नेताओं द्वारा बिहार की जनता के साथ ठगी का सिलसिला जारी है.
काश! जनता के पास कोई वैसी राजनीतिक टकसाल होती जैसी भारत सरकार के पास करंसी ढालने के लिए होती है. तब वर्तमान राजनीति के तमाम खोटे सिक्कों को वह कब का रातोंरात ख़ारिज कर नए खांटी सिक्के उतार चुकी होती.
जनता की यह मजबूरी है कि उसके पास नेताओं को ढालने की जो टकसाल है वह संघर्ष की आंच और धैर्य की हांडी पर लंबी प्रक्रिया के बाद ही उन्हें ढाल पाती है. इसलिए खोटे सिक्कों को घिस-घिसकर चलाना जनता की एक मजबूरी है.
ऐसी ही एक मजबूरी के तहत बिहार की जनता ने 2015 में समान वैचारिक विरासत का दावा करने वाले दो धुर विरोधी नीतीश कुमार व लालू यादव और एक विपरीत विचारधारा वाली कांग्रेस पार्टी के ‘बेमेल महागठबंधन’ पर भरोसा जताया था.
इससे पहले भी बिहार की जनता ने मजबूरी में जदयू और भाजपा के ‘बेमेल गठजोड़’ पर तब विश्वास किया था जब वह लालू परिवार की भ्रष्ट और भाई-भतीजावादी राजनीति से तंग आ गई थी.
जनता का दुर्भाग्य देखिए कि दोनों ही बार खोटे सिक्कों ने उसे ठग लिया. विडंबना यह कि बिहार की ‘जनता के हितों’ के नाम पर ही यह ठगी होती रही. गोया जनादेश एकबात हो और जनता का हित दूसरी बात.
बिहार का पिछला जनादेश एकदम साफ था. जनता नीतीश और लालू दोनों को एक और मौका देकर फिर चलाने को मजबूर थी. वह चाहती थी कि लालू जैसा भदेस नेता पिछली गलतियों से सीखते हुए अपने परिवार के मोह से बाहर आकर फिर उसी तरह पिछड़ों और दलितों का हमदर्द बने जैसा 1990-91 के अपने शुरुआती दिनों में वे माने जाते थे.
जनता ने नीतीश से भी यह आशा की थी कि ईमानदार हिंदू राष्ट्रवादी चेहरे नरेंद्र मोदी के मुकाबले वह ईमानदार भारतीय राष्ट्रवादी चेहरा बनें. इसीलिए कांग्रेस को साथ रखने से भी परहेज नहीं किया. लेकिन दोनों ही खोटे निकले. लालू न पुत्र मोह छोड़ पाए और न नीतीश सत्ता मोह. बाकी सब इतिहास है.
अब आगे क्या?
बिहार के मुख्यमंत्री पद की छठी बार शपथ लेने वाले नीतीश कुमार यह भले ही कहते रहे हों कि ‘काठ की हांडी’ एक ही बार चढ़ती है, पर उन्होंने ही इसे दूसरी बार चढ़ा दिया है. यह देखना रोचक होगा कि इसमें पकने वाली खिचड़ी कैसी होगी और उसे कौन-कौन कितना खाएगा.
इस खिचड़ी का पहला स्वाद 2019 के लोकसभा चुनाव में लिया जा सकेगा और पूरा भोजन (यदि पकेगा तो) 2020 के विधानसभा चुनाव तक परोसा जाएगा. आइए तब तक के लिए अटकलें लगाते रहें.
पहली अटकल राजद के लिए
नई सरकार के गठन में सबसे बड़े दल की उपेक्षा के मामले में कोर्ट से राजद को राहत मिलने की उम्मीद काफी कम है, क्योंकि एनडीए को विधानसभा में विश्वासमत मिल जाने के बाद इसके ख़िलाफ़ कोई तर्क काम करेगा, ऐसा नहीं लगता.
सत्ता से बाहर होते ही लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों के निपटारे में तेजी आएगी. इसकी शुरुआत हो चुकी है. इससे बचने के लिए लालू यदि मुलायम-गति को प्राप्त नहीं होते हैं तो अपनी जेल-दुर्गति को अभिशप्त होंगे.
उस स्थिति में राजद कुनबे की दशा और दिशा क्या होगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि अगले एक साल तक बीजेपी अपने आप को कैसे प्लेस करती है. यदि वह आक्रामक सांप्रदायिक कार्ड छुपाकर रखती है तो राजद धीरे-धीरे अपनी मौत मरता जाएगा.
ऐसा नहीं हुआ तो जेल के अंदर भी लालू को रोकना मुश्किल होगा. क्योंकि बिहार में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब भी जातीय ध्रुवीकरण से ज़्यादा मुश्किल है.
दूसरी अटकल जदयू के लिए
‘बड़े भाई’ की पार्टी को ठिकाने लगाने के बाद नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ा आसन्न ख़तरा छोटे भाई सुशील मोदी की भाजपा ही बनने वाली है. वह अच्छी तरह जानते हैं कि भाजपा अपने सहयोगियों के साथ कैसा सलूक करती है.
वह यह भी जानते हैं कि सुशील मोदी भले ही उनके डिप्टी हों, लेकिन उनकी पार्टी छोटी नहीं है. और यह भी कि क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में भाजपा का क्या नज़रिया है. महाराष्ट्र का उदाहरण सामने हैं.
राजग में नीतीश कुमार की ‘घर वापसी’ ऐसे समय हुई है जब घर के मालिक मुख़तार बदल चुके हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके विश्वस्त अमित शाह की यह नई भाजपा ज़्यादा दिनों तक जदयू को राज्य में बड़ी पार्टी के रूप में बर्दाश्त करेगी, इसमें संदेह है.
तब दोबारा चढ़ाई गई काठ की हांडी का नीतीश क्या करेंगे यह देखना पिछली बार से ज़्यादा रोचक होगा.
तीसरी अटकल भाजपा के लिए
मोदी और शाह की जोड़ी यह जानती है कि बिहार में भाजपा को तब तक बढ़त नहीं मिल सकती जब तक हिंदुत्व का एजेंडा जातिवाद पर भारी न पड़े. इसमें शायद ही किसी को शक हो कि भाजपा बिहार में भी ऐसा करना चाहेगी. हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने का एक मतलब नीतीश का कद छोटा करना भी होगा.
एक साल 10 माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी का लक्ष्य इस एजेंडे के बगैर शायद ही पूरा हो पाए. क्योंकि पिछली बार की तरह यूपीए के भ्रष्टाचार जैसा कोई मुद्दा आगामी चुनाव में नहीं होगा.
बिना किसी भावनात्मक मुद्दे के एनडीए चुनाव में नहीं जाना चाहेगा. क्योंकि किसान, मज़दूर, दलित और बेरोज़गार युवाओं की निराशा और नोटबंदी व जीएसटी के साइड इफेक्ट का सामना हिंदुत्व के एजेंडे से ही किया जा सकेगा.
यदि विकास के मुद्दे के भरोसे चुनाव लड़ा गया तो अव्वल यह कि इसकी सफलता पर संदेह बना रहेगा और दूसरा यह कि फायदा होगा भी तो जदयू के सुशासन बाबू को. अगले चुनावों में आख़िर भाजपा भला ऐसा क्यों चाहेगी?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)