बहुत सारे अधिकार संविधान सभा की बहसों से निकले थे, जब भारतीय संविधान बना तो उसमें उन अधिकारों को लिख दिया गया और बहुत सारे अधिकार बाद में दलितों ने अपने संघर्षों-आंदोलनों से हासिल किए थे. हालांकि दलितों का बहुत सारा समय और संघर्ष इसी में चला गया कि राज्य ने उन अधिकारों को ठीक से लागू नहीं किया.
मैं अपनी बात कुछ सामान्य बातों के साथ शुरू करना चाहूंगा. ये वे बातें हैं, जो भुला दी गई हैं या हम अभिनय करते रहते हैं कि हमने इन्हें भुला दिया है, जबकि ये बातें हमारी दुनिया में हमारे आसपास मौजूद रहती हैं.
गांव में, बस्तियों के दक्षिण में, खेत मजदूर के रूप में काम करते, कभी-कभी, कहीं-कहीं गाली खाते, हिंसा और दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में, उनकी महिलाओं के बलात्कार के रूप में यह सब दिखाई पड़ता है.
यह सब आपको अखबारों में रोज दिखता भी है और अगले दिन गायब भी हो जाता है. ऐसा इसलिए भी होता है कि दूसरा दिन कार्यवाही का दिन होता है. इसी दिन समाज, राज्य और राजनीति की परीक्षा होती है कि वह इन सताए गए लोगों के पक्ष में खड़ा होगा या फिर इस समस्या की ओर ध्यान ही देगा. जैसा कि हाथरस में पीड़िता के साथ किया गया.
यहां मैं ये बात क्यों लिख रहा हूं, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है हमने इन चीजों से अपना ध्यान हटा सा लिया है और हम कुछ और देखने लगते हैं, क्योंकि राज्य का चरित्र ऐसा है कि हम सभी वही देखें जो वह दिखाना चाहता है.
इसमें राज्य की संस्थाओं के रूप में खुद राज्य और प्रेस, मीडिया, लेखक, अधिकारी, राजनीतिक दल सभी शामिल होते हैं. इसमें और भी चीजें शामिल होती हैं. आप सब उनको जानते हैं, लेकिन ये हुआ क्यों और कैसे?
ये हुआ है दलित राजनीति के कारण, क्योंकि हम लोगों की स्मृति में दलित अब चुनाव की वस्तु के रूप में नजर आते हैं. टीवी, अखबार, नेताओं के बयानों में उन्हें एक वोट के तौर पर देखा जाता है.
हाथरस, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी
भूल जाइए हाथरस, भूल जाइए बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, जौनपुर, उन्नाव, राजस्थान, बिहार या दिल्ली की निर्भया को भी. यहां बहुत कुछ है भूलने के लिए या भुला दिए जाने के लिए.
और लड़कियां होती ही हैं भूलने या भुला देने के लिए. उसमें अगर दलित, आदिवासी या गरीब हैं तो फिर उन्हें क्यों याद किया जाए.
हालांकि जब उनका वोट हमें लेना होता है तब हम उन्हें बड़ी शिद्दत से याद करते हैं. इस दौरान कई तरह की कहानियां गढ़ी जाती हैं. ये सब समय, स्थान, जगह, व्यक्ति, धर्म, जाति को देखकर किया जाता है और धारणा ऐसी बनाई जाती है कि इनके बिना लोकतंत्र संभव ही नहीं है.
इस बीच इन भुला दिए गए लोगों को लगता है कि अरे ये क्या देश के लिए हम इतने महत्वपूर्ण हो गए. लेकिन इसके बाद इस कहानी के पूरा होते ही आप फिर भुला दिए जाते हो.
अब हाथरस को ही ले लीजिए दिन बीतने के साथ ही नई-नई कहानियां सुनने में आने लगी हैं. कोई कह रहा है प्रेम प्रसंग था, राज्य कह रहा है कोई बड़ी साजिश थी.
कोई कह रहा कि हम लोग उन लोगों से बात ही नहीं करते हैं तो हमारे लड़के उनकी लड़की को कैसे छुएंगे?
ये जाति का अहंकार है. बलिया के एक विधायक कह रहे हैं कि लड़कियों को संस्कारित करना चाहिए. अब खेत-खलिहान में काम कर रहीं लड़कियों को कौन-सा संस्कार सीखना चाहिए ये विधायक जी ही बता सकते हैं.
पीड़ित परिवार और समुदाय के लोग कह रहे हैं कि साहब हम तो इन्हें दूर से ही सीता-राम कर लेते हैं. अब इसे डर नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे. हम सभी जानते हैं कि खेत और जमीन किसके हैं, किसके पास ज्यादा हैं और उन पर निर्भरता किन लोगों और समुदायों की है.
निर्भर समुदाय हमेशा ही डरा और सहमा रहता है. यहां राज्य और उसकी संस्थाओं की भूमिका बढ़ जाती है कि वह किसके साथ खड़ा होगा.
इन दिनों हो रहीं हिंसा और घटनाओं को देखिए कौन मर रहा है और कौन मार रहा है? इसके पीछे कौन है? क्या कारण हैं?
हाल की में हाथरस, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, जौनपुर, उन्नाव, राजस्थान, बिहार आदि शहरों और राज्यों में महिलाओं के खिलाफ अपराध की जो घटनाएं हुईं, उनमें क्रूरतम से क्रूरतम तरीके शामिल रहे हैं.
इस संदर्भ में जो लोग दलितों को दिए गए संवैधानिक अधिकारों, कानूनों को खत्म करने की बात करते हैं. मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रख पाता मेरा तो यहीं मानना है कि दलितों को विशेष संरक्षण जरूरी है.
कानून, राज्य के विशेष सहयोग और सकारात्मक संरक्षण की इसलिए जरूरत है ताकि वो मारे न जा सके. सीमित ही सही कानूनी संरक्षण से उन्हें कुछ राहत जरूर मिलती है.
राज्य और शिक्षा की भूमिका
देखिए, बहुत ही साधारण बात है जिसे गंभीरता से लेने की जरूरत है. ये लोग पीड़ित रहे लोग हैं, ये एक दिन की पीड़ा नहीं है. इस पीड़ा की अपनी सामाजिकी है.
सवाल है कि हो सकता है कि इनके द्वारा कही गईं बातें आक्रोश में कही जा रही हों. सदियों का संताप है ये एक दिन में नहीं जाएगा. कभी-कभी तो आपसे ये अपनी बात भी ठीक से नहीं कह सकते, क्योंकि डर का माहौल बनाया गया है. हाथरस की पीड़ित परिवार की महिलाओं को ही देख लीजिए, अपनी बात भी ठीक से नहीं कह पा रही थीं.
हम सबकी ये ज़िम्मेदारी है कि सबको ठीक से सुना जाए, बिना किसी लाग-लपेट के उन्हें अपने कार्यभारों और जिम्मेदारियों में दर्ज किया जाए. उस सामाजिकी को समझा जाए.
हमको आपको सबको ये जरूर देखना होगा कि दलितों ने जो अधिकार संघर्षों के माध्यम से हासिल किए थे, वो सब आज खोते जा रहे हैं, लेकिन अब ये हो क्यों रहा है, इस बात पर गौर करना होगा.
दरअसल में बहुत सारे अधिकार संविधान सभा की बहसों से निकले थे, जब भारतीय संविधान बना तो उसमें उन अधिकारों को लिख दिया गया और बहुत सारे अधिकार बाद में उन्होंने अपने संघर्षों-आंदोलनों से हासिल किए थे.
लेकिन दलितों का बहुत सारा समय और संघर्ष इसी में चला गया कि राज्य ने उन अधिकारों को ठीक से लागू नहीं किया या ठीक से कार्यवाही नहीं की.
भारत का दलित दिन-प्रतिदिन केवल संविधान के लिए लड़ता है, कभी-कभी थोड़ा सा संविधान, थोड़ी सी राहत मिल जाती है बाकी तो अभी दिवास्वप्न है.
आज सबसे कमजोर, सताए हुए लोगों, महिलाओं, घूमंतुओं, आदिवासियों और दलितों को संसद, कानून और संविधान की सबसे ज्यादा जरूरत है. तो पढ़े-लिखे लोगों का पहला दायित्व है कि वे अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को संविधान के अनुरूप बनाएं.
जो लोग पाठशाला से बाहर हैं या बाहर कर दिए गए हैं, उन्हें भी संविधान को बताएं, उन्हें आत्मिक और राजनीतिक रूप से मजबूत बनने में मदद करें और संविधानवाद को मजबूती प्रदान करे.
दलितों ने जो अब तक पढ़ाई-लिखाई की है, आप सब जानते हैं कि दलितों को पढ़ने-लिखने की यह प्रेरणा डॉ. बीआर आंबेडकर से मिलती है, क्योंकि उनका सबसे अधिक जोर किसी पर था तो वह शिक्षा, संगठन और संघर्ष थे.
इसी संघर्ष की बदौलत दलितों ने एक बड़ा काम यह किया है कि उन्होंने अपने बीते हुए को लिखा है, अपने बारे में सबको वह बताया है जिसे वे भूल जाने का अभिनय करते रहते हैं. इसमें उन्होंने कविता लिखी, कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखे, आत्मकथाएं लिखीं, पर्चे और गीत लिखे.
लेकिन मैं आपको यहां यह बता दूं कि ये सब सिर्फ अभिव्यक्ति का ही माध्यम ही नहीं है. यह एक राजनीतिक कार्य तो है ही यह संघर्ष या लड़ाई भी है. यह एक असमान दुनिया में अपनी उपस्थिति की मुनादी भी है.
ये बात भी महत्व की है कि अभिव्यक्ति के इस माध्यम से इससे राजनीति की आभा तो बनती है लेकिन यह पावर स्ट्रक्चर को बदल नहीं पा रही है. इसकी अपनी सीमाएं हैं.
नारा लगता रहा है कि राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की संतान, सबको शिक्षा एक समान. इस नारे को वास्तविकता में सरकार ही तब्दील कर सकती है.
एक ऐसे समय में जब शिक्षा के निजीकरण के लिए भीषण गोलबंदी की जा रही हो तो सार्वजनिक शिक्षा जरूरी हो जाती है. गांधी जी ने तर्क दिया था कि यदि अंग्रेज भारत को मुक्त कर देंगे तो वे भी लालच और हिंसा से मुक्त हो जाएंगे. यही बात शिक्षा के लिए कही जा सकती है.
तो शिक्षा उन वर्गों के लिए भी जरूरी है, जो दबंग हैं और कमजोर समुदायों पर अत्याचार ढाने की कोशिश करते हैं. यह उनके लिए भी जरूरी है जो अत्याचार और बहिष्कार का सामना करते हैं.
अब देख लीजिए सामंती किले टूट गए या तोड़ दिए गए, लेकिन अवशेष बचे रह गए हैं. ये अब जाति के अहंकार के रूप में हमारे सामने हैं, इनकी जमीन और खेती जाने वाली है, जो इन्हें ताकत देती थी, लेकिन अभी भी जाति का घमंड बना हुआ है.
हाथरस के गांव के ग्रामीणों और इन सबकी बातों, शक्लों और अक्लों को देखकर लगता है ये कहां से उच्च जाति के हैं. कोई ऐसी बात जो इन सभी को उच्चता प्रदान करती हो ऐसा लगता तो नहीं. इनको इतना अहंकार किस बात का, जो लड़कियों, महिलाओं और दलितों के प्रति इनकी ऐसी सोच अभी भी बनी हुई है.
भारतीय राज्य ने अब तक क्या किया, जो इनकी ऐसी सोच बनी हुई है. इस तरह की सोच को कैसे बदला जा सकता है?भारतीय राज्य जो नहीं कर पाया वह है शिक्षा के माध्यम से एक नागरिक समाज बनने और बनाने की प्रक्रिया की तरफ ध्यान देना.
शिक्षा एक बेहतरीन माध्यम हो सकती है, जिसके माध्यम से इस तरह की सोच को बदला जा सकता है. इन सारी घटनाओं को देखकर लगता है कि शिक्षा सबसे पहले उन लोगों तक पहुंचानी चाहिए जो सामंती समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं या वहां से आते हैं.
कहते हैं कि शिक्षा सबको मुक्त करती है. इसलिए शिक्षा सिर्फ शोषित को ही मुक्त नहीं करती है बल्कि वह शोषकों को भी मुक्त करती है. भले ही सीमित दायये में लेकिन सोच तो बदल सकती है.
एक सवाल दलित आंदोलन से
अंतिम बात के तौर पर यही कहना है कि एक बहुत बड़ा सामाजिक बदलाव भारतीय संविधान के द्वारा लाया गया, जिसके द्वारा समाज के कमजोर वर्गों को अनेक प्रकार की सुविधाएं जैसे शिक्षा, नौकरी, विधानसभा और संसद में आरक्षण आदि प्राप्त होने लगे, जिसके कारण दलितों को मुख्यधारा के समाज और राजनीति में दर्ज होने का थोड़ा अवसर मिल सका है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है.
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था यह शिक्षा ही है जिसे सामाजिक दासता खत्म करने के हथियार के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है और इससे ही कमजोर और दलित वर्ग के लोग सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं.
मुझे लगता है कि भारतीय समाज को समतापूर्ण और न्यायप्रिय बनाने के लिए आज सबसे अधिक इन चार चीजों की जरूरत है: समता, बंधुता, मैत्री और गरिमा. लेकिन हालिया घटनाक्रमों को देखकर भारतीय समाज से ये विचार हाशिये पर जाते दिख रहे हैं.
जो लोग यह सोचते हैं कि मुक्ति अकेले में संभव हो जाएगी तो ऐसा नहीं होगा. इसलिए भारत के सभी धर्मों, समुदायों, जातियों के लोगों को यह याद रखना होगा कि मुक्ति जब भी होगी सामूहिक ही होगी.
(लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो रहे हैं.)