पत्रकार प्रिया रमानी पर पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर द्वारा दायर मानहानि मामले को दूसरे कोर्ट को भेजने के निर्णय का अर्थ है कि आख़िरी दौर की जिरहों को दोबारा सुना जाएगा. निश्चित रूप से न्यायिक प्रशासन की इस बड़ी ग़लती के लिए किसी को तो जवाबदेह होना होगा.
नई दिल्लीः दिल्ली की एक मेट्रोपोलिटन अदालत ने पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर द्वारा पत्रकार प्रिया रमानी के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों के बाद दायर किए गए आपराधिक मानहानि के मुकदमे को दूसरी सक्षम अदालत को सौंपने को कहा है.
अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन विशाल पाहुजा ने मंगलवार को कहा कि अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के संदर्भ से देखें, तो उनकी अदालत इस मामले की सुनवाई में सक्षम नहीं है.
उन्होंने कहा कि यह अदालत जन प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों की सुनवाई के लिए नामित की गई है. इस आदेश के अनुसार, सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बनाई गई हैं.
जज पाहुजा के मंगलवार के आदेश के अनुसार,
‘अदालत के 23 फरवरी 2018 के आदेश के अनुसार सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें बनाई गई हैं. मौजूदा मामला सांसद या विधायक के खिलाफ दायर नहीं किया गया है इसलिए इस अदालत में इसकी सुनवाई नहीं हो सकती और इसे सक्षम न्यायालय में शिफ्ट किए जाने की जरूरत है.’
एमजे अकबर द्वारा अक्टूबर 2018 में दायर किए गए आपराधिक मानहानि के मामले में रमानी ने दोषी न होने की दलील दी. इसके बाद अकबर ने आईपीसी की धारा 499 के तहत पटियाला हाईकोर्ट का रुख किया था.
उन्होंने खुद पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों को झूठा, फर्जी, अनुचित और निंदनीय करार दिया था. मामले में अकबर की ओर से अदालत में पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गीता लूथरा ने कहा कि जब रमानी ने सोशल मीडिया के जरिए अकबर पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए, तो उस समय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था और ये आरोप मानहानिकारक हैं.
एसीएमएम ने चार मई 2019 को मामले की सुनवाई शुरू की थी. पूरी जिरह होने के बाद मामले में अंतिम बहस सात फरवरी 2020 को शुरू हुई थी. तब से दोनों पक्षों के बीच सात दिनों तक चली बहस पूरी हुई.
उन्होंने रमानी के बचाव में सच्चाई, विश्वास, जनहित की बात कही. उन्होंने 14 महिलाओं द्वारा अकबर पर लगाए गए आरोपों को ध्यान में रखते हुए अकबर की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के दावों को खारिज किया.
सुनवाई के आखिरी दिन रेबेका जॉन ने अपनी जिरह पूरी की थी कि आखिर क्यों रमानी को बरी किया जाना चाहिए.
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, रेबेका जॉन ने 19 सितंबर को कहा था कि लोकतंत्र के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण और आंतरिक है और रमानी इस बड़े मीटू अभियान का छोटा-सा हिस्सा है, जिसके तहत कई महिलाओं ने आगे आकर अपने खिलाफ हुए यौन दुर्व्यवहार के अनुभवों को साझा किया था.
जब मंगलवार को जज ने मामले को अन्य अदालत में शिफ्ट करने का फैसला किया, तब लूथरा को रेबेका जॉन की बहस का जवाब देना था.
मंगलवार को जस्टिस पाहुजा के आदेश में उस प्रशासनिक चूक, जिसके चलते यह मामला विशेष अदालत में आया, को लेकर कुछ नहीं कहा गया है.
रेबेका जॉन इस मामले में प्रो बोनो यानी स्वैच्छिक तौर पर निशुल्क काम कर रही हैं और हर दिन की बहस का मतलब है महीनों की तैयारी. क्या अदालत उनके जैसी वकील को हल्के में नहीं ले रही है?
हालांकि जॉन ने मंगलवार के निर्णय के बारे में कोई भी टिप्पणी करने से इनकार किया है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि बात उतनी नहीं है, जितनी दिखाई दे रही है.
लेकिन आधिकारिक कारण की भी बारीकी से जांच की जानी जरूरी है.
जज पाहुजा द्वारा जिस सुप्रीम कोर्ट मामले का हवाला दिया गया, वह 2016 से लंबित है. इस मामले में पारित हुए कुछ फैसले समय-समय पर सामने आते रहे हैं.
25 मार्च 2019 को तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस दीपक गुप्ता ने मद्रास हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को उसके अधिकार क्षेत्र में लंबित सांसदों और विधायकों से संबंधित सभी आपराधिक मामलों को चेन्नई में तमिलनाडु के चुने गए विधायकों और सांसदों से जुड़े मामलों की विशेष अदालत में ट्रांसफर करने के निर्देश दिए हैं.
तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस संजय कौल और जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ द्वारा चार दिसंबर 2018 को पारित किए गए आदेश के मुताबिक:
‘हर जिले में एक सत्र अदालत और एक मजिस्ट्रेट अदालत को नामित करने के बजाए हम सभी हाईकोर्ट से पूर्व और मौजूदा विधायकों और सांसदों से संबंधित आपराधिक मामलों को सत्र और मजिस्ट्रेट अदालतों मे आवंटित करने का आग्रह करते हैं. हमारे अनुसार यह जिले में विशेष अदालतों में पूर्व और मौजूदा विधायकों एवं सांसदों से जुड़े सभी मामलों पर ध्यान लगाने के बजाए अधिक प्रभावी कदम होगा.’
एक नवंबर 2017 को जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस नवीन सिन्हा की पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एएन एस नदकर्णी का बयान दर्ज किया था, जिसमें कहा गया था,
‘मौजूदा मामला प्रतिकूल मुकदमेबाजी नहीं है और केंद्र सरकार नेताओं से जुड़े सभी आपराधिक मामलों की सुनवाई और इसके त्वरित निपटान के लिए विशेष अदालतों के गठन का विरोध नहीं करेगी.’
इस मामले में पिछली सुनवाई 16 सितंबर को हुई थी, जस्टिस एनवी रमन्ना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की पीठ ने स्पष्ट किया कि इस मामले में जारी किए गए नोटिस का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि चुने गए प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों का तेजी से निपटारा किया जाए.
जस्टिस रमन्ना ने आदेश के पैराग्राफ 14 में स्पष्ट किया कि अदालत की राय थी कि देश में सिर्फ राजनीति में अपराध बढ़ने की वजह से ही इस तरह के विशेष विचारों की जरूरत नहीं है बल्कि चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा मामले को प्रभावित या बाधित करने की शक्ति की वजह से भी इसकी जरूरत है. इसके अतिरिक्त विधायक या सांसद अपने मतदाताओं की आस्था और विश्वास के संग्राहक भी हैं. अपने पूर्ववर्ती विधायकों या सांसदों से अवगत होना भी जरूरी है.
पैराग्राफ 17 में पीठ ने कहा,
‘एक्शन प्लान तैयार करते हुए उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जब इन मुकदमों सुनवाई अविलंब तरीके से चल रही हो, तब क्या इन्हें ट्रांसफर किया जाना आवश्यक और उचित होगा.’
पीठ ने पैराग्राफ 20 में सभी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को यह आग्रह किया कि वे मौजूदा या पूर्व विधायकों या सांसदों से जुड़े सभी लंबित आपराधिक मामलों, विशेष रूप से उन मामलों में जहां रोक लगा दी गई है, को मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा चुने गए जजों के सामने भेजें और यह तय करें कि क्या यह रोक जारी रखनी चाहिए.
पीठ ने कहा कि कोविड-19 की स्थितियां इन दिशानिर्देशों के पालन में बाधा नहीं बननी चाहिए क्योंकि इन मामलों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आसानी से सुना जा सकता है.
हालांकि यह मामले की सुनवाई के रिकॉर्ड से स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट मौजूदा और पूर्व सांसदों के संदर्भ में शामिल और खिलाफ शब्दों का इस्तेमाल करता रहा है.
अगर जस्टिस रमन्ना की पीठ द्वारा दिए गए आखिरी आदेश के स्पष्टीकरण का कोई संकेत है तो पीठ का मतलब यह नहीं होगा कि पैराग्राफ 14 के तर्क की वजह से अकबर द्वारा दायर किए गए मानहानि मामले को विशेष अदालत के दायरे से बाहर किया जाए.
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