कोर्ट ने सरकार से सवाल किया कि मान लीजिए पुलिस ने चार लोगों के ख़िलाफ़ मजिस्ट्रेट के सामने चार्जशीट दाखिल कर दी है लेकिन आगे की कार्रवाई के लिए सरकार की अनुमति चाहिए, जो नहीं दी गई, तब क़ानूनन मजिस्ट्रेट क्या करे.
गोरखपुर दंगों में योगी आदित्यनाथ की भूमिका पर सीबीआई जांच की मांग वाली एक याचिका की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से सवाल किया है कि सरकार द्वारा मुख्यमंत्री (जो इस मामले में मुख्य आरोपी है) के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने की अनुमति न मिलने के बाद याचिकाकर्ता के क्या क़ानूनी रास्ता बचता है.
गौरतलब है कि योगी आदित्यनाथ पर 2007 में गोरखपुर में हुए दंगों के लिए भीड़ को उकसाने सहित हत्या और आगजनी के भी आरोप हैं, जिस पर गोरखपुर के परवेज़ परवाज़ ने उनके ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करवाई है और हाईकोर्ट में मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं. लेकिन बीते दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया था.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार 28 जुलाई को परवेज़ परवाज़ और असद हयात द्वारा डाली गई इस याचिका की सुनवाई करते हुए जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अखिलेश चंद्र शर्मा की पीठ ने इस मामले में सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे एडिशनल एडवोकेट जनरल एके मिश्रा से सवाल किया कि सरकार की अनुमति न मिलने की स्थिति में याचिकाकर्ताओं को क्या करना चाहिए.
इस पर मिश्रा का कहना था कि याचिकाकर्ताओं के पास अपनी बात कहने के लिए कोई नया आधार नहीं है, न ही उनके पास केस को आगे बढ़ाने के कोई तर्क हैं. मामले की जांच भी पूरी हो चुकी है और चार्जशीट भी दायर कर दी गई है, इसलिए कोर्ट को उनकी अर्ज़ी ख़ारिज कर देनी चाहिए.
अदालत द्वारा याचिकाकर्ताओं को रास्ता सुझाने के सवाल पर उनका कहना था, ‘याचिकाकर्ताओं को क़ानून को अपना काम करने देना चाहिए. उनके पास अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के सेक्शन 190 के तहत विकल्प है, साथ ही वे विरोध याचिका भी दायर कर सकते हैं.’
ज्ञात हो कि सीआरपीसी के सेक्शन 190 के अनुसार कोई मजिस्ट्रेट पुलिस में दर्ज किसी रिपोर्ट, शिकायत या जानकारी के आधार पर किसी अपराध के बारे में संज्ञान ले सकता है.
इस पर पीठ ने उनसे कहा कि सेक्शन 190 सेक्शन 196 के अनुसार काम करता है, जिसके मुताबिक मजिस्ट्रेट को किसी शिकायत पर संज्ञान लेकर उस पर मुकदमा चलाने के लिए राज्य सरकार की मंजूरी लेना ज़रूरी होता है.
जस्टिस कृष्ण मुरारी का कहना था, ‘मैं सरकार से यह पूछता हूं कि मान लीजिए किसी मामले में मुकदमा चलाने के लिए सरकार की मंजूरी आवश्यक है, पुलिस ने अपनी जांच पूरी कर ली है, जांच रिपोर्ट तैयार करके मजिस्ट्रेट को सौंप दी है पर मजिस्ट्रेट के पास सरकार की मंजूरी नहीं है, तो ऐसे में क्या वो आगे बढ़ सकता है? इस स्थिति में मजिस्ट्रेट क्या करेगा?’
उन्होंने सरकार के सामने काल्पनिक स्थिति रखते हुए सवाल किया कि अगर पुलिस ने किन्हीं चार लोगों के ख़िलाफ़ मजिस्ट्रेट के सामने चार्जशीट दाखिल कर दी है पर अग्रिम कार्रवाई के लिए सरकार की अनुमति चाहिए पर अनुमति नहीं है, तब क़ानूनन मजिस्ट्रेट को क्या करना चाहिए.
जब सरकार के अधिवक्ता की ओर से इस सवाल का जवाब नहीं मिला तब कोर्ट ने कहा, ‘इस मामले की गंभीरता समझते हुए हम किसी दुविधा में नहीं फंसना चाहते… न ही आप (सरकार) को फंसना चाहिए… इसलिए इस सवाल का जवाब जल्दबाज़ी में मत दीजिये. अगर मजिस्ट्रेट अग्रिम कार्रवाई नहीं कर सकता, तब याचिकाकर्ता कहां जाएंगे? किसी को निरुपाय नहीं छोड़ा जा सकता.’
इसके बाद पीठ ने सरकार द्वारा इस सवाल का जवाब देने के लिए मामले की सुनवाई 31 जुलाई तक स्थगित कर दी.
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गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने 4 मई, 2017 को राज्य सरकार से पूछा था कि उत्तर प्रदेश की सीबी-सीआईडी दो साल से इस मामले में चार्जशीट पेश करने के आदेश दिए जाने का इंतज़ार क्यों कर रही है. साथ ही राज्य के मुख्य सचिव को 11 मई को सारे दस्तावेज़ों और अपनी सफाई के साथ पेश होने को कहा था.
11 मई को सरकार की ओर से कहा गया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा पेश मुख्य सबूत एक सीडी है, जिस पर फॉरेंसिक रिपोर्ट में छेड़छाड़ किए जाने की बात कही गई है.
इसके जवाब में याचिकाकर्ताओं ने अपने वक़ील एस फ़रमान नक़वी द्वारा अपनी याचिका में परिस्थितियों में हुए बदलाव का हवाला देते हुए संशोधन करवाया कि कैसे मुख्य आरोपी अब राज्य के मुख्यमंत्री बन चुके हैं. उन्होंने कोर्ट से राज्य सरकार के मंजूरी न देने के आदेश को ख़ारिज करने की भी गुज़ारिश की.
इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए नक़वी ने कहा, ‘कोई ख़ुद अपना जज नहीं बन सकता. अब स्थितियां बदल चुकी हैं क्योंकि मामले का मुख्य आरोपी अब राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर है, साथ ही मुक़दमे और कार्रवाई पर मंजूरी देने वाले गृह मंत्रालय की कमान भी उन्हीं के हाथ में है. यही वजह है कि हम कोर्ट से मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ मुकदमे से इनकार करने वाले आदेश को ख़ारिज करने की मांग कर रहे हैं.’