वीडियो: निर्भया कांड जैसे वीभत्स हादसे के बाद इसका दोहराव न होने की दुआ सभी ने की थी, लेकिन अब हाथरस कांड हमारे सामने है. क्या ये महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा का अंत है? इस बारे में दामिनी यादव के विचार.
मां,
मुझे गुड़िया और भैया को गन लाकर दी थी
तुमने जिस पल
लड़की और लड़के का भेद तो हो गया था
उसी पल उत्पन्न,
मेरे उछलने पर तुमने कहा था कि
अच्छी लड़कियां छलांगें मार कर नहीं चलतीं,
अच्छी लड़कियों के सीने से चुन्नी कभी नहीं ढलती,
अच्छी लड़कियों के सांस लेने की आवाज़ नहीं होती है
अच्छी लड़कियां सोते हुए भी कपड़ों का होश नहीं खोती हैं
और मैं अच्छी लड़की बन
अबला जनम को संस्कारित करने के प्रशिक्षण में जुट गई.
तुमने कहा था,
भले घर की लड़कियां घरों की मान-मर्यादा होती हैं
वे अपने सिर पे सारे कुल की इज़्ज़त के टोकरें ढोती हैं,
वे रात तो क्या, दिन में भी
घर से बाहर अकेले नहीं जाया करतीं
वे ऐसे चलती हैं कि उनकी एड़ी से
ख़ाक़ और आवाज़ तक नहीं उठती,
वे बड़ों के आगे ज़बान नहीं खोलती हैं
वे हर बात पूछकर ही बोलती हैं,
वे ज़ोर से ठहाके लगा नहीं हंसती हैं,
उनकी तो आंखें भी किसी पर्दे के अंदर ही बरसती हैं,
और मैं भले घर की बेटी बनने के प्रशिक्षण में जुट गई.
तुमने कहा था कि,
अकेली रहने वाली लड़कियां होती हैं आवारा
तो मैंने पिछली गली में रहने वाली गुड्डी के घर जाने के लिए भी
लिया था छोटे भैया की उंगली का सहारा
पर गली की नाली तक भी पार नहीं कर पाया था
गोदी में उठाए बिना मेरा छोटा सा भैया बेचारा.
तुमने कहा था कि
लड़कियों के शरीर में बल नहीं होता है
इसीलिए बाप, भाई, पति या बेटा ही
उसका रक्षक और सेवनहार होता है,
मैंने मान ली थी तुम्हारी बात
सो पंजा लड़ाते हुए हार के भैया रोने न लगे
मैंने बिन लड़े ही मान ली थी हार
बिन लड़े ही हार मान लेने का विधिवत प्रशिक्षण
मैंने सर्वोच्च दक्षता से प्राप्त किया.
इसीलिए हर बार दर्द को जीतकर भी मैंने,
दर्द को सिर्फ़ सहने का नाटक किया.
पापा को घुटने का दर्द बहुत सताता है
भैया तो ज़रा सा गिर जाने पर ही बिलख जाता है
मैं ही ढीठ हूं कि
गिरने पर भी खिलखिलाती खड़ी हो जाती हूं,
तवे से जलती रोटी बिन चिमटे के ही उतार लाती हूं
हर महीने पांच लहूलुहान दिन यूं ही गुज़ार जाती हूं
संभालते-सहेजते पूरे घर को
अपनी कोख भी नौ महीने संभाल पाती हूं
ख़ुद बिन मरे दे देती हूं जनम किसी को.
फिर भी यही हूं मानती कि
शक्ति क्या होती है, मैं नहीं जानती.
अगर कोई बाहर छेड़े तो मुझे घर में छिप जाना चाहिए
घर में जो हुआ, उसे किसी को नहीं बताना चाहिए,
मेरे शरीर की रक्षा में ही छिपी है
मेरे समूचे अस्तित्व की सार्थकता सारी
कानून, व्यवस्था, समाज, परिवार,
मेरा शरीर, मेरा नहीं, इन सबकी है ज़िम्मेदारी.
तुम्हारे प्रशिक्षण के बस इसी सबक में मैं हो गई मां फेल
सो जब मेरे सीने पर हाथ रखा उस अपने ही ने तो
मैं नहीं पाई झेल.
मेरे चांटे का निशान उसके गाल पर ताज़ा है,
जो मेरे अच्छी लड़की बनने की रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है,
और आज तो मैं हद ही पार कर गई,
जो ऐसे ही एक बेकाबू हाथ को रोकने में इसके रक्त से सन गई.
जो मेरी कमर के नाड़े को मनोरंजन की सीढ़ी समझते हैं,
वे असल में यमराज की चौखट पर पहला पांव धरते हैं,
मेरी आबरू को जो मेरे कमरबंद में बंद समझते हैं,
वे मेरी शक्ति की आधी जानकारी रखते हैं.
परिवार, समाज, व्यवस्था, न्याय,
किस समय, किस युग में नहीं दिए थे ये शब्द सुनाई,
क्यों अग्निसुता द्रौपदी भी सिर्फ़ सिसकी और गिड़गिड़ाई
और आख़िरकार उसकी लाज, किसी गोविंद ने ही बचाई,
क्यों फिर हर बार कोई रौंदी गई, कोई जलाई,
कोई बाज़ार में लूटी,
किसी की सेज उसके किसी अपने ने ही सजाई,
किसी के मुंह में घुटती सिसकियां तो थीं, मगर आवाज़ नहीं,
और किसी की जीभ पर इसी व्यवस्था और समाज ने दरांती चलाई.
कहीं मैं अकेली थी तो कहीं भीड़ में ही घिरी
किसी हाथ की खसोट से छटपटाई
पर क्यों तुम्हारी दुनिया ने मेरी आबरू नहीं बचाई,
ज़माना आज भी उंगली उठाकर
मुझे ही कुसूरवार ठहराना जानता है
ज़माने ने कल भी अग्निपरीक्षा की चिता मेरे लिए ही सजाई
हर बार मेरी चीख़ें, मेरे कानों तक ही आकर लौट जाती हैं,
पर भले घर की लड़कियां आपबीती, जग को नहीं बताती हैं.
सदियों से भली लड़कियां इन्हीं सीखों की बदौलत भली कहला पाती हैं.
फिर आज,
मैं क्या करूं इन रक्तरंजित हाथों का,
इन्हें किसके दामन से पोंछकर साफ़ करूं
या फिर इन रक्तरंजित हाथों को सजा लूं मेहंदी-सा
और खुद अपना इंसाफ़ करूं.
मेरा जिस्म रौंदने के सपने देखने वाले
जागना सीख जाएं, ऐसा हाहाकार करूं,
कितना ही अच्छा हो कि मैं बन जाऊं बुरी लड़की
और तुम्हारी अच्छी लड़की की हिफ़ाज़त की हुंकार भरूं,
युगों-युगों तक तुम भुला न पाओ मेरी शक्ति,
नए आह्वान से, अपने सौष्ठव से, अपनी शक्ति से
मैं ऐसा खड्ग प्रहार करूं
जो दरांतियां आज मेरी ज़बान पर उठती हैं
उन्हीं से तुम्हारे सिरों पर वार करूं
भुला दूं वो तमाम सीखें, जो कहती हैं मुझे अबला
पहचान अपनी शक्ति को,
नए युग का शक्तिशाली शंखनाद करूं.