2015 में जब जदयू के साथ मिलकर राजद ने बिहार में सरकार बनाई थी तब तेजस्वी यादव महज़ 26 साल की उम्र में उप-मुख्यमंत्री बन गए थे. अगले क़रीब एक साल तक उप-मुख्यमंत्री रहे वही तेजस्वी आज लगभग पांच साल बाद नीतीश के सामने मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार बनकर खड़े हैं.
बिहार में बिछी चुनावी बिसात की तस्वीर अब साफ हो चुकी है. अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार भी घोषित हो चुके हैं. मुख्य मुकाबला भाजपा-जेडीयू के गठबंधन एनडीए और राजद-कांग्रेस-वाम दलों वाले महागठबंधन के बीच है.
15 सालों से मुख्यमंत्री पद पर काबिज नीतीश कुमार चौथी बार जीतकर भारतीय राजनीति में एक मिथक बनने की दहलीज पर हैं. उन्हें रोकने के लिए बने महागठबंधन के चेहरे के तौर पर उनके सामने तेजस्वी यादव खड़े हैं.
तेजस्वी महज 31 साल के हैं. कुछ साल पहले उन्हें क्रिकेट के आईपीएल टूर्नामेंट में मैदान पर डग आउट में बैठे देखा जा सकता था. क्रिकेट के मैदान पर कोई भविष्य न देखकर बाद में उन्होंने अपने पिता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक विरासत संभाल ली.
2015 में जब जदयू के साथ मिलकर राजद ने सरकार बनाई तो तेजस्वी उप-मुख्यमंत्री बने. उस समय उनकी उम्र महज 26 साल थी और इतने बड़े पद पर उनकी नियुक्ति को लालू का बेटा होने का ईनाम माना गया.
अगले करीब एक साल तक उप-मुख्यमंत्री रहे वही तेजस्वी आज लगभग पांच सालों बाद नीतीश के सामने मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार बनकर खड़े हैं तो स्वाभाविक तौर पर सियासत में उनके सफर, समझ और संभावनाओं का आकलन होगा ही.
बिहार में तेजस्वी की संभावनाओं को लेकर हमने कुछ पत्रकारों से उनकी राय जानी. इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहा, ‘सत्ता विरोधी लहर के चलते नीतीश कुमार बहुत कमजोर विकेट पर खड़े हैं, लेकिन विपक्ष काफी कमजोर है, जो एक अलोकप्रिय सरकार का कारगर ढंग से विरोध नहीं कर पा रहा है. इसकी एक वजह तेजस्वी भी हैं, क्योंकि आबादी के एक हिस्से को छोड़ दिया जाए तो बिहार में उनकी व्यापक स्वीकार्यता नहीं है. उप-मुख्यमंत्री के तौर पर उनका बहुत छोटा कार्यकाल था तो उनकी क्षमताएं सामने कभी नहीं आईं.’
वे आगे कहते हैं, ‘अगर उनके पिता लालू मैदान में होते तो भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी लोगों में उनके प्रति अधिक भरोसा होता, क्योंकि वे एक मंझे हुए नेता थे, लेकिन तेजस्वी के प्रति लोगों में अभी थोड़ा संकोच है. इसकी एक वजह यह भी है कि उन्होंने जमीन पर काम भी नहीं किया. विपक्षी नेता को गांव-गांव घूमना चाहिए था, लेकिन वे गायब रहे.’
बिहार चुनावों की कवरेज में लगे स्थानीय पत्रकार विष्णु नारायण मानते हैं कि तेजस्वी ने जनता से जुड़े मामले पर मुखरता दिखाने में काफी लेट-लतीफी दिखाई थी, लेकिन वे ये भी मानते हैं कि तेजस्वी अब अपनी गलतियों को सुधार भी रहे हैं.
विष्णु कहते हैं, ‘चमकी बुखार कांड के समय तेजस्वी बिल्कुल गायब रहे. पटना में बाढ़ आई, वे वहां भी नहीं थे. कोरोना आया तो शुरुआती 40-50 दिन दिल्ली बैठे रहे, बस सोशल मीडिया पर सक्रिय रहे. लेकिन, अब मतदाताओं के बीच उनका मामला कुछ ठीक हुआ है. इस साल की बाढ़ में वे जमीन पर नजर आए, कोरोना में भी दिखे.’
तेजस्वी की असल परीक्षा अभी बाकी
‘एक राजनेता के तौर पर तेजस्वी का साबित होना और उनकी असल परीक्षा अभी बाकी है. जब वे बिहार के उप-मुख्यमंत्री बने तो पूरा शासन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही चला रहे थे. वे कप्तान थे और तेजस्वी को अंगुली पकड़कर सिखा रहे थे. सरकार में ऐसा कभी नहीं देखा गया था कि तेजस्वी किसी बात पर अड़े हों या उनके किसी फैसले का विरोध किया हो कि फलां योजना पास नहीं होगी.’
तेजस्वी यादव के संबंध में कहे उक्त शब्द बिहार के वरिष्ठ पत्रकार निराला के हैं.
तेजस्वी के बारे में बिहार के एक अन्य पत्रकार उमेश कुमार राय का कहना है, ‘तेजस्वी क्रिकेटर थे. क्रिकेट छोड़ कर लंबे समय तक उन्होंने कुछ नहीं किया. फिर अचानक राजनीति में आ गए. इसलिए स्वाभाविक है कि पिता लालू प्रसाद यादव वाली बात तो उनमें होनी नहीं है, क्योंकि लालू के संघर्ष का अपना इतिहास रहा है. इन्हें तो सब तैयार मिला है.’
हालांकि, उमेश ये भी कहते हैं कि लालू की तरह न होना ही तेजस्वी को खास भी बनाता है.
वे कहते हैं, ‘तेजस्वी सार्वजनिक तौर पर अपनी गलतियों को स्वीकारने का माद्दा रखते हैं कि हां, हमारी सरकार में ऐसा गलत हुआ था. उनकी एक अच्छी बात यह भी है कि वे बेरोजगारी जैसे लोकलुभावन मुद्दों को उठा रहे हैं और उन पर सख्ती से टिके भी हैं. उनकी कमजोरी की बात करें तो उनकी भाषण शैली लालू जैसी आकर्षक नहीं है. न ही तेजस्वी के चेहरे के भाव देखकर लगता है कि वे नेता हैं. वहीं, लालू जो भी कहते थे, पंचलाइन बन जाता था.’
रोज़गार का मुद्दा
जानकार मानते हैं कि तेजस्वी द्वारा की गई 10 लाख युवाओं को रोजगार देने की घोषणा ने मतदाताओं के बीच उनकी छवि बदलने में अहम भूमिका निभाई है.
विष्णु कहते हैं, ‘रोजगार के मोर्चे पर निराश आम युवा के गुस्से को तेजस्वी अच्छा भुना रहे हैं, जो सरकार के खिलाफ जा रहा है. राजद का कोर वोटर यादव-मुसलमान ही नहीं, सामान्य युवा भी इस मुद्दे पर खुद को तेजस्वी से जुड़ा पा रहा हैं. महीने भर पहले तक नीतीश जितने मजबूत नजर आ रहे थे, उतने अब नहीं हैं.’
इस पर उमेश कहते हैं, ‘तेजस्वी ने रोजगार का मुद्दा उठाया तो भाजपा-जदयू उनकी पिच पर आकर खेलने के लिए मजबूर हो गए हैं और कह रहे हैं कि हम भी रोजगार देंगे. सुशील मोदी ने एक भाषण में ढाई-तीन लाख लोगों को नौकरी देने की बात कह चुके हैं.’
वे आगे बताते हैं, ‘तेजस्वी ने बिहार के सात-आठ लाख नियोजित शिक्षकों का समान काम के बदले समान वेतन की मांग का मुद्दा उठाया है. 90 हजार आशा कार्यकर्ताओं का मानदेय बढ़ाने की बात की है. इसलिए अब एनडीए ने डिफेंसिव मोड में आकर चुनाव में पाकिस्तान, जिन्ना और आतंकवाद की एंट्री करा दी है.’
वहीं, निराला का मानना है कि तेजस्वी भले ही युवा चेहरे हों, रोजगार की बात कर रहे हों या बदलाव की, लेकिन उन्होंने टिकट तो उसी पैटर्न पर बांटे हैं. कोई दागी हो या बलात्कारी, इससे मतलब नहीं रखा, बस सीट जिता सकता है या नहीं, इसे महत्व दिया गया है. वे पूछते हैं, ‘फिर कैसा बदलाव और कैसी उम्मीद?’
महागठबंधन: नेतृत्व स्वीकारने की मजबूरी
इस सबके बीच यह भी उतना ही सच है कि जब नीतीश के सामने तेजस्वी की चुनौती को रखते हैं तो तेजस्वी का कद बौना नजर आता है. यही कारण था कि महागठबंधन की तस्वीर साफ होने से पहले इसके घटक दलों में तेजस्वी का नेतृत्व स्वीकारने पर आम सहमति नहीं बन पा रही थी. हालांकि, आखिरकार सभी तेजस्वी को अपना चेहरा मानने के लिए राजी हो गए थे लेकिन इसके पीछे भी उनकी अपनी मजबूरियां रहीं.
बिहार के राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी बताते हैं, ‘बिहारी राजनीति जाति और धर्म की जड़ों पर खड़ी है. 90 के दशक में लालू ने जो ‘एमवाई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण ईजाद किया था, आज उसका प्रतिनिधित्व तेजस्वी करते हैं जो राजद की ताकत है. इसकी तुलना में दूसरा सबसे बड़ा विपक्षी कैंप कांग्रेस संगठनहीन है. उसके पास तो तेजस्वी जैसा नेतृत्व भी नहीं है. उनके प्रदेशाध्यक्ष पूरा बिहार तो छोड़िए, एक संभाग तक में किसी को आकर्षित नहीं कर सकते.’
वे आगे बताते हैं, ‘वाम दलों का संगठन तो है, लेकिन वे अब पहले से ज्यादा कमजोर हो गए हैं. विपक्षी दलों के पास संगठन और नेतृत्व की दृष्टि से कोई चेहरा ही नहीं है. जबकि तेजस्वी को पीछे से लालू का समर्थन तो है. राजद का दिया नेतृत्व स्वीकारने के अलावा विपक्ष के पास विकल्प क्या था?’
उनके अनुसार, ‘कांग्रेस दिल्ली में बैठे राहुल और सोनिया गांधी या वाम दल डी. राजा और सीताराम येचुरी के नाम पर बिहार में चुनाव तो जीत नहीं सकते. राजद के पास कम से कम लालू तो हैं, भले ही पर्दे के पीछे ही सही.’
बिहार में सामाजिक और राजनीतिक तौर पर सक्रिय कृष्णा मिश्रा भी इससे इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘तेजस्वी के नाम पर महागठबंधन के दल इसलिए राजी हुए क्योंकि उनके पास नेतृत्व का कोई विकल्प नहीं है. पिछले लोकसभा चुनाव में यादव मतदाता बिखर गया था. उस बिखराव रोकने के लिए तेजस्वी का चेहरा आगे करना जरूरी था.’
राजनीतिक विश्लेषक शैबाल गुप्ता भी कहते हैं, ‘तेजस्वी में ऐसी कोई क्षमता नहीं है, जिसे देखकर महागठबंधन उन्हें अपना चेहरा बनाता. वे लालू के प्रॉक्सी हैं, बस इसलिए उन्हें तवज्जो मिल रही है. अगर घटक दल तेजस्वी के नेतृत्व पर राजी नहीं होते तो महागठबंधन में उन्हें सीटें तक नहीं मिलतीं और बिहारी की राजनीति में बिना गठबंधन खुद को प्रासंगिक बनाए रखना संभव नहीं. राजद का वोटबैंक उनकी जरूरत थी इसलिए वे दबाव में थे और कहा कि राजद का जो भी नेता होगा, हमारे लिए मान्य होगा.’
‘एमवाई’ समीकरण की वापसी
निराला भी तेजस्वी के लालू का प्रॉक्सी होने की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘तेजस्वी पूरी तरह से 90 के दौर में लौटे हैं. वे अपने दम पर चुनाव नहीं लड़ रहे, नब्बे के दौर के एक प्रयोग के दम पर मैदान में हैं.’
वे कहते हैं, ‘टिकट बंटवारे पर गौर कीजिए. बहुत वर्षों के बाद ‘एमवाई’ समीकरण की वापसी हुई है. 75 सीटें मुस्लिम और यादव को देने से साफ है कि तेजस्वी चेहरा जरूर हैं लेकिन लालू की प्रक्रिया से आगे बढ़ रहे हैं. पूरा प्रयोग वही है जो 90 के दौर में लालू ने किया था. बस चेहरा लालू नहीं हो सकते है, इसलिए तेजस्वी चेहरा हैं.’
हालांकि, उमेश इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘लालू का तो हस्तक्षेप है ही लेकिन यह नहीं कह सकते कि तेजस्वी एक रोबोट है, जिसे संचालित लालू कर रहे हैं. तेजस्वी स्वतंत्र चेतना से भी कुछ फैसले ले रहे हैं, जैसे कि सवर्णों को भी राजद में तरजीह देना या 70 सीटें कांग्रेस को देना, जहां तेजस्वी की अत्याधिक सक्रियता रही और वह लगातार कांग्रेस के साथ सीटों का मोलभाव करने में जुटे रहे.’
उमेश आगे कहते हैं, ‘लालू होते तो शायद इतनी सीटें कांग्रेस को नहीं देते और खास बात कि कांग्रेस को उसने वही सीटें दी हैं जहां भाजपा लगातार जीतती आ रही है. मतलब कि कांग्रेस हार भी जाए तो कोई नुकसान न हो.’
उनके अनुसार, ‘इसके साथ ही राजद के घोषणा-पत्र में एक दिलचस्प चीज यह है कि महागठबंधन के घटक दलों की मांगों को भी इसमें शामिल किया गया है. इससे समझा जा सकता है कि तेजस्वी सभी को साथ रखना चाहते हैं.’
इसके इतर निराला की राय अलग है. उनका कहना है, ‘तेजस्वी का हर फैसला, लालू का फैसला है.’
बहरहाल, तेजस्वी द्वारा महागठबंधन में कांग्रेस को अधिक सीटें देने के फैसले को कृष्णा राजद या तेजस्वी की मजबूरी मानते हैं.
उनका कहना है, ‘कांग्रेस, राजद की जरूरत है. 2010 में जब कांग्रेस, राजद से अलग होकर चुनाव लड़ी थी तो राजद केवल 20 सीट पर सिमट गई, क्योंकि उसे मुसलमानों का वोट कांग्रेस के कारण मिलता है. हकीकत तो यही है कि यादवों और मुसलमानों को छोड़कर किसी भी समुदाय का एक वोट भी राजद के पास नहीं है. कांग्रेस को तो किसी तरह उन्हें मनाना ही था.’
नीतीश का विकल्प
यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि यदि तेजस्वी लालू के प्रॉक्सी हैं तो क्या वे अनुभवी नीतीश के विकल्प बन सकते हैं?
नवल किशोर कहते हैं, ‘जनता यह बिल्कुल नहीं समझती कि तेजस्वी, नीतीश के विकल्प हैं. जनता भी यही राय रखती है कि उनमें कोई क्षमता नहीं है. नीतीश के मुकाबले उनका कद बहुत छोटा है लेकिन जिस तरह कांग्रेस का कितना भी नुकसान होने पर चेहरा राहुल गांधी ही बने रहते हैं, वही राजद के साथ है.’
वे आगे कहते हैं, ‘यह बात तो नीतीश के विपक्षी भी मानते हैं कि नीतीश के मुकाबले उनके पास कोई नेता नहीं है. तेजस्वी को बस लालू का पुत्र होने का लाभ है, लेकिन इसका नुकसान भी है क्योंकि लालू के खिलाफ गंभीर आरोप हैं.’
वहीं, कृष्णा बताते हैं, ‘यहां मुसलमानों तक से बात करेंगे तो वैसे तो वे नीतीश को हटाना चाहते हैं, लेकिन जब आप नीतीश और तेजस्वी के बीच चयन की बात करेंगे तो बाजी पलट जाएगी और वे नीतीश को ऊपर रखेंगे. तेजस्वी के पास कुछ नहीं है, उनकी उपलब्धि बस यही है कि वे लालू के बेटे हैं. इसके अलावा उनकी कोई पहचान नहीं है.’
बहरहाल, इस बात पर हर जानकार सहमति रखता है कि बिहार में सत्ता विरोधी लहर चरम पर है. भले ही तेजस्वी, नीतीश के कद को चुनौती देने या उनका विकल्प बनने की क्षमता न रखते हों, लेकिन सत्ता विरोधी लहर उनके पक्ष में काम करेगी, जिसके चलते हो सकता है कि राज्य में सत्ता परिवर्तन हो जाए.
लालू: तेजस्वी की ताकत भी, कमज़ोरी भी
दूसरी ओर चारा घोटाले में सजा काट रहे लालू प्रसाद यादव इस बार भले ही चुनावी मोर्चे पर तैनात न हों और राजद के चुनावी पोस्टरों में उनका चेहरा नजर न आ रहा हो लेकिन तेजस्वी, राजद और चुनावी चर्चाओं पर अब भी उनकी छाप है.
जानकारों का मानना है कि लालू के पुत्र होने का लाभ उठाकर तेजस्वी मुख्यमंत्री का चेहरा तो बन गए हैं लेकिन लालू के पुत्र होने के नुकसान भी हैं जिनसे उन्हें दो-चार होना पड़ रहा है.
विष्णु कहते हैं, ‘लालू तेजस्वी की ताकत भी हैं और कमजोरी भी. ताकत क्यों हैं, सब जानते ही हैं लेकिन कमजोरी इसलिए हैं कि जब विरोधियों को तेजस्वी को निशाने पर लेना हो तो वे लालू का ही इतिहास गिनाते हैं.’
कृष्णा कहते हैं, ‘मतदातों से पूछेंगे कि नीतीश जाना चाहिए या रहना चाहिए तो वे कहेंगे कि नीतीश जाना चाहिए, लेकिन जब पूछेंगे कि तेजस्वी को आप मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार हैं तो उनका जवाब होगा कि लालू को नहीं बनाएंगे या फिर वे चुप्पी साध लेंगे.’
लालू से डर का कारण वह दौर है जब लालू सत्ता में थे और बिहार में ‘जंगलराज’ होने की बात कही जाती थी.
यही कारण है कि पत्रकार और बिहार में शिक्षण का कार्य कर रहे दीपांशु कुमार को लगता है कि तेजस्वी, नीतीश सरकार की नीतिगत खामियों पर उन्हें घेरने के बजाय उनकी सरकार में बढ़े क्राइम रेट पर अधिक फोकस कर रहे हैं, ताकि एनडीए जब जनता के बीच लालू के जंगलराज का डर दिखाए तो वे नीतीश शासनकाल में बढ़ता क्राइम रेट गिनाकर उसकी काट कर सकें.
दीपांशु कहते हैं, ‘इसलिए तेजस्वी केवल दो मुद्दों पर ज्यादा मुखर दिखते हैं. पहला रोजगार और दूसरा कि नीतीश सरकार में अपराध बढ़ गया है और वे सरकार की अन्य खामियों से अधिक अपराध के बढ़ते ग्राफ पर फोकस कर रहे हैं.’
जंगलराज की छवि के संदर्भ में पत्रकार कृष्णा मिश्रा को यह भी लगता है कि लालू का न होना तेजस्वी के लिए फायदेमंद भी हो सकता है. वे कहते हैं, ‘बीते तीन-चार दशक में बिहार का हर चुनाव लालू के समर्थन में या फिर विरोध में हुआ. इस बार लालू नहीं हैं. उनके न होने का असर तो है लेकिन तेजस्वी को इसका फायदा भी है. पहला तो वे एक स्वतंत्र चेहरे के तौर पर सीधा जनता के बीच पकड़ बना रहे हैं और दूसरा फायदा यह है कि जब वे रोजगार जैसे मुद्दों पर बात करते हैं तो लोगों को लगता है कि नया लड़का है, पिता से अलग होगा, जबकि लालू अगर उनके बगल में खड़े होते तो लोग उनके दौर के जंगलराज को लेकर सशंकित हो जाते हैं.’
शायद यही कारण हैं कि बिहार में इस बार राजद के चुनाव प्रचार में होर्डिंग-बैनर से लालू-राबड़ी के फोटो गायब हैं और तेजस्वी को मुख्य चेहरे के तौर पर प्रस्तुत किया गया है.
बहरहाल, तेजस्वी पर आरोप बहुत हैं जैसे कि उनके भाई तेज प्रताप यादव से उनकी पटरी नहीं बैठती या वे अपने हमउम्र नेताओं, जैसे कि कन्हैया कुमार की लोकप्रियता से असुरक्षित महसूस करते हैं या फिर वे संगठन संभाल नहीं पा रहे हैं, जिसके चलते अनेक राजद नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं.
हालांकि ज्यादातर जानकारों का मानना है कि तेजस्वी पर तेज प्रताप और असुरक्षा की भावना संबंधी आरोप सिर्फ मीडिया और सोशल मीडिया की उपज हैं, इनमें सच्चाई नहीं है. जहां तक नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने की बात है तो जानकारों का कहना है कि अवसरवादी राजनीति में दलबदल नई बात नहीं है.
नवल किशोर कहते हैं, ‘पार्टी छोड़ने वाले नेताओं को तेजस्वी का चेहरा नीतीश के मुकाबले कमजोर लगा, जिसके चलते एनडीए के पक्ष में माहौल दिखा तो सत्ता के साथ रहने की बेहतर संभावनाएं देख कर वहां चले गए. कल को तेजस्वी और राजद सरकार बना लें तो हो सकता है कि वे वापस फिर आ जाएं.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)