान पंजाब यूनिवर्सिटी हाल में एक संगीत का जलसा करने की बात हुई.
आयोजकों के काफी आग्रह करने के बाद ही नूरजहां ने इस जलसे में गाने की हामी भरी. इस तरह के किसी पब्लिक कार्यक्रम में गाने का यह उनका पहला मौका था.
इन्हीं दिनों फ़ैज़ भी अपनी सरकार विरोधी विचारधारा और कार्यों के लिए रावलपिंडी जेल में थे. नूरजहां ने संगीत के इस जलसे में फ़ैज़ की ही एक नज़्म को पढ़ने का फैसला किया और चूंकि यह पूरा आयोजन सरकारी था, स्वाभाविक ही था कि सरकारी आयोजकों में उनकी इस फ़रमाइश से हड़कंप मच गया.
नतीजन, उन्होंने नूरजहां को फ़ैज़ की रचना गाने से मना कर दिया. इस बात पर गुस्से से भरी नूरजहां ने वहां से उठकर चलने की राह ली. बस, फिर क्या था…
नूरजहां की ज़िद के आगे अंततः सरकार को झुकना पड़ा और इस तरह यूनिवर्सिटी हॉल में फ़ैज़ की वह नज़्म गाकर नूरजहां ने इतिहास रच दिया, जिसे सुनकर तालियों की गड़गड़ाहट ने थमने का नाम ही नहीं लिया था.
इस घटना ने पूरे पाकिस्तान को स्तब्ध कर दिया था और स्वयं फ़ैज़ ने भी अपनी इस नज़्म को जेल में रेडियो पर सुना. बाद में एक बार जब ऑल इंडिया-पाकिस्तान उर्दू मुशायरा में फ़ैज़ को ये गीत गाने को कहा गया तो उन्होंने हंसकर कहा, ‘भाई, अब वो गीत मेरा कहां रहा, नूरजहां का हो गया है.’
प्रोफेशनल ज़िंदगी में मिली अपार सफलता और प्रसिद्धि के साथ-साथ अपनी निजी ज़िंदगी में उन्होंने कई दुख और अवसाद झेले. दो नामुकम्मल शादियों के अफ़सोस का तो ज़िक्र ही क्या, अपने चरित्र के भी पाक़-साफ होने की अग्नि-परीक्षा ताउम्र ही देनी पड़ी.
सिने जगत में जिस तरह के संबंधों की चर्चा पाठकों के लिए रोमांच की बात होती है, उनके असल पात्रों के लिए मानसिक अवसाद का ही सबब होती हैं.
अल्लाह वसाई से नूरजहां बनने का रास्ता उन्होंने खुद तय किया था, राह के फूल भी खुद चुने थे और कांटों का दर्द भी खुद ही झेला था. और एक स्त्री के रूप में तो उनकी सफलता और संघर्ष, दोनों ही का महत्व कई गुना बढ़ जाता है.
अपनी ज़िंदगी के संदर्भ में एक बात उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मैं नूरजहां हूं क्योंकि मैंने नूरजहां बनने के लिए कड़ी मेहनत की है. मैंने किसी से कुछ नहीं लिया, खासकर के मर्दों से तो कुछ भी नहीं.’
पर नूरजहां की यह बुलंद शख्सियत कई तरह की अपवादों-आरोपों का भी शिकार रहीं. कुछ उसी तरह के आरोप, जैसे कि अक्सर हमारे यहां लता मंगेशकर पर लगाए जाते हैं, नूरजहां पर भी लगे कि किस तरह उन्होंने नई गायिकाओं को पनपने-बढ़ने का मौका ही नहीं दिया.
मसलन रूना लैला के संबंध में यह कहा जाता था कि एक बार जिस रिकॉर्डिंग स्टूडियो में वह रिकॉर्ड कर रहीं थीं, वहां जाकर नूरजहां ने उन्हें सबके सामने थप्पड़ रसीद किया था. या किसी फलां अभिनेत्री को जूते से पीटा था.
आरोप जो भी रहे हों, मूल रूप से इस ओर ध्यान आकर्षित करवाते हैं कि एक प्रतिस्पर्धात्मक फिल्म इंडस्ट्री में इस तरह की गला-काट प्रतियोगिता थी कि एक ही काम करने वालों का एक-दूसरे का विरोधी बन जाना कोई बड़े अचंभे की बात नहीं थी.
और नूरजहां भी उसी परिवेश का एक हिस्सा थीं, इसलिए इस तरह के आरोपों की प्रामाणिकता और औचित्य के प्रश्न बने ही रहेंगे.
नूरजहां के व्यक्तित्व का एक बड़ा आकर्षण उनकी सुंदरता थी. उनके कलापूर्ण और रंगीन व्यक्तित्व की झलकियां हमें उनके पहनने-ओढ़ने के ढंग से या फिर बात करने के लहज़े से मिलती हैं.
मुख्तार बेग़म से साड़ी पहनने का ढंग सीखने वाली नूरजहां ने आगे चलकर गले में साड़ी से मेल खाते हुए रंग के स्कार्फ़ लपेटने की अपनी विशिष्ट स्टाइल विकसित की थी.
व्यक्तित्व में कला के प्रति अभिरुचि इतनी ही ज़्यादा थी कि उनके देहांत से पहले जब एक बार भारत से दिलीप कुमार उनसे मिलने गए तो बीमारी से कमज़ोर पड़ चुकी नूरजहां ने पहले अपना शृंगार करवाया तब जाकर के उनसे मिलीं.
यह कलाप्रियता उनके फिल्म व्यवसाय से एक कच्ची उम्र से जुड़े रहने की वजह से भी हो सकता है, जहां हर वक़्त अच्छा दिखने का दबाव अनायास ही व्यक्तित्व की विशेषता में शामिल हो जाता है.
बहरहाल यह उनके लार्जर देन लाइफ व्यक्तित्व का ही असर था कि उन्हें मार्लिन मुनरो ऑफ ईस्ट कहा जाता था. पाकिस्तान की फिल्मी दुनिया में उनकी तुलना एलिज़ाबेथ टेलर से की जाती थी.
लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में गाने वाली वह पहली पाकिस्तानी कलाकार थीं. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की एक और मिसाल देखने को मिलती है जब उन्होंने ‘तरन्नुम’ के नाम से 2 अंकों की एक म्यूज़िकल शृंखला टीवी पर शुरू की थी और यहां भी सफलता पाई.
नूरजहां: गायिका या अभिनेत्री?
क्या वजह है कि नूरजहां की गायकी की चर्चा हम आज भी कर रहे हैं? क्या इसीलिए कि नूरजहां एक अभिनेत्री से पहले एक गायिका थीं?
वो स्वयं भी यह कहती थीं कि उनका जन्म ही गाते-गाते हुआ था इसीलिए उनके अंदर की उस नैसर्गिक गायिका का आकर्षण उनके अभिनेत्री होने से ज़्यादा था.
गायकी, उनके व्यक्तित्व का सहज अंग था, अभिनय उन्हें सीखना पड़ा था. नूरजहां की गायकी उनके अभिनय पर हमेशा भारी पड़ती है.
सआदत हसन मंटो भी इस संदर्भ में कहते थे, ‘मैं उसकी शक्ल-सूरत और अदाकारी का नहीं उसकी आवाज़ का शैदाई था.…. इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा, अगर ये लड़की चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, उसी तरह जिस तरह बाज़ीगर तने हुए रस्से पर बग़ैर किसी लग्ज़िश के खड़े रहते हैं.’
नूरजहां की गायकी को हालांकि उनके अभिनय ने प्रभावित जरूर किया था. पर्दे पर अपनी बुलंद अदाकारी से जिस मार्मिकता से वह गीत के भावुक स्थलों को उकेर पाती थी, वह उनके गायन में भी जान डाल देता था.
गीत की लयात्मकता भले ही कर्णप्रियता का एक आवश्यक तत्व हो सकती थी, पर उस लय को अपनी आवाज़ से प्रस्तुत कर पाने का जिम्मा तो उन पर ही था.
उनके अधिकांश गानों में हम उन्हें कैमरा की तरफ सीधा देखते हुए पाते हैं, और ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अपने दर्शकों से सीधा संवाद स्थापित करना चाहती हों, जैसा रंगमच में होता है.
अपनी पुस्तक ‘नौशादनामा: द लाइफ एंड म्यूजिक ऑफ नौशाद’ में राजू भारतन ने इस संदर्भ में लिखा हैं, ‘नूरजहां ने महफिल शैली की गायकी को अपनी गायकी में बचाकर रखा, जिसमें गायक की एक जीवंत उपस्थिति को गायक के चरम आवेग, दैहिक भंगिमाओं और स्पष्ट उच्चारण से संतुलित किया जाता था. इस प्रकार गायन की अपेक्षा, प्रदर्शन प्रियता पर गायक का बल होता था. नूरजहां की गायकी में हम इसी महफिल शैली को पाते हैं, उदाहरण के लिए जवां है मोहब्बत या आवाज़ दे कहां है, में नूरजहां सिर्फ होठों से नहीं बल्कि शरीर के अंग-अंग से गाती हुई प्रतीत होती हैं.’
अक्सर संगीत की दुनिया से जुड़े लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि नूरजहां के पाकिस्तान चले जाने से भारतीय संगीत इंडस्ट्री को तो जो क्षति पहुंची, एक बड़ा नुकसान स्वयं ‘गायिका’ नूरजहां को भी हुआ.
भारतीय संगीत की विविधता या संगीतकारों की क्षेत्रीय विभिन्नता की वजह से भारतीय फिल्म संगीत का दायरा काफी बड़ा था, जिसका सबसे ज़्यादा लाभ गायकों को होता था.
नूरजहां को भी इस तरह अपनी गायकी के फ़न को दिखलाने और तराशने के बड़े अवसर भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में मिलते. पर इसके विपरीत पाकिस्तान में उन्होने स्वयं को बस उर्दू ग़ज़लों और पंजाबी गीतों तक सीमित रखा जिससे उनकी गायकी का दायरा अपेक्षाकृत सीमित रह गया.
नूरजहां: साझा रिश्तों का जश्न
पाकिस्तान जाने के बाद नूरजहां पहली बार भारत सन 1982 में आईं थीं, मौका था भारतीय टॉकीज फिल्मों के 50 साल पूरे होने का.
दिल्ली में स्वयं प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रपति भवन में उनका सम्मान किया था. अभिनेता दिलीप कुमार और लता मंगेशकर ने उन्हें मुंबई एयरपोर्ट पर रिसीव किया और इसी समारोह में नूरजहां ने अपना वह अमर गीत ‘आवाज़ दे कहां है गाया था’ जिसे सुनकर श्रोता भाव-विभोर हो गए थे.
इस अवसर पर दिलीप कुमार ने कहा था, ‘नूरजहां जी, जितने बरस के बाद आप हमसे मिलने आईं हैं, ठीक उतने ही बरस हम सबने आपका इंतज़ार किया है. आप पाकिस्तान की सांस्कृतिक धरोहर हैं, पर आपके आवाज़ का जादू पूरी दुनिया के लिए है. जो पूरब के संगीत को समझते हैं, वो आपके गाने को पसंद करते हैं. आपकी गायकी की खासियत इसकी विभिन्न छटाओं में है, जिसमें कहीं बचपन की बेपरवाह झलक है तो वहीं मुहब्बत और खूबसूरती के साथ, खुशियां और ग़म भी मौजूद है.’
इतनी अपार सफलता और जनता का इतना प्यार पाकर भी नूरजहां में अपने फ़न के लिए घमंड नहीं था. अपनी गायकी के विषय में वह हमेशा कहा करती थीं कि ‘हम गायक कुछ नहीं हैं. हम बस आपके सामने बनी-बनाई चीज़ अपनी आवाज़ के माध्यम से पेश कर देते हैं.’
वह कहती थीं कि कलाकार कभी नहीं मरते, अपनी कला और हुनर के द्वारा वो अपने चाहने वालों के लिए हमेशा ज़िंदा रहते हैं.
‘गाएगी दुनिया गीत मेरे’ गाने वाली नूरजहां ने सच में इस गीत के अर्थ को जीवंत कर दिया, जब उनके गुजरने के बीस साल बाद भी इनके गीतों को दोहराते हैं, तब महसूस होता है कि नूरजहां तो आज भी अपने गीतों में जीवित हैं.
प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख़्तर ने नूरजहां के इंतकाल पर कहा था कि ‘भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के सबसे खराब दौर में भी हमारी सामूहिक सांस्कृतिक विरासत ने एक पुल का काम किया. नूरजहां उसी सांस्कृतिक पुल की सबसे मज़बूत कड़ी थीं.
और यकीनन मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां की विरासत इन दोनों मुल्कों के संगीतप्रेमियों के दिलों को और इनकी लोक संस्कृति को हर दौर में जोड़ने का काम करेगी.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)