‘घर बनवाने के लिए पैसे जुटाए थे लेकिन गांव का हाल देखकर नाव बनवा ली’

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के सुपौल ज़िले के निर्मली विधानसभा क्षेत्र में कोसी नदी के सिकरहट्टा-मंझारी तटबंध पर बसे पिपराही गांव से गुज़र रही धारा में कम पानी होता था, पर बीते कई सालों से बारह महीने इतना पानी रहता है कि बिना नाव के पार नहीं किया जा सकता है. इस साल मई से सितंबर के बीच यहां पांच बार बाढ़ आ चुकी है.

पिपराही गांव में नाव से आते-जाते लोग. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के सुपौल ज़िले के निर्मली विधानसभा क्षेत्र में कोसी नदी के सिकरहट्टा-मंझारी तटबंध पर बसे पिपराही गांव से गुज़र रही धारा में कम पानी होता था, पर बीते कई सालों से बारह महीने इतना पानी रहता है कि बिना नाव के पार नहीं किया जा सकता है. इस साल मई से सितंबर के बीच यहां पांच बार बाढ़ आ चुकी है.

पिपराही गांव में नाव से आते-जाते लोग (सभी फोटो: मनोज सिंह)
पिपराही गांव में नाव से आते-जाते लोग. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

सुपौल जिले के निर्मली विधानसभा क्षेत्र का पिपराही गांव सिकरहट्टा-मंझारी तटबंध पर दीघिया चौक से करीब ढाई किलोमीटर दूर है. यहां जाने के लिए कोसी नदी की एक धारा को नाव से पार करना पड़ता है.

सितंबर-अक्टूबर के महीने में पहले नदी की इस धारा में पानी कम होता था लेकिन तीन -चार वर्षों से यह नदी की मुख्य धारा बन गई है और इसमें अब पूरे 12 महीने इतना पानी रहता है कि बिना नाव के पार नहीं किया जा सकता है.

नदी के दोनों तटों पर दर्जनों छोटी नावें दिख रही हैं. महिलाएं घास के गट्ठर लिए चली आ रही हैं और फिर उसे नाव में रखकर तटबंध के पास अपने घरों तक पहुंच रही हैं. ये उनका रोज का काम है.

मवेशियों के चारे के लिए उन्हें हर रोज चार पांच घंटे कई किलोमीटर तक नदी के दियारे में चलना पड़ता है.

इस तटबंध के पूरब के आधा दर्जन गांवों के लोगों को मई से सितंबर महीने तक पांच बार बाढ़ का सामना करना पड़ा. पिपराही गांव पश्चिमी और पूर्वी तटबंध के बीच है.

कोसी नदी के ये दोनों तटबंध कोसी प्रोजेक्ट के तहत 1954 में बनने शुरू हुए और 1962 तक बन गए. करीब 14 वर्ष बाद पश्चिमी तटबंध से अंदर सिकरहट्टा-मंझारी तटबंध बना.

यह तटबंध सरकारी रिकार्ड में 18 किलोमीटर लंबा है और इसका नाम सिकरहट्टा-मंझारी लो तटबंध (एसएमएलई) है. इस तटबंध को बाद में पिच किया गया और ये कोसी महासेतु की सड़क से जुड़ती है. अब यह काफी खराब हालत में है.

दिघिया चौक से ही एक तरफ कोसी महासेतु के लिए बनाया गया गाइड तटबंध आकर जुड़ता है. पिपराही से पूर्वी तटबंध करीब आठ किलोमीटर दूर है. इस गांव के पास ढोली, कटैया, भूलिया, सियानी और झउरा हैं गांव है.

पिपराही से लेकर पूर्वी तटबंध तक कोसी की तीन और धाराएं प्रवाहित होती हैं. पिपराही और झउरा निर्मली प्रखंड में आते हैं तो कटैया, भूलिया और सियानी सरायगढ़ भपटियाही प्रखंड में आते हैं.

ये सभी गांव सुपौल जिले की पांच विधानसभाओं में से एक निर्मली विधानसभा क्षेत्र के हैं.

पूर्व सरपंच रामजी सिंह ने बताया, ‘इस वर्ष 13 मई को ही बाढ़ आई. इसके बाद से सितंबर महीने तक पांच बार बाढ़ आई. पूरब और पश्चिम की तरफ आए कोसी का पानी आया. गांव की 1,500 एकड़ रकबे की फसल तो डूबी ही गांव में भी कमर तक पानी आ गया.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हालत खराब देख बच्चों और महिलाओं को नाव से नदी पार करा कर रिश्तेदारों के यहां भेजा. बाद में हम सभी लोग भी नाव से माल मवेशी लेकर तटबंध की तरफ आ गए. पानी कम होने पर वापस लौटे. इस बुरे वक्त में यह बड़ी नाव हमारे परिवार के साथ-साथ गांव वालों के बहुत काम आई.

रामजी के भतीजे गुणानंद ने तीन लाख खर्च कर यह नाव आठ महीने पहले बनवाई थी. गुणानंद सेना में जवान हैं. छुट्टी में गांव आए गुणानंद ने नाव बनवाने की कहानी बताते हुए कहा कि पिछले साल बाढ़ आई तो वे ड्यूटी पर थे.

जब घर में पानी भर गया तो यहां की हालत के बारे में उन्हें बताया गया, तब घर के सभी लोगों को गांव से तत्काल बाहर निकालने की जरूरत थी.

वे बताते हैं, ‘हमने एक दुधौला गांव में बड़ी नाव वाले को फोन कर कहा कि हम आपको 20 हजार रुपये तक देंगे, आप गांव जाकर घर के लोगों और गांव वालों को बाहर निकालिए, लेकिन नाव वाला मौके पर नहीं पहुंच पाया. पूरे परिवार को काफी तकलीफ से गुजरना पड़ा. यह स्थिति मुझसे देखी नहीं गई. मैंने घर बनवाने के लिए पैसे जुटाए थे लेकिन मैंने घर बनवाने का फैसला बदल दिया. मैंने सिमराही में नाव बनवाने के लिए लोहा खरीदा और बनवाया.’

उन्होंने बताया, ‘नाव बनवाने में 26 क्विंटल लोहा लगा. नाव बनाने वाले ने 3,500 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से मजदूरी ली. इस नाव ने हमें भरोसा दिया कि बाढ़ के समय हम सरकार-प्रशासन के भरोसे नहीं रहेंगे.’

अपनी बात पूरी करते हुए गुणानंद कहते हैं, ‘हर गांव में सरकार को दो-तीन बड़ी नाव हमेशा के लिए देनी चाहिए जो उनके काम आए. गांव के लोग तीन लाख रुपये लगाकर नाव नहीं बनवा पायेंगे। ‘मैं नौकरी में था, तो किसी तरह इंतजाम कर पाया.

गुणानंद की यह नाव ‘फौजी की नाव’ नाम से लोकप्रिय हो रही है.

रामजी कहते हैं कि सरकार और प्रशासन कभी हमारी जरूरत पर नाव नहीं दे पाता है. बाढ़ के समय हमने सुपौल के सांसद को फोन कर कहा कि नाव की व्यवस्था करवाइए, तो वे बोले कि 50 नाव की व्यवस्था की गई है लेकिन कोई नाव हम लोगों को नहीं मिल पाए.

बूधन सिंह व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि अधिकारी बाढ़ देखने स्टीमर से आते हैं लेकिन गांव के लोगों को नाव नहीं मुहैया कर पाते.

कोसी नदी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के अंदर रहने वाले लोगों के लिए अन्न-पानी की तरह नाव एक बेहद जरूरी चीज है. बिना नाव उनकी जिंदगी चल ही नहीं सकती.

गांव से बाहर आने-जाने के लिए, फसल और चारे की ढुलाई के लिए और वक्त-बेवक्त बीमार लोगों को अस्पताल पहुंचने के लिए भी नाव ही एकमात्र सहारा है, जो उन्हें सड़क या तटबंध तक पहुंचा देती है और वहां से किसी साधन का जुगाड़ कर अस्पताल पहुंच जाते हैं.

दीघिया चौक के पास कोसी नदी.
दीघिया चौक के पास कोसी नदी.

पिपराही गांव के पास स्थित गांव ढोली के लोगों ने भी इस वर्ष लोहे की दो बड़ी नाव बनवाई हैं. छोटी नावें तो अब काफी हो गई हैं. पिपराही में 30 से अधिक छोटी नावें हैं. इन नावों से लोग नदी पार करते हैं. मवेशियों के लिए चारे लाते हैं.

दिघिया से सिकरहट्टा तक तटबंध के दोनों तरफ रहने वाले गांवों के लोगों ने भी अपने लिए नाव रखी है. एक छोटी नाव लगभग 35 हजार रुपये में तैयार हो जाती है, जिसमें दो से तीन लोग बैठ सकते हैं.

इससे बड़ी नाव की लागत 70 हजार तक आती है. ये डोंगी नाव से बड़ी होती हैं और फसल ढुलाई के काम आती हैं. ये नावें जामुन, शीशम और साखू की लकड़ियों से बनती हैं.

बाढ़ के समय छोटी नावें सुरक्षित नहीं हैं. बाढ़ के वक्त लोहे की बड़ी नाव बहुत काम लायक होती है.

पिपराही गांव की फौजी की नाव में 150 लोग एक साथ आ-जा सकते हैं. इससे ट्रैक्टर और जेसीबी मशीन भी जा सकती है. करीब 70 से 80 मन अनाज की भी ढुलाई की जा सकती है.

डागमारा ग्राम पंचायत के सिकरहट्टा चूरियासी गांव के संजय जामुन की लकड़ी का नाव तैयार कर रहे हैं. नाव बन चुकी है और अब उस पर तारकोल का लेपन किया जा रहा है.

उन्होंने बताया, ’70 हजार रुपये में नाव तैयार हुई है. अब नदी के दूसरी तरफ अपने खेतों में काम पर जाने और फसल-चारे की ढुलाई में आसानी होगी.’

सिकरहट्ट-मंझारी तटबंध पर चलते हुए कई जगहों पर नई नावें बनती दिखीं. सभी ग्रामीण अपने प्रयासों से यह काम कर रहे हैं.

कोसी में हादसों को रोकने और लोगों की आवाजाही व खेतीबाड़ी के काम को आसान करने के लिए अधिक से अधिक नावों की सख्त जरूरत है, लेकिन सरकार ने इसके लिए कोई काम नहीं कर रही है.

कोसी प्रोजेक्ट के लिए तटबंध निर्माण के समय सरकार ने वादा किया था कि विस्थापित लोगों को तटबंध के अंदर अपने खेत तक आने-जाने के लिए पर्याप्त नौकाओं की व्यवस्था की जाएगी लेकिन आज तक यह व्यवस्था नहीं हो सकी है.

अब भी लोगों को तटबंध के अंदर अपने रिहाइश व खेतों तक जाने के लिए निजी नावें ही सहारा बनी हुई हैं. बाढ़ के समय भी प्रशासन पर्याप्त संख्या में नावों की तैनाती नहीं कर पता है.

बाढ़ के दिनों में और सामान्य दिनों में भी अपनी जरूरतों के लिए तटबंध के अंदर से निकटवर्ती बाजार, ब्लॉक, तहसील, जिला मुख्यालय के आना-जाना होता है.

नाव से चारा ले जाती एक लड़की.
नाव से चारा ले जाती एक लड़की.

उसी तरह तटबंध के बाहर पुनर्वास में रह रहे लोगों को खेती के काम के लिए नदी पार कर तटबंध के अंदर जाना पड़ता है. ऐसे में नावें ही उनका सहारा बनती हैं. सैकड़ों लोग रोज तटबंध के अंदर अपने गांवों से दस से 20 किलोमीटर चलते हुए सुपौल, निर्मली आदि जगहों पर जाते हैं.

इसी तरह पुनर्वास में रह रहे लोग खेती करने के लिए तटबंध भीतर गांवों में जाते हैं. इसके लिए न सिर्फ काफी समय लगता है बल्कि नाव से जाने या बिना नाव के नदी पार करने में बड़ी संख्या में दुर्घटनाएं होती है.

जिला आपदा कार्यालय के आंकड़े बताते हैं कि सुपौल जिले में साल 2016-17 में नदी या बाढ़ में डूब जाने से 34 लोगों की मौत हुई जिन्हें मुआवजा दिया गया. वर्ष 2017-18 में इस तरह की घटनाओं में 40 लोगों की मौत हुई.

पिपराही के श्रीनारायण, अरविंद मेहता, बूधन सिंह और केलू सिंह ने कहा कि कोसी में सब व्यवस्था अपनी ही करनी पड़ती है. सरकार ने हम लोगों की तरफ देखना बंद कर दिया है. कुछ भी कहने पर अफसर कहते हैं कि आप लोग तटबंध के अंदर क्यों हैं? नेता कहते हैं कि तटबंध के अंदर रहने में दिक्कत तो होगी है.

नावों का इंतजाम कर गांव के लोग जिस तरह ‘आत्मनिर्भर’ हो गए हैं, उसी तरह बाढ़ से बचने के लिए गांव के लोगों ने एक सुरक्षा तटबंध भी बनाया है, जो ग्रामीण सड़क के रूप में भी काम करता है. इसे बनाए हुए दो वर्ष हो गए है.

ग्रामीण चाहते हैं कि करीब दो किलामीटर लंबे इस सुरक्षा तटबंध को सरकार-प्रशासन पांच फीट ऊंचा और दस फीट चौड़ा कर इसे गांव के दोनों तरफ बना दे, तो बाढ़ के समय घरों में पानी नहीं आएगा और लोगों को कुछ राहत मिल सकेगी। लेकिन उन्हें लगता नहीं है कि उनकी बात सुनी जाएगी.

गुणानंद कहते हैं, ‘पिपराही जैसे गांवों के लिए सरकार को दो-तीन बड़ी नाव, सुरक्षा तटबंध और एक बड़ा टीला बनवाना चाहिए. सुरक्षा तटबंध गांव और घरों में पानी आने से रोकेगा. यदि फिर भी घरों में पानी आ जाता है तो लोग टीले पर चले जाएंगें. बड़ी नाव उन्हें किसी भी आपात समय में काम आएगी.’

वे बताते हैं कि जब गांव में कमर भर तक पानी भर जाता है तो जो परेशानी होती है, उसे बयां नहीं किया जा सकता. महिला हो या पुरुष, खड़े होकर शौच करने पर मजबूर होते हैं. सांपों से बचने लिए दिन-रात जगना पड़ता है.

पलायन का सिलसिला जारी है

इस गांव में 153 घर हैं. दो सर्वण परिवारों को छोड़ सभी दलित और पिछड़ी जातियों- राजधोब, मुसहर, धानुक, कोइरी के हैं. सर्वाधिक संख्या राजधोब जाति की है, जो अतिपिछड़ा वर्ग में आते हैं. मतदाताओं की संख्या 600 है.

गांव के लोग बताते हैं कि जब 1954 में तटबंध बनना शुरू हुआ तो उनसे वादा किया गया कि उन्हें जमीन के बदले जमीन और गाछ के बदले गाछ देकर पुनर्वासित किया जाएगा लेकिन उनका पुनर्वास आज तक नहीं हो पाया. उन्हें पता ही नहीं है कि किस जगह पुनर्वास दिया गया.

रामजी बताते हैं, ‘वह सुपौल जिला मुख्यायल गए तो बताया गया कि सहरसा जाकर पता करिए कि आपका पुनर्वास कहां है. जब सहरसा गए तो वहां से कहा गया कि सभी फाइल सुपौल भेज दी गई. सुपौल वाला कहता है कि हमारे पास कोई रिकॉर्ड नहीं है.’

वे बताते हैं, ‘पहले पिपराही और आस-पास काफी बड़े दस गांव थे. इन गांवों में उनकी बिरादरी के लोग सबसे अधिक थे. अच्छी खेतीबाड़ी थी. इन गांवों को सौराष्ट सभा कहा जाता था. पूर्वी-पश्चिमी तटबंध और कोसी बराज बन जाने के बाद 1964-65 में भयंकर बाढ़ आई. काफी नुकसान हुआ. फिर इसके बाद 1968 की बाढ़ में गांव दह गया. सभी लोगों को गांव छोड़ कर भागना पड़ा.’

वे कहते हैं, ‘इसके बाद से पलायन शुरू हुआ. काफी लोग छातापुर, मधुबनी चले गए. तमाम लोग नेपाल जाकर बस गए. हरियाणा, पंजाब मजदूरी करने गए लोग इधर-उधर बस गए. हम लोग बाढ़ के बाद फिर वापस चले आए क्योंकि खेत-बारी यहीं थी. भाग कर कहां जाते?’

पिपराही में दो-तीन वर्षों से बाढ़ से काफी नुकसान हो रहा है. किसान दाल, गेहूं, धान, सरसों, आलू, प्याज, मटर, राजमा, खीरा, लौकी, पटसन की खेती करते हैं. इस बाढ़ से धान, दाल और सब्जी की फसल को काफी नुकसान हुआ है.

पिपराही गांव के पश्चिम कोसी की मुख्य धार बनने की वजह बताते हुए रामजी कहते हैं, ‘कुनौली से आगे नेपाल की तरफ कुछ स्पर बनाए गए हैं और सफाई की गई है, जिससे इस तरफ नदी का पानी ज्यादा आ रहा है. पश्चिमी तटबंध बनने के बाद सिकरहट्टा-मंझारी तटबंध बनाया गया और महासेतु के लिए लिए दोनों तरफ गाइड तटबंध बना दिया. इससे कोसी का मुंह संकीर्ण हो गया. महासेतु पर फुल निकासी नहीं हो पा रही है इसलिए इधर ज्यादा करंट मार रहा है.’

छह दशक पहले यहां से शुरू हुआ पलायन का सिलसिला रुका नहीं है. कोरोना लॉकडाउन में 50 मजदूर वापस लौटकर पिपराही आए थे. अब सभी वापस चले गए. इस गांव के मजदूर हरियाणा और पंजाब की अनाज मंडियों में बोरी ढोने का काम करते हैं.

रामजी कहते हैं कि अनाज मंडी का काम खत्म होते ही मजदूर वापस आएंगे. दशहरा बाद आने का सिलसिला शुरू होगा.

गांव में सरकारी व्यवस्था के नाम सिर्फ दो चीजें दिखती हैं. सौर उर्जा के जरिये गांव में बिजली पहुंच गई है. इसके अलावा एक टिन-टप्पर से बना प्राथमिक विद्यालय है. सात नवंबर को इसी स्कूल में गांव के लोग मतदान करेंगे.

यहां तैनात शिक्षक गया प्रसाद मंडल मतदान स्थल पर बिजली की व्यवस्था के लिए जनरेटर का इंतजाम करने आए हैं. गांव में किसी के पास जनरेटर नहीं है. लोग बात कर रहे हैं कि किस गांव में जनरेटर है जहां से किराये में लिया जा सकता है.

मंडल बताते हैं कि स्कूल में उनके सहित तीन शिक्षक हैं. कुल 115 बच्चों का नामांकन है. कक्षा पांच तक की पढ़ाई की व्यवस्था है. इसके बाद पढ़ाई के लिए दिघिया जाना पड़ेगा, जहां हाईस्कूल तक की पढ़ाई के लिए स्कूल है.’

इस गांव में 25-30 बच्चे दिघिया में पढ़ने जाते हैं. इससे आगे की पढ़ाई के लिए सुपौल, सहरसा जाना पड़ेगा. नदी पार कर स्कूल आना-जाना बहुत मुश्किल होता है. अधिकतर लोग अपने बच्चों के पढ़ाई के लिए रिश्तेदारों के पास भेज देते हैं.

गुणानंद गांव के अकेले व्यक्ति हैं, जिन्हें सरकारी नौकरी मिली है. उनके अलावा गांव में एक होमगार्ड हैं और गांव के ही स्कूल में पढ़ाने वाले दो शिक्षक हैं.

पिपराही गांव के स्कूल में कोसी की बाढ़ के कारण करीब-करीब पांच महीनों तक पढ़ाई पूरी तरह बाधित रहती है.

पिपराही गांव का प्राथमिक विद्यालय.
पिपराही गांव का प्राथमिक विद्यालय.

कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के अंदर स्थित सैकड़ों गांवों की तरह इस गांव में भी स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर कुछ नहीं है. इलाज के लिए लोगों को निर्मली, सहरसा, दरभंगा, सुपौल जाना पड़ता है.

सबसे बड़ी मुसीबत तब आती है कि जब रात-बिरात किसी की तबियत खराब हो जाए. चारपाई पर लादकर बीमार व्यक्ति को नदी तक लाया जाता है, फिर नदी पार कर किसी वाहन से अस्पताल तक पहुंचते हैं.

गांव में सिर्फ एक शौचालय है. सभी के घर फूस के हैं, बाढ़ की मार से टूटे-फूटे. लोगों ने पीने के पानी के लिए अपना हैंडपंप लगा रखा है.

बाढ़ से नुकसान के बावजूद अभी तक गांव के सिर्फ 51 लोगों को सरकारी छह हजार की आर्थिक सहायता राशि मिली है. शेष 102 लोग छह हजारिया का इंतजार कर रहे हैं. पिछले वर्ष भी उन्हें ‘ छह हजारिया’ नहीं मिला था.

पिपराही में सरकार का विकास गायब है, लेकिन विकास के दावे करने वाले पहुंचने वाले हैं. रामजी कहते हैं, ‘वोट मांगने सब आता है. बैठता है और हमारा खाता भी है. बाप-बाप बोलता है. खूब भाषण देता है. बोलता है कि जिता दीजिए. पुनर्वास के लिए जमीन दिलवाएंगे. मवेशी खरीदने के लिए सरकार से पैसा दिलवाएंगे, चारा देंगे लेकिन चुनाव बाद फिर घूमकर आता नहीं है.’

गांव के स्कूल के पास मिले सदा मांझी हमसे पूछते हैं कि आप कौन पदाधिकारी हैं. पत्रकार बताने पर कहते हैं कि ‘सरकार कुछौ न करती. सरकार को पिटीशन लिखिए. गांव में छह हजारिया भेजे.’

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)