तनिष्क के आभूषण उस विज्ञापन के बावजूद बिकते रहेंगे. टाटा को इसका अंदाज़ा है कि उनके ख़रीददारों में बहुसंख्या उनकी है जो उनकी दुकानों पर हमला करने नहीं आएंगे, लेकिन इससे भी ज़्यादा उन्हें ये मालूम है कि उनके ग्राहकों का मौन समर्थन हुल्लड़बाज़ों को है. उनके दिल-दिमाग का लफंगीकरण हो चुका है.
तनिष्क के विज्ञापन के वापस लिए जाने पर अफ़सोस जताया जा रहा है. कुछ लोगों का कहना है कि टाटा को मालूम होना चाहिए कि इस देश में उन्हें सिर्फ सोना बेचना चाहिए, इश्क़ नहीं. यह मुल्क इश्क़ के ख़याल से भड़क उठता है.
यह नया भारत है. यहां हिंदू-मुसलमान प्रेम का विचार ही पाप है. तो क्या आपको इस नए भारत से ऐतराज है? टाटा तो यही चाहते थे.
‘श्री ….. योग्य हैं, सक्षम हैं और उनमें भारत को नई निगाह से देखने के लिए पर्याप्त नवाचारिता है. कम से कम मैं आशावादी हूं कि उनके नेतृत्व में भारत वह नया भारत होगा जिसका उन्होंने वादा किया है.’
ख़ाली जगह को आप भर सकते हैं. कहनेवाला कौन था? इस अनुमान के लिए कोई बहुत बुद्धि नहीं चाहिए. इस बात पर उस वक्ता के द्वारा आगे और बल दिया गया:
‘प्रधानमंत्री के रूप में श्री … भारतीय लोगों को नया भारत भेंट कर रहे हैं. हमें उन्हें यह मौक़ा देना चाहिए.’
भारतीयों को यह उत्साहपूर्ण मश्विरा श्री रतन टाटा ने 2017 में दिया था. प्रधानमंत्री को पद पर आए हुए तीन साल गुजर चुके थे. भारतीयों को और बाहर के लोगों को भी कुछ कुछ उस नए भारत का अंदाज़ हो चला था, जो प्रधानमंत्री की सदारत में उद्घाटित हो रहा था.
भारत के सबसे सृजनात्मक व्यक्तियों ने राज्य के सम्मान लौटा दिए थे. वे इस नए भारत को लेकर लज्जित थे. लेकिन अब के प्रधानमंत्री और 2014 मई के पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के प्रति श्री टाटा का अनुराग काम नहीं हुआ था.
वह कोई नया भी नहीं था. और उसका कारण शुद्ध भौतिक था और विशुद्ध रूप से टाटा के स्वार्थ से जुड़ा हुआ. 2008 में बंगाल में उनकी नैनो कार के उत्पादन के लिए कारखाने के लिए तत्कालीन बंगाल सरकार ने सिंगुर में भूमि अधिग्रहण किया था.
उसके विरुद्ध बड़ा जन आंदोलन खड़ा हो गया. टाटा व्यग्र हो उठे कि उनकी प्रिय नैनो परियोजना में इतना विलंब हो रहा था. उन्होंने बंगाल छोड़ने का फैसला किया.
कहा जाता है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री की ओर से एक संदेश श्री टाटा को गया: सुस्वागतम्. इस संदेश के कुल 96 घंटे भी नहीं बीते कि साणंद में टाटा को नैनो कारखाने के लिए ज़मीन आवंटित कर दी गई.
टाटा इससे अभिभूत हो उठे. बाद में उन्होंने कहा,
‘आम तौर पर किसी राज्य को ज़मीन से जुड़ी और दूसरी औपचारिकताओं में 90 से 180 दिन लग जाते हैं. गुजरात को सिर्फ तीन दिन लगे. यह पहले कभी नहीं हुआ है.’
वे इतने कृतज्ञ हो उठे कि उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री को ‘गुड एम’ कहा और बंगाल में नैनो के लिए भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व जिस नेता ने किया था उसे ‘बैड एम’ घोषित किया.
टाटा के भावविभोर हो जाने का कारण लेकिन सिर्फ ज़मीन का इतनी जल्दी मिलना न था. ज़मीन के साथ उन्हें गुजरात सरकार ने अविश्वसनीय रूप से हल्की शर्तों पर 9750 करोड़ रुपये का क़र्ज़ दिया, सूद की दर 0.1% थी. इसे बीस वर्षों में लौटाया जा सकता था.
राज्य की नीति के अनुसार जब भी ऐसा कारखाना लगाया जाता, उसके यहां रोज़गार पानेवालों में 85% स्थानीय निवासी होने की शर्त थी. टाटा के लिए यह शर्त भी माफ कर दी गई.
टाटा इसके बाद ‘गुड एम’ के मुरीद हो गए. वे ‘वाइब्रेंट गुजरात’ समागम में शामिल होने लगे. अख़बारों ने बताया कि ऐसे ही एक समारोह में टाटा में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को प्रशंसा से नहला दिया.
और जब तक वे अपना वक्तव्य समाप्त करते, उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री के आलिंगन पाश में बंधा हुआ पाया जो खुली बांहों उनकी तरफ़ पूरा मंच पार करके आए.
यह वह आलिंगन पाश है जिसमें भारतीय पूंजी बद्ध है. और वह अपनी ज़बान कटवा बैठी है. लेकिन ऐसा हमेशा न था.
2002 के जनसंहार के बाद भारतीय पूंजीपतियों ने गुजरात सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त रुख अपनाया था. लेकिन उन मुखर लोगों में टाटा तब भी नहीं थे.
मुझे दिल्ली में पूंजीपतियों के ऐसे ही एक सम्मेलन की याद है जिसमें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को आमंत्रित किया गया था. सम्मेलन स्थल पर जाकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इसके ख़िलाफ़ विरोध दर्ज कराया.
2002-2003 तक पूंजीपतियों में से कुछ ने जो मानवीय बाध्यता दिखलाई थी उसे लुप्त होते देर नहीं लगी. फिर सबने गुजरात के मुख्यमंत्री के गुणगान के अलावा कुछ नहीं किया.
पूंजीपतियों को इसका श्रेय मिलना ही चाहिए कि उस मुख्यमंत्री को भारत का प्रधानमंत्री पद मिला. उनके सक्रिय समर्थन और सहयोग के बिना यह संभव न था.
वे उद्योग जगत मानवीय ख़तरनाक मोहजाल से निकल आने का आह्वान कर रहे थे. 2009 में ही उद्योग जगत से आवाज़ें आने लगी थीं कि भारत को प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात का मुख्यमंत्री चाहिए. कुछ लोग थे जो यह गठजोड़ देखकर व्यथित थे.
बंगलुरु के फिल्म निर्माता रंजन कामथ ने लिखा,
‘उन सारे ब्रांड पर मुझे गर्व है जिनका आप प्रतिनिधित्व करते हैं. उनसे भारत का सिर ऊंचा हुआ है. लेकिन जब मैंने आपको राज्य के संरक्षण में हुए जनसंहार के मास्टरमाइंड को गले लगाते देखा है और आपको भारत के मोदीकरण की वकालत करते पाया तो यह निराशाजनक रूप से साफ हो गया कि वे ब्रांड जो भारत को समृद्ध बनाना चाहते है, नैतिक दरिद्रता में सड़ते रहेंगे.’
कामथ गुजरात में गांधी से जुड़े स्थलों की एक यात्रा से लौटे थे. इस यात्रा में उन्होंने देखा कि गुजरात किस दिशा में बदल रहा था. वे गुजरात की आत्मा के लिए चिंतित थे.
लेकिन पूंजी की दुनिया से आवाज़ें उठने लगी थीं कि गुजरात के मुख्यमंत्री को भारत का नेतृत्व दिया जाना चाहिए. कामथ जैसे लोग भारत का वह हश्र नहीं देखना चाहते थे, लेकिन टाटा को कोई नैतिक बाधा न थी.
यह वह नैतिक दरिद्रता है जिसके कारण उस ताकतवर ब्रांड ने सिर्फ हुल्लड़बाज़ी के आगे घुटने टेक दिए. भले लोग छोटे लोगों के मुंह नहीं लगते.
तनिष्क के आभूषण इस विज्ञापन के बावजूद बिकते रहेंगे. टाटा को इसका अंदाज़ा है कि उनके ख़रीददारों में शायद बहुसंख्या उनकी है जो उनकी दुकानों पर हमला करने नहीं आएंगे, लेकिन जो सामने शोर होते देख अपनी कार आगे बढ़ा लेंगे.
लेकिन इससे भी ज़्यादा उन्हें मालूम है कि उनके ग्राहकों का मौन समर्थन इन हुल्लड़बाजों को है. उनके दिल दिमाग का लफंगीकरण हो चुका है. टाटा इस नए मन की उपेक्षा नहीं कर सकते.
पूंजी को अपने मुनाफ़े के स्रोत का किसी दूसरे के मुकाबले अधिक पता होता है. उसे सुनिश्चित करने के लिए या उसके चलते उसे अगर नैतिक दरिद्रता के कीचड़ में पड़े रहना पड़े तो उन्हें कोई उज्र न होगा.
टाटा को यह भी पता है कि आज जो तनिष्क के उस ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ विज्ञापन के पक्ष में लिख और बोल रहे हैं, उनकी औकात तनिष्क के आभूषणों की नहीं है. वे मूर्ख भावुक हैं. इनमें ज़्यादातर क्या वे ही नहीं जिन्होंने सिंगुर में उनके कदम जमने नहीं दिए थे?
पूंजी ने यह बता दिया है कि कौन-सा निज़ाम अच्छा है, कौन बुरा. जो अधिक से अधिक मुनाफ़ा खींचने में उसकी सेवा कर सके, वह अच्छा है.
प्रेमचंद ने लेकिन दूसरी परिभाषा बताई थी. उन्होंने पहचान का तरीक़ा यह बताया था कि जिस निज़ाम में लोगों के भीतर की निम्न वृत्तियां सहलाई जाती हैं और उभर आती हैं, वह बुरा निज़ाम है और अच्छे निज़ाम में ये बुरी वृत्तियां लज्जित की जाती हैं और मुंह छिपा लेती हैं.
हम आज के भारत के निज़ाम के बारे में प्रेमचंद के इस पैमाने से फैसला कर सकते हैं.
लेकिन टाटा, जो सभ्यों के सभ्य हैं, 2013 में इस निज़ाम के आने की सिफ़ारिश कर रहे थे और इसे मुल्क के लिए मुफ़ीद बता रहे थे, 2014 में इसे मुल्क के लिए नियामत बता रहे थे और उसके बाद तक़रीबन हर साल इसकी बरतरी के लिए प्रार्थना करते रहे हैं.
आज समाज के तलछट में पड़ी हुई सारी निम्न वृत्तियां बजबजाती हुई बह रही हैं और टाटा जैसे सभ्य लोगों ने अपने कारों के शीशे ऊपर चढ़ा लिए हैं. कार में परफ़्यूम है और वे हैरान हैं कि सड़क पर लोग क्यों पायंचे उठाए, नाक दबाए हुए गुजर रहे हैं.
आज इस पंक का एक छींटा उन पर भी जा पड़ा है.
तनिष्क के साथ जो हुआ है, वह अख़लाक़, पहलू खान, तबरेज अंसारी जैसे सैकड़ों लोगों के साथ जो हुआ, उसके मुक़ाबले कुछ भी नहीं है. कठुआ की उस बच्ची के साथ जो किया गया, उसके मुक़ाबले तनिष्क को झेलना ही क्या पड़ा है!
ये सब जो मारे गए, और जो हिंसा के शिकार हुए और रोज़ाना हो रहे हैं, उनके लिए हमदर्दी का एक लफ़्ज़ टाटा जैसे हमारे महाजनों के मुंह से नहीं निकला था. इनमें से कोई भी टाटा का प्रभावशाली उपभोक्ता और संरक्षक न था.
टाटा और उनके साथी लोगों के जीवन के महत्त्व का अंदाज़ उनकी जेब की गहराई से करते हैं.
पूंजी को उसके साहस के लिए कभी जाना नहीं गया है. चतुराई, छल-कपट, क्रूरता उसके गुण हैं. कहना न होगा कि इन गुणों की अनिवार्य संगी कायरता है.
वह नया भारत अवतरित हो चुका है जिसका वादा किया गया था और जिस नए भारत के निर्माण के लिए नेता को अवसर देने का अनुरोध टाटा कर रहे थे.
नए के जन्म में हमेशा दर्द होता है, खून बहता है, यंत्रणा होती है. होंठ दबाकर उसे बर्दाश्त करना होता है. टाटा संभवतः आपको सलाह दें कि आप यह सब सहें क्योंकि क्या आप देख नहीं रहे कि मुनाफ़े के पवित्र उद्देश्य की वेदी पर वे पहले ही अपनी आत्मा की बलि तक दे चुके है!
क्या आप इस बलिदान का सम्मान नहीं करेंगे?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)