जब भी स्त्री अधिकारों की बात होगी, तो अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की जज रूथ बेदर गिंसबर्ग का नाम ज़रूर आएगा. रूथ ने न केवल अपने काम से लाखों औरतों को प्रेरित किया, बल्कि अपने फ़ैसलों के ज़रिये उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार भी खोले, जो लैंगिक भेदभाव के चलते बंद थे.
बीते महीने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश रूथ बेदर गिंसबर्ग का निधन हुआ, जो शायद हमारे लिए कोई बड़ी खबर न हो, पर सामाजिक स्तर पर लैंगिक समानता का स्वप्न देखने वालों के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है.
अमेरिका जैसे आधुनिक समाज में आज इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि कैसे एक वह भी दौर था, जब स्त्रियों के साथ कानूनी तौर पर भेदभाव किया जाता था और तमाम अवसरों और अधिकारों से उन्हें वंचित रखा जाता था, जिसके हक़दार सिर्फ पुरुष थे.
रूथ ने अमेरिकी समाज की इस असमानता और स्त्रियों के प्रति भेदभाव की नीति का कानूनी तौर पर मुकाबला किया और स्त्रियों को उनके संविधान सम्मत अधिकार दिलाए.
जस्टिस गिंसबर्ग के निधन से इतिहास के एक ऐसे युग और जीवन की स्वर्णिम समाप्ति हुई है, जब स्त्री-पुरुष अधिकारों की समानता को क़ानूनी संरक्षण देने की मुहिम शुरू हुई और यह उन्हीं के अनथक प्रयासों की परिणति है कि स्त्री अधिकारों का दायरा भविष्य के लिए, थोड़ा और विस्तृत हो पाया.
जस्टिस गिंसबर्ग की अपनी ज़िंदगी भी किसी मिसाल से कम नहीं थी. एक यहूदी परिवार में जन्मी रूथ की मां (जिन्होंने उन्हें गहरा प्रभावित किया था) अल्पायु में ही गुज़र गईं थीं.
शुरुआती संघर्षों के बाद उन्होंने कॉर्नेल विश्वविद्यालय से स्नातक डिग्री ली. इसके बाद कानून की पढ़ाई के लिए 1956 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाली 580 विद्यार्थियों की कक्षा में रूथ उन नौ लड़कियों में से एक थीं, जिन्हें विश्वविद्यालय के डीन ने ही पूछा था कि आप लड़कियां यहां हार्वर्ड में पुरुषों के स्थान पर क्यों हैं?
इस एक वाक्य से उस समय के अमेरिकी समाज की मनोदशा का पता लगता, जो स्त्रियों के प्रति इस हद तक भेदभाव ग्रस्त थी. अपने शुरुआती करिअर में रूथ खुद कई स्तर पर लैंगिक भेदभाव का शिकार हुई थीं.
1960 में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने उन्हें सिर्फ इस वजह से अपने मातहत क्लर्कशिप नहीं दी थी कि, वह एक महिला थीं और इस कारण वकालत करने से वंचित हो गईं.
बाद में वे रूटर्ग्स लॉ स्कूल में कानून की प्रोफेसर बनीं, पर यहां भी एक दूसरे स्तर पर भेदभाव को महसूस किया. इस स्कूल में यह पहले से ही तय था कि महिलाओं को उनके पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कम वेतन मिलेगा क्योंकि वे एक स्त्री हैं और साथ ही एक कमाऊ पति भी उनके पास है.
ऐसी चुनौतियों और माहौल के बीच रूथ अपने काम की बदौलत अमेरिका के सर्वोच्च कोर्ट की न्यायाधीश के पद पर आसीन हुईं औरअमेरिकी इतिहास में सैंड्रा डे ओ’कोनर के बाद ऐसा करने वाली वे दूसरी महिला थीं.
आगे चलकर रूथ ने साल 1970 में स्त्री अधिकारों के लिए समर्पित अमेरिका का पहला कानूनी जर्नल ‘विमेन’स राइट्स लॉ रिपोर्टर’ निकाला और कोलंबिया लॉ स्कूल में अपने अध्यापन के दौरान लैंगिक भेदभाव पर आधारित, पहली कानूनी केसबुक लिखी.
1971 में रूथ अमेरिकी न्यायिक व्यवस्था की एक ऐसी अहम सुनवाई/निर्णय का हिस्सा बनीं, जो मील का पत्थर साबित हुई. ‘रीड बनाम रीड केस’ के नाम से प्रसिद्ध इस सुनवाई में अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसे प्रचलित कानून को असंवैधानिक करार दिया था, जो किसी भी संपत्ति के संरक्षक और वितरक के रूप में एक पुरुष को स्त्रियों की अपेक्षा वरीयता देता था.
सर्वोच्च न्यायालय ने इसी केस के सिलसिले में यह प्रसिद्ध निर्णय दिया था कि अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन में जिस समान कानूनी सुरक्षा (equal protection of law) की बात की गई है, वह राज्य द्वारा लैंगिक आधार पर किए जाने वाले भेदभाव से भी नागरिकों की सुरक्षा करेगा.
अमेरिकी न्यायिक इतिहास में शायद यह पहली बार था, जब सर्वोच्च न्यायालय ने लैंगिक भेदभाव बरतने के आधार पर एक राज्य स्तरीय कानून को असंवैधानिक करार देते हुए ख़ारिज़ कर दिया था.
बराबरी के सिद्धांत की पैरोकार
रूथ बेदर के संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह नहीं थी कि वे स्त्री अधिकारों की समर्थक थीं, बल्कि यह भी है कि वे समानता का अधिकार दोनों लिंगों के लिए ज़रूरी समझती थीं.
उन्होंने पुरुषों के अधिकार को भी कानूनी मान्यता दिलवाई. ‘वेनबर्गर बनाम विसेनफील्ड केस’ (1975) में एक विधुर को रूथ ने क़ानूनी अधिकार दिलवाया था, जिसे अपने बच्चे के पालन-पोषण के लिए वो सारी क़ानूनी सुविधाएं नहीं दी जा रहीं थी, जो आम तौर पर औरतों या मांओं को दी जाती थीं.
और देखा जाए तो लैंगिक समानता वास्तव में स्त्री और पुरुष दोनों ही लिंगों की बराबरी का सिद्धांत है और रूथ इसकी सच्ची अगुआ थीं.
1972 में रूथ अमेरिकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन (एक गैर-लाभकारी संस्था, जो जनहित के लिए नागरिक अधिकारों से संबंधित केस पर काम करती थी) से जुड़ीं, जहां उन्होंने ‘स्त्री अधिकार प्रोजेक्ट’ की नींव रखी.
इस प्रोजेक्ट ने 300 से भी ज़्यादा ऐसे केस में हिस्सा लिया जो लैंगिक भेदभाव से संबंधित थे. इस प्रोजेक्ट की अध्यक्ष के तौर पर रूथ ने सर्वोच्च न्यायालय में लैंगिक असमानता से संबंधित 6 महत्वपूर्ण केस, 1973 से 1976 के दौरान लड़े, जिनमें से 5 में सफलता भी मिली.
रूथ ने सर्वोच्च न्यायालय में अपने एक केस (फ्रंटिएरो बनाम रिचर्डसन केस, 1973) के सिलसिले में ‘सारा ग्रिमके’ (19वीं शताब्दी की प्रमुख नारीवादी समाजसुधारक, जिन्हें महिलाओं के मतदान के अधिकार संबंधी आंदोलन की जननी के रूप में जाना जाता है) के एक कथन को दोहराया था,
‘मैं लैंगिक आधार पर मेरे (स्त्रियों के) लिए किसी तरफदारी की मांग नहीं कर रही हूं. मैं बस यह चाहती हूं कि हमारे भाई हमारी गरदनों से अपने पांव हटा लें.’ [I ask no favour for my sex. All I ask of our brethren is that they take their feet off our necks]
साल 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने रूथ को सर्वोच्च न्यायालय की एसोसिएटेड जस्टिस के तौर पर प्रस्तावित किया था. सुप्रीम कोर्ट की जज के रूप में भी रूथ ने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए, जिसने स्त्री अधिकारों की नयी व्याख्या की.
1996 में ‘संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम वर्जीनिया केस’ में जस्टिस गिंसबर्ग ने वह चर्चित फैसला दिया था, जिसने केवल पुरुषों के लिए आरक्षित वर्जीनिया मिलिट्री इंस्टिट्यूट के औरतों के लिए बंद दरवाजे खोल दिए. इस निर्णय ने स्त्री अधिकारों के एक नए युग की शुरुआत की.
अपने पूरे कार्यकाल में रूथ बेदर की ख्याति एक ऐसे जज के रूप में थी, जो बहुसंख्यक निर्णयों (majority opinion) से अपनी असहमति जताने के लिए जानी जाती थीं.
न्यायिक व्यवस्थाओं की स्थिति को देखकर समझा जा सकता है कि न्याय के उस सर्वोच्च स्थान पर बैठकर अपने विवेक को जागृत रखते हुए असहमति दर्ज करवा पाने का दम-खम रखना कितना कठिन हो सकता है.
मसलन 2007 में सर्वोच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण निर्णय में जस्टिस गिंसबर्ग ने अपनी असहमति दर्ज करवाई थी, जबकि अन्य न्यायधीशों ने उस केस की याचिकाकर्ता लिली लेड्बेटर (जिसे एक समान काम के लिए अपने पुरुष सहकर्मियों से कम वेतन दिया जा रहा था) के खिलाफ निर्णय दिया था.
पर रूथ की उस ऐतिहासिक असहमति ने अंतत: सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया, जिसके परिणामस्वरूप साल 2009 में अमेरिका में ‘लिली लेड्बेटर फेयर पे एक्ट’ लागू किया गया, जो आय में लैंगिक समानता लाने का एक महत्वपूर्ण कदम बना.
रूथ बेदर की मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्धता जीवन के अंतिम समय तक बनी रही और स्त्री अधिकारों के समर्थन में जगह-जगह उन्होंने अपने व्याख्यान दिए.
2018 में हुए ‘मी टू आंदोलन’ के समर्थन में भी उन्होंने कहा था, ‘ये समय की बात है. अब तक औरतें यह सोचकर चुप थीं कि इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता है, पर अब जबकि कानून उन महिलाओं और पुरुषों, जिन्होंने उत्पीड़न का अनुभव किया है, के साथ खड़ा है तो, यह बहुत अच्छी बात है.’
अपनी निजी ज़िंदगी में भी रूथ की सफलता ने स्त्री-पुरुष संबंधों का एक नया आयाम जिया. मार्टिन डी. गिंसबर्ग कॉर्नेल विश्वविद्यालय में रूथ के सीनियर थे, जिनसे स्नातक खत्म होने के साथ ही रूथ ने विवाह किया था.
साल 2010 में विवाह की 56वीं सालगिरह मनाने के चार दिन बाद मार्टिन के देहांत के साथ उनका साथ खत्म हुआ. एक ही पेशे में रहते हुए भी दोनों ही ने एक दूसरे की प्रगति को ज़िंदगी का ध्येय माना और जिम्मेदारियों का निर्वहन भी समान स्तर पर किया.
रूथ और मार्टिन इस दृष्टि से एक अतुलनीय दंपति थे. मार्टिन न केवल एक पति के रूप में बल्कि एक सहकर्मी के तौर पर भी रूथ की क़ानूनी बुद्धिमत्ता के प्रशंसक थे.
गुजरने से पहले मार्टिन ने रूथ के नाम जो संदेश लिखा था वह इस जोड़ी के अनोखे प्रेम और विश्वास को दिखलाता है, ‘रूथ, अगर अपने माता-पिता, बच्चों और उनके बच्चों को थोड़ा अलग कर के देखूं, तो बस तुमसे ही मैंने ताउम्र प्रेम किया है. मैंने तबसे तुम्हें चाहा, और तुम्हारा प्रशंसक रहा, जब हम कोई 56 साल पहले कॉर्नेल में मिले थे.’
रूथ ने अपनी ज़िंदगी के बारे में अपनी आत्मकथा ‘माइ ओन वर्ड्स‘ में लिखा है. उनकी ज़िंदगी पर सिनेमा और डॉक्युमेंट्री भी बन चुके हैं.
उनके असहमति से भरे निर्णयों ने उन्हें अमेरिकी कानून व्यवस्था में एक तरह से कुख्यात कर दिया था और वो ‘नोटोरियस आरबीजी’ (Notorious RBG) के रूप में मशहूर थीं.
युवा वर्ग में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी छवि से प्रेरित होकर के तरह-तरह के कार्टून, सामान इत्यादि बना करते थे.
देखा जाए तो वास्तव में जस्टिस रूथ बेदर गिंसबर्ग की कहानी किसी सुपरहीरो से कम नहीं थी. उनके काम ने लाखों महिलाओं के लिए न केवल प्रेरणा का कार्य किया, बल्कि संभावनाओं और अवसरों के अनगिनत द्वार खोल दिए, जो केवल लैंगिक भेदभाव के कारण महिलाओं के लिए बंद थे.
(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)