मध्य प्रदेश: क्या उपचुनाव में भाजपा को अपने ही नेताओं की नाराज़गी का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा

भाजपा ने उपचुनाव वाली 28 में से 25 सीटों पर कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए विधायकों को टिकट दिया है, जिससे उन सीटों के मूल भाजपा कार्यकर्ता नाराज़ हैं. साथ ही पार्टी के वे नेता भी नाख़ुश हैं, जो दल बदलकर आए नेताओं के कारण सरकार में मंत्री नहीं बन सके.

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कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आईं इमरती देवी की एक चुनावी रैली में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: फेसबुक/@ChouhanShivraj)

भाजपा ने उपचुनाव वाली 28 में से 25 सीटों पर कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए विधायकों को टिकट दिया है, जिससे उन सीटों के मूल भाजपा कार्यकर्ता नाराज़ हैं. साथ ही पार्टी के वे नेता भी नाख़ुश हैं, जो दल बदलकर आए नेताओं के कारण सरकार में मंत्री नहीं बन सके.

कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आईं इमरती देवी की एक चुनावी रैली में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: फेसबुक/@ChouhanShivraj)
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आईं इमरती देवी की एक चुनावी रैली में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान. (फोटो साभार: फेसबुक/@ChouhanShivraj)

‘सरकार है तो रुतबा बरकरार रहेगा. सरकार चली गई तो यह भी चला जाएगा.’

यह शब्द मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीते माह भोपाल में आयोजित प्रदेश के भाजपा नेता व कार्यकर्ताओं की एक बैठक के दौरान कहे थे. उक्त शब्दों के माध्यम से मुख्यमंत्री पार्टी नेता व कार्यकर्ताओं को सत्ता जाने का डर दिखा रहे थे ताकि इस डर से वे उपचुनाव जितवाने में सक्रियता दिखाएं.

कुछ ऐसे ही शब्द बीते दिनों केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कार्यकर्ता सम्मेलन के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहे थे. उस दौरान उन्होंने कहा, ‘इस बार चूके तो बाद में भुगतना हमें ही पड़ेगा.’

यहां भी तोमर का सीधा आशय था कि 2018 के विधानसभा चुनावों की तरह अगर इस बार भी उपचुनाव में भाजपा की हार होती है तो सत्ता चली जाएगी और विपक्ष में बैठने के जो नुकसान हैं, वो हर पार्टी कार्यकर्ता को भुगतने पड़ेंगे.

मध्य प्रदेश में उपचुनावों की आहट के साथ ही लगातार भाजपा के बड़े नेता अपने अधीनस्थ नेताओं और कार्यकर्ताओं को इसी तरह पार्टी प्रत्याशियों के पक्ष में एकजुट होने के लिए सत्ता जाने का डर दिखा रहे हैं.

विपक्ष में बैठने के नुकसान गिना रहे हैं. सत्ता के रुतबे से ललचा रहे हैं. और यह पूरी कवायद इसलिए की जा रही है ताकि पार्टी की फूट कहीं उपचुनावों में भाजपा की संभावनाओं को झटका न दे दे.

बता दें कि मार्च माह में कांग्रेस के 22 विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थन में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गए थे. फिर जुलाई माह में कांग्रेस के तीन और विधायकों ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था.

विधायकों के इस्तीफे से खाली हुईं इन सभी 25 सीटों (कुल 28 सीटों) पर उपचुनाव हो रहे हैं जहां भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर आए विधायकों को ही अपना उम्मीदवार बनाया है., जिसके चलते भाजपा के उन पुराने नेताओं की भौहें तन गईं जो पूर्व में इन सीटों पर वर्षों से चुनाव लड़ते आए थे.

अब उनकी इन सीटों पर दल बदलकर भाजपा में आए कांग्रेसियों को टिकट मिल गया है. इससे भाजपा नेताओं के मन में शिकवा घर कर गया कि जिन कांग्रेसियों के खिलाफ चुनाव लड़कर हम पार्टी को जिताते थे, अब वही कांग्रेसी हमारी पार्टी का हिस्सा बन कर हमारी ही विधानसभा सीट पर पार्टी के उम्मीदवार बन गए हैं.

इस तरह इन सीटों पर पुराने भाजपाईयों के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिह्न लग गया है, उनमें पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया, पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे और स्वयं कैबिनेट मंत्री रहे दीपक जोशी, पूर्व मंत्री लाल सिंह आर्य, रुस्तम सिंह और गौरीशंकर शेजवार जैसे दिग्गजों के नाम शामिल हैं.

सिर्फ इतना ही नहीं, भाजपा के अंदर पनपे अंदरूनी रोष का कारण शिवराज सिंह चौहान का मंत्रिमंडल भी है, जहां कांग्रेस से भाजपा में आए 14 बागी विधायकों को मंत्री बना दिया गया.

शिवराज सरकार में मंत्रिमंडल के करीब 40 फीसदी पद चंद रोज पहले भाजपा का हिस्सा बने कांग्रेसियों को मिले हैं. इसने भी आग में घी का काम किया.

कांग्रेसियों के आने से जिन भाजपाईयों की विधानसभा सीटें गईं वे तो नाराज थे ही, मंत्रिमंडल के गठन के बाद वे भी नाराज हो गए जो मंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे.

राजेंद्र शुक्ल, अजय विश्नोई, रामपाल सिंह, गौरीशंकर बिसेन, संजय पाठक, अशोक रोहाणी, पारस जैन, महेंद्र हार्डिया, सुरेंद्र पटवा, जालम सिंह पटेल जैसे करीब दर्जनभर पूर्व मंत्रियों समेत गोपीलाल जाटव, गिरीश गौतम, रमेश मेंदोला और केदार शुक्ला जैसे नये नाम भी मंत्री बनने की कतार में थे.

लेकिन, नये-नये भाजपा में आए कांग्रेसियों के सिर मंत्री पद का सेहरा सजने के चलते सबके अरमानों पर पानी फिर गया. नतीजतन भाजपा को इनमें से कईयों के रोष का भी सामना करना पड़ा है जिसके चलते जमीन पर उसके नेता और कार्यकर्ताओं की सक्रियता दिखाई नहीं दे रही है.

इसके अलावा पार्टी कार्यकर्ताओं में रोष इस बात का भी है कि जो नये-नये कांग्रेसी भाजपा में आकर चुनावों में पार्टी प्रत्याशी बन गए हैं, वे भाजपा के मूल कार्यकर्ताओं को तवज्जो न देकर अपने साथ भाजपा में लाई गई कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की टीम के साथ काम कर रहे हैं.

पिछले दिनों महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी के एक कार्यक्रम में तो यह रोष खुलकर सामने आ गया.

वाकया यूं था कि इमरती देवी की एक चुनावी सभा के दौरान मंच पर इमरती समर्थक पूर्व कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को तो जगह दी गई लेकिन भाजपा के ही पदाधिकारियों के लिए जनता के बीच कुर्सी डाल दी गई. नतीजन मूल भाजपाईयों ने मीडिया के सामने ही जमकर विरोध किया.

इसलिए तीन तरफा इस विरोध का सामना कर रही भाजपा 2018 विधानसभा चुनावों की उस स्थिति से डरी हुई है, जहां करीब आधा सैकड़ा सीटों पर उसे भितरघात का सामना करना पड़ा था और सत्ता उसके हाथों के बिल्कुल करीब से छिटक गई थी.

इस बार भी उपचुनाव की 28 में से करीब 19 सीटों पर भाजपा के अंदर से ही विरोध के स्वर उठ चुके हैं जिन्हें थामने के लिए सत्ता एवं संगठन ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. लेकिन, फिर भी जमीन पर उसका असर कम ही दिखाई दे रहा है.

इसी का परिणाम है कि अब तक छह सीटों पर भाजपा के पुराने नेता बगावत करके कांग्रेस या दूसरे दलों से भाजपा के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर आए हैं.

ग्वालियर पूर्व से 2018 में सतीश सिकरवार भाजपा प्रत्याशी थे, जबकि मुन्नालाल गोयल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे. मुन्नालाल गोयल अब भाजपा में आ गए और पार्टी ने उन्हें टिकट भी दे दिया तो सतीश ने पार्टी से बगावत करके कांग्रेस का दामन थाम लिया और अब वे कांग्रेस का उम्मीदवार बनकर भाजपा के सामने चुनाव लड़ रहे हैं.

इसी तरह सुरखी में पारुल साहू भी पिछली बार भाजपा की उम्मीदवार थीं. मंत्री गोविंद सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार थे. गोविंद सिंह भाजपा में आए और सुरखी से पार्टी उम्मीदवार बन गए. नतीजतन पारुल कांग्रेस में पहुंच गईं और टिकट ले आईं.

सुमावली में भी यही कहानी दोहराई गई. अजब सिंह कुशवाह पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा उम्मीदवार थे और मंत्री ऐदल सिंह कंसाना कांग्रेस के. ऐदल सिंह भाजपा में आ गए और पार्टी ने उन्हें अपना उम्मीदवार भी बना लिया तो अजब सिंह ने भाजपा से बगावत करके कांग्रेस का दामन थाम लिया और अब वे ऐदल के सामने कांग्रेसी उम्मीदवार बनकर खड़े हैं.

यानी इन तीन सीटों पर प्रत्याशियों के चेहरे वही हैं, लेकिन उनके दल बदल गए हैं. जो कांग्रेसी थे, वे अब भाजपाई हो गए हैं. इससे नाराज होकर भाजपाई, कांग्रेसी बन गए हैं.

इनके अलावा शिवराज सरकार में मंत्री रहे कन्हैयालाल अग्रवाल भी बमोरी सीट पर भाजपा के ही खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं.

अंबाह सीट पर पूर्व विधायक बंशीलाल जाटव ने भी भाजपा से बगावत कर दी है और समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

वहीं, सांवेर में भी समीकरण बदले हैं. सिंधिया के खासमखास मंत्री तुलसी सिलावट के सामने कांग्रेस से प्रेमचंद गुड्डू मैदान में हैं.

पिछले चुनावों में गुड्डू भाजपा में थे और उनके बेटे ने भाजपा के टिकट पर चुनाव भी लड़ा था. लेकिन, सिंधिया के भाजपा में आने का विरोध करते हुए वे कांग्रेस में चले गए और तुलसी सिलावट के खिलाफ कांग्रेस ने उन्हें अपना उम्मीदवार भी बना दिया.

अन्य सीटों पर इस तरह चुनाव में उतरने की बगावत तो नहीं हुई है लेकिन भितरघात और असहयोग की संभावनाएं बनी हुई हैं.

मेहगांव में पूर्व विधायक मुकेश चौधरी और राकेश शुक्ला उपचुनावों में भाजपा के लिए जमीन पर नहीं आ रहे हैं. मुरैना में पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह के भी कांग्रेस से संपर्क की बातें सामने आई थीं.

कई मौकों पर उन्होंने अपने बयानों के जरिए अपना दर्द भी बाहर निकाला था. बहरहाल, वे कांग्रेस मे तो नहीं गए लेकिन अब तक भाजपा की चुनावी तैयारियों में सक्रियता नहीं दिखाई है.

पोहरी सीट पर पूर्व विधायक प्रह्लाद भारती उपचुनावों की घोषणा के पहले तो सक्रिय थे, लेकिन अब गायब हैं. दिमनी में भी पूर्व विधायक बलवीर सिंह दंडौतिया और शिवमंगल सिंह तोमर की कहानी जुदा नहीं है.

सांची में तो मंत्री प्रभुराम चौधरी को सबसे बड़ी चुनौती शिवराज सरकार में मंत्री रहे गौरीशंकर शेजवार की है. शेजवार के बेटे मुदित जो 2018 में इसी सीट पर भाजपा प्रत्याशी के तौर पर प्रभुराम (तब कांग्रेस में) से ही चुनाव हारे थे, खुलकर प्रभुराम के खिलाफ एक सभा में बयानबाजी तक कर चुके हैं.

वहीं, बदनावर में पूर्व विधायक भंवर सिंह शेखावत की नाराजगी का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने खुले मंच से कैलाश विजयवर्गीय पर आरोप लगाए कि इस सीट पर वह जो पिछला चुनाव राज्यवर्द्धन सिंह दत्तीगांव (अब भाजपा में) से हारे थे, उसमें कैलाश ने भितरघात किया था.

नेपानगर में भाजपा प्रत्याशी सुमित्रा कास्डेकर को भी भाजपा के मूल कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध का सामना करना पड़ा. एक मौके पर तो वे जब जनसंपर्क के लिए क्षेत्र में थी तो पूर्व भाजपा विधायक मंजू दादू के समर्थकों ने उनके खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी.

इस बीच भाजपा लगातार डैमेज कंट्रोल में भी जुटी हुई है. मसलन जुलाई-अगस्त मे जब पूर्व राज्यसभा सांसद रघुनंदन शर्मा की अगुवाई में भाजपा के असंतुष्ट नेताओं की लगातार बैठकें हो रही थीं तो सत्ता व संगठन ने सक्रियता दिखाकर उन्हें मनाया.

इसी तरह हाटपिपल्या से दीपक जोशी भी कांग्रेस के संपर्क में थे लेकिन मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं द्वारा संपर्क करने के बाद उन्होंने कांग्रेस में जाने के विचार त्याग दिए.

इससे पहले वे भाजपा के खिलाफ शक्ति प्रदर्शन तक कर चुके थे और कांग्रेसी नेताओं के साथ बैठकें कर रहे थे.

गोहद सीट पर भी पूर्व मंत्री लाल सिंह आर्य नाराज थे. गोहद से भाजपा ने कांग्रेस से आए उन रणवीर जाटव को टिकट दिया था जिनके पिता की हत्या के आरोप में लाल सिंह पर मुकदमा भी चल चुका था.

लाल सिंह चंबल में पार्टी का अनुसूचित चेहरा थे लिहाजा उन्हें मनाने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें पार्टी के अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया.

सुवासरा सीट पर हरदीप सिंह डंग का चुनाव संचालक उन राधेश्याम पाटीदार को बना दिया, जो पिछला चुनाव भाजपा के टिकट पर हरदीप (तब कांग्रेस में) से ही हारे थे.

ऐसा करके पाटीदार को यह जताने का प्रयास किया गया कि भाजपा की जीत के लिए वे काफी महत्वपूर्ण हैं.

वहीं, मंत्री न बनने से नाराज अजय विश्नोई जैसे नेताओं को सम्मानित करने की दृष्टि से विभिन्न विधानसभा सीटों का प्रभारी बनाकर उपचुनाव जिताने की अहम जिम्मेदारी देकर यह जताने का प्रयत्न किया कि पार्टी संगठन के लिए वे भी बहुत अहमियत रखते हैं.

सांची में पूर्व विधायक राजेश सोनकर की भी नाराजगी कम होने के संकेत तब मिले, जब उन्होंने तुलसी सिलावट के खिलाफ पिछले दिनों अदालत में लगाई अपनी चुनावी याचिका वापस ले ली.

ग्वालियर से पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया की नाराजगी भी किसी से छिपी नहीं है. वे कट्टर सिंधिया विरोधी हुआ करते थे, साथ ही ग्वालियर सीट पर भाजपा के स्थायी चेहरे थे.

यहां उनकी कांग्रेसी प्रद्युम्न सिंह तोमर से कट्टर प्रतिद्वंदिता रहती थी, लेकिन तोमर भाजपा में आकर पार्टी का चेहरा बन गए तो पवैया का नाराज होना स्वाभाविक था. नतीजतन कई बार उनके बयान पार्टी के खिलाफ भी जाते दिखे.

संगठन ने हस्तक्षेप करके पवैया को मना तो लिया और वे एक मौके पर प्रद्युम्न के लिए वोट भी मांगते दिखाई दिए.

लेकिन यह भी उतना ही सच है कि रघुनंदन शर्मा हों या दीपक जोशी या फिर जयभान सिंह पवैया और जौरा व ग्वालियर पूर्व की सीटों पर नजर गढ़ाए बैठे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा या फिर अन्य सभी असंतुष्ट नेता, अब भी जमीन पर भाजपा के लिए सक्रियता नहीं दिखा रहे हैं.

भाजपा के उम्मीदवारों के लिए न तो वे और न ही उनके समर्थक जमीन पर वोट मांगते नजर आ रहे हैं.

यह तो वे सीटें है जहां कांग्रेसियों ने भाजपा में आकर भाजपा नेताओं के राजनीतिक भविष्य पर कुठाराघात किया है. इनके अलावा तीन सीटें ऐसी भी हैं जो विधायकों के निधन से खाली हुई हैं.

इन तीन में से दो सीटों, जौरा और ब्यावरा पर भी भाजपा के घोषित प्रत्याशियों को अंदरूनी विरोध का सामना करना पड़ा है.

जौरा में तो पार्टी कार्यकर्ताओं ने ही स्थानीय सांसद और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का बीच रास्ते में काफिला तक रोक लिया और नारेबाजी कर दी. संगठन महामंत्री सुभाष भगत के सामने भी पार्टी के स्थानीय पदाधिकारियों ने प्रत्याशी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

ऐसे ही जमीनी हालातों को देखते हुए भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उपचुनावों की लगभग हर सीट पर दौरे कर-करके कार्यकर्ताओं और पार्टी पदाधिकारियों का मान-मनौव्वल कर चुका है.

पार्टी में सिंधिया गुट के आ जाने से जो ‘मूल भाजपाई बनाम बाहरी भाजपाई’ की अंदरूनी बहस छिड़ी है, उससे उपजे असंतोष को दबाने के लिए पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष एक बैठक में नेता, कार्यकर्ता और पदाधिकारियों संबोधित करते हुए कहते नजर आए, ‘कोई बाहर का नहीं है. हम सब भाजपा संगठन के हैं इसलिए किसी को बाहरी प्रत्याशी न समझा जाए.’

इसी तरह शिवराज के मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह भी पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बैठक के दौरान कहते पाए गए, ‘जो पार्टी में अपने-पराये की बात कर रहे हैं, उनके नाम बताएं. उनकी बात सुनेंगे और उन्हें समझाएंगे.’

वहीं, अंदरूनी अंसतोष और भितरघात को थामने के लिए भाजपा भावनात्मक पहलू का भी सहारा ले रही है.

इसी के तहत नरेंद्र सिंह तोमर कहते नजर आते हैं, ‘जो मतदान होगा, वह मुख्यमंत्री शिवराज को तो स्थायित्व देगा ही, साथ ही केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी को भी मजबूती मिलेगी. जिन विधायकों के इस्तीफे से भाजपा की सरकार बनी है, उन्हें जिताने की जिम्मेदारी हमारी है.’

तो दूसरी ओर तोमर के संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीटों पर शिवराज पार्टी नेता और कार्यकर्ताओं से कहते नजर आते हैं, ‘अगर यहां नहीं जीते तो मोदी के बगल में बैठने वाले तोमर की इज्जत का क्या होगा?’

इन शब्दों से शिवराज का आशय तोमर के नाम पर सिंधिया समर्थकों के पक्ष में कार्यकर्ताओं को एकजुट करना था.

कहते हैं कि दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता है. अंदरूनी असंतोष और भितरघात के चलते 2018 में सत्ता गंवा चुकी भाजपा अब फिर वैसे ही हालातों से डरी हुई है.

फिर वैसी गलती न हो, इसलिए शीर्ष नेतृत्व द्वारा सत्ता जाने का डर दिखाने से लेकर भावनात्मक अपील करने तक रूठों को मनाने का हर वो प्रयास किया जा रहा है, जो शायद इससे पहले राज्य के किसी भी चुनाव में भाजपा द्वारा करते नहीं देखा गया है.

इन प्रयासों में भाजपा को कितनी सफलता मिलती है और कितना नुकसान उठाना पड़ता है, यह तो 3 नवंबर के मतदान के बाद 10 नवंबर को परिणाम वाले दिन ही स्पष्ट हो पाएगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)