हिंदी के टूटने से देश की भाषिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी

हमें भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण रखना है तो हिंदी को टूटने से बचाना होगा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है.

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(फोटो साभार: सोशल मीडिया)

हमें भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण रखना है तो हिंदी को टूटने से बचाना होगा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है.

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हिंदी की बोलियों को लेकर अपने निहित स्वार्थ के लिए जो हिंदी को तोड़ने का उपक्रम कर रहे हैं वे देश की भाषिक व्यवस्था के समक्ष गहरा संकट उपस्थित कर रहे हैं.

इस संदर्भ में हिंदी के तमाम बुद्धिजीवी डॉ. अमरनाथ के साथ हैं. इस संदर्भ में मेरा मानना है कि आज हिंदी के समक्ष एक ऐतिहासिक संकट उत्पन्न किया जा रहा है. इसके क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ कार्य कर रहे हैं. वस्तुतः जिसे हम इस देश की राजभाषा हिंदी कहते हैं वह अनेक बोलियों का समुच्चय है.

हिंदी की यही बोलियां उसकी प्राणधारा हैं जिनसे वह शक्तिशालिनी बनकर विश्व की सबसे बड़ी भाषाओं में से एक बनी है लेकिन जो बोलियां विगत 1300 वर्षों से हिंदी का अभिन्न अवयव रही हैं उन्हें कतिपय स्वार्थी तत्व अलग करने का प्रयास कर रहे हैं.

ऐसी स्थिति में हमें एकजुट होकर हिंदी को टूटने से बचाना चाहिए अन्यथा देश की सांस्कृतिक व भाषिक व्यवस्था चरमरा जाएगी. यह विचारणीय है कि हिंदी और उसकी तमाम बोलियां अपभ्रंश के सात रूपों से विकसित हुई हैं और वे एक दूसरे से इतनी घुलमिल गयी हैं कि वे परस्पर पूरकता का अद्भुत उदाहरण हैं.

यह भी सच है कि हिंदी के भाग्य में सदैव संघर्ष लिखा है. वह संतों, भक्तों से शक्ति प्राप्त करके लोक शक्ति के सहारे विकसित हुई है. आज विश्व की नवसाम्राज्यवादी ताकतें हिंदी को तोड़ने का उपक्रम कर रही हैं.

वे भलीभांति जानती हैं कि यदि हिंदी इसी गति से बढ़ती रहेगी तो विश्व की बड़ी भाषाओं मसलन मंदारिन, अंग्रेजी, स्पैनिश, अरबी इत्यादि के समक्ष एक चुनौती बन जाएगी और इंग्लैंड को आज यह भय सता रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि 2050 तक अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी वहां की प्रमुख भाषा बन जाए.

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अभी कुछ समय पहले पंजाबी कनाडा की दूसरी राजभाषा बना दी गई है. दूसरी ओर आज हिंदी मानव संसाधन की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बन गयी है. हिंदी चैनलों की संख्या लगातार बढ़ रही है. बाजार की स्पर्धा के कारण ही सही अंग्रेजी चैनलों का हिंदी में रूपांतरण हो रहा है.

इस दौर में वेब-लिंक्स और गूगल सर्किट का बोलबाला है. इस समय हिंदी में भी एक लाख से ज्यादा ब्लॉग सक्रिय हैं. अब सैकड़ों पत्र- पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हैं.

गूगल का स्वयं का सर्वेक्षण भी बताता है कि विगत एक वर्ष में सोशल मीडिया पर हिंदी में 94 प्रतिशत सामग्री में इजाफा हुआ है जबकि अंग्रेजी में केवल 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है.

यह इस बात का द्योतक है कि हिंदी न केवल विश्व भाषा बन गयी है अपितु वैश्वीकरण के संवहन में अपनी प्रभावी भूमिका अदा कर रही है. हिंद और हिंदी की विकासमान शक्ति विश्व के समक्ष एक प्रभावी मानक बन रहे हैं फलतः कतिपय स्वार्थी तत्व हिंदी को तोड़ने में संलग्न हो गये हैं.

वे जानते हैं कि हिंदी बाहर की तमाम चुनौतियों का सामना करने के लिए सन्नद्ध हो रही है. यदि उसे कमजोर करना है तो बोलियों से उसका संघर्ष कराना होगा. इस लक्ष्य से परिचालित होकर इस समय हिंदी की 38 बोलियां संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए प्रयासरत हैं.

यदि ऐसा होता है तो न केवल हिंदी कमजोर होगी अपितु हिंदी के बृहत्तर परिवार से कटते ही उन बोलियों का भविष्य भी अनिश्चित हो जाएगा. आखिर जो विषय साहित्य, समाज, भाषा विज्ञान और मनीषी चिंतकों का है उसे राजनीतिक रंग क्यों दिया जा रहा है. अब तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी कह दिया है कि कोई भी राजनीतिक दल जाति, धर्म और भाषा के आधार पर मत नहीं मांग सकता.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब संविधान निर्माताओं ने देश की राजभाषा के रूप में हिंदी का सर्वसम्मति से चयन किया था तो उन्होंने स्वेच्छा से देश हित में बोलियों का बलिदान करवाया था.

यह सारा देश जानता है कि हिंदी अपने संख्याबल के कारण भारत की राजभाषा है और इसी ताकत के बल पर संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल कर सकती है.

लोकतंत्र में संख्या बल के महत्व से सभी परिचित हैं. यदि भोजपुरी, राजस्थानी समेत हिंदी की किसी भी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है तो हिंदी चिंदी-चिंदी होकर बिखर जाएगी और संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने का लक्ष्य ध्वस्त हो जाएगा.

इससे हिंद और हिंदी के सांस्कृतिक-भाषिक बिखराव की अंतहीन प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी जिसे कोई भी सरकार संभाल नहीं पाएगी. यहां तक कि गांधी, सुभाष, विनोबा भावे समेत तमाम विभूतियों का संघर्ष और स्वप्न मिट्टी में मिल जाएगा.

जो कार्य अंग्रेज दो सौ वर्षों के शासन के द्वारा नहीं कर सके वह हमारे बीच के कतिपय स्वार्थी तत्व साकार कर देंगे अर्थात 2050 तक अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या हिंदी बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जाएगी और हिंदी को बेदखल करके अंग्रेजी को सदा सर्वदा के लिए प्रतिष्ठित कर दिया जाएगा.

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हमारी हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता अपनी पहचान खो बैठेगी. इसलिए देशवासियों को जागने और तत्पर होने की जरूरत है. हिंदी के टूटने से देश की भाषिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी और देश को भावनात्मक एकता के सूत्र पिरोने वाला तंतु कमजोर हो जाएगा.

ऐसी स्थिति में देश की सांस्कृतिक व्यवस्था भी बिखर जाएगी जिसकी फलश्रुति देश की बौद्धिक परतंत्रता में होगी. जिस तरह गंगा अनेक सहायक नदियों से मिलकर ही सागर तक की यात्रा करती हैं और अपने साथ उन नदियों को भी सागर तक पहुंचाती है उसी तरह हिंदी से अलग होते ही बोलियों का अस्तित्व भी संकट में आ जाएगा.

हिंदी हमारी राष्ट्रीय अस्मिता की संवाहक है. वह राष्ट्रीय संपर्क और संवाद का एकमात्र माध्यम है. यदि हम इस माध्यम अथवा आधार को ही कमजोर कर देंगे तो देश अपने आप कमजोर हो जाएगा. हमारी भारतीयता कमजोर हो जाएगी.

आचार्य चाणक्य कहा करते थे कि भाषा, भवन, भेष और भोजन संस्कृति के निर्माणक तत्व हैं. यदि आज नई पीढ़ी चीनी व्यंजनों, मैकडोनाल्ड के बर्गर और पेप्सी-कोक पर लार टपकाती है, अंग्रेजों जैसा कपड़ा पहनती है तो भाषा ही एकमात्र साधन है जो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और संस्कृति की रक्षा कर सकती है.

मैं भारत सरकार और माननीय प्रधानमंत्री जी से आग्रह करता हूं कि यह भाषाई राजनीति केवल भोजपुरी और राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा देने से खत्म नहीं होगी. यह आरक्षण से भी ज्यादा खतरनाक खेल है जब तक सारी 38 बोलियों को भाषा का दर्जा नहीं मिल जाएगा तब तक वे संघर्षरत रहेंगी.

इसके बाद मराठी, गुजराती समेत दूसरी भाषाओं की बोलियां भी स्वतंत्र भाषा का दर्जा हासिल करने के लिए संघर्षरत होंगी. ऐसी स्थिति में भयावह भाषिक अराजकता फैल जाएगी जिससे निपटना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा.

केवल वोट की राजनीति के लिए हिंद और हिंदी के स्वाभिमान पर चोट न की जाए. उसे तोड़ा न जाए. आज जिस भोजपुरी का कोई मानक रूप नहीं है, कोई व्याकरण नहीं है, कोई साहित्यिक परंपरा नहीं है और जिसमें कोई दैनिक अखबार नहीं निकलता है, उसे हिंदी से अलग करने वाले आखिर किस पात्रता पर बात कर रहे हैं.

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इस संदर्भ में महात्मा गांधी का कथन विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ‘जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण है कि हर बोली को चिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो, वह राष्ट्र विरोधी और विश्व विरोधी है. मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिंदी (हिंदुस्तानी) की बड़ी धारा में मिला देना चाहिए. यह देश हित के लिए दी गई कुर्बानी होगी आत्महत्या नहीं.’ यंग इंडिया, 27 अगस्त 1925.

इसी लक्ष्य को साकार करने का कार्य हमारे संविधान निर्माताओं ने किया है. इस महादेश में आंतरिक एकता तथा संवाद का एकमात्र माध्यम बनकर हिंदी ने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है.

अंतर्राष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन के प्रथम अध्यक्ष डाॅ. विद्यानिवास मिश्र ने हिंदी का विभाजन शीर्षक आलेख में लिखा है, ‘जो बोलियों को आगे बढ़ाने की बात करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि ये बोलियां एक दूसरे के लिए प्रेषणीय होकर ही इन बोलियों के बोलने वालों के लिए महत्व रखती हैं, परस्पर विभक्त हो जाने पर इनका कौड़ी बराबर मोल न रह जाएगा.

भोजपुरी, अवधी, मैथिली, बुंदेली या राजस्थानी के लिए गौरव होने का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि हिंदी का अब तक का इतिहास, एक केंद्र निर्माता इतिहास झूठा हो जाए और इतने बड़े भू भाग के भाषा-भाषी एक दूसरे से बिराने होकर देश के विघटन के कारण बन जाएं.’

इस तरह हिंदी का संयुक्त परिवार अगर टूटता है तो देश भी कमजोर हो जाएगा. अतः व्यापक राष्ट्र हित में हमें हिंदी को मजबूत बनाना चाहिए और बोलियों को भाषा बनाने का क्षुद्र मोह छोड़ना चाहिए.

अंत में मैं माननीय प्रधानमंत्री जी से आग्रह करता हूं कि वे हिंदी को लेकर वाकई कुछ करना चाहते हैं तो उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाएं.

इससे न केवल हिंदी जगत उनका सदा सर्वदा के लिए आभारी हो जाएगा अपितु कम से कम दस साल के लिए उनका प्रधानमंत्री पद भी सुरक्षित हो जाएगा.

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यदि वे योगदिवस के लिए विश्व के 170 देशों का समर्थन जुटा सकते हैं तो हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए 129 देशों के समर्थन की दरकार है. इसे वे आसानी से जुटा सकते हैं. उन्होंने विश्व भर में हिंदी में भाषण देकर उसके गौरव को बढ़ाया है.

साथ ही मैं देशवासियों से भी अपील करता हूं कि हमें भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण रखना है तो हिंदी को टूटने से बचाना होगा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है. इतिहास हमें तटस्थ रहने की छूट नहीं देगा. इस समय जो हिंदी का पक्ष नहीं लेगा उसे भावी पीढ़ियां क्षमा नहीं करेंगी.

(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं)