फ्रांस में जो हुआ, उसके लिए दुनिया के सारे मुसलमान जवाबदेह नहीं, लेकिन जब अल्लाह का नाम लेकर क़त्ल किया जा रहा हो, तो अल्लाह के बंदों को क़ातिल से कहना चाहिए कि वह क़त्ल के साथ ये मुक़द्दस नाम लेकर ही कुफ़्र कर रहा है.
आज ईद मिलाद उन नबी है. फ्रांस के मुसलमानों की सबसे बड़ी संस्था ने अपील की है कि इसे मनाते वक्त मुसलमान उस शोक का ध्यान रखें जो नीस में चर्च में तीन लोगों के कत्ल से मुल्क में पैदा हुआ है.
‘एक औरत का सिर चर्च के भीतर काट डाला गया. इसका मतलब यही है कि इन लोगों का (हत्यारों का) पाकीजगी के ख्याल से कोई लेना-देना नहीं है. उनके लिए कोई नैतिक हद नहीं है.’
यासर लुआती ने जो फ्रांस के मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, गुरुवार को फ्रांस में नीस में एक चर्च में श्रद्धालुओं के ऊपर हुए हिंसक हमले में दो स्त्रियों समेत तीन लोगों की हत्या के बाद फौरन यह कहा.
लेकिन उनसे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है इदरीस सिहामदी का बयान,
‘ये हमले गंभीर हैं और जो बात इन्हें दोहरे तौर पर गंभीर बना देती है वह यह कि ये उस जगह किए गए जहां लोग शांति की तलाश में आते हैं.’
इदरीस ने मारे गए लोगों का परिजनों के साथ खड़े रहने की अपील की लेकिन उनके साथ भी जो श्रद्धालु हैं, उन्होंने कहा कि फ्रांस पागलपन, नफरत, क्रोध और बदले की दलदल में धंस रहा है.
इदरीस के मुस्लिम संगठन ‘चैरिटी बराकासिटी’ पर फ्रांस की सरकार ने पाबंदी लगा दी है. उस पर घृणा फैलाने का आरोप सरकार का है. कुछ दिन पहले उनके दफ्तर पर छापा मारा गया गया था और उनके साथ पुलिस ने दुर्व्यवहार भी किया था.
लेकिन अपने वक्तव्य में उन्होंने किसी किंतु-परंतु का सहारा नहीं लिया है और निर्भ्रांत रूप से हत्याओं की निंदा की है. हत्या को बिना अगर-मगर के नामंजूर करना चाहिए.
किसी विचार की रक्षा के नाम पर, पवित्रता के किसी खयाल की हिफाजत के नाम पर, वह कितना ही महान और किसी के लिए कितना ही अनुल्लंघनीय क्यों न हो, हिंसा और हत्या को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. हर हत्या की निंदा बिना शर्त होनी चाहिए.
क्योंकि हर हत्या में एक अलग व्यक्ति मारा जाता है. वह विलक्षण है और वह कोई खयाल भर नहीं है. उसे बने रहने का हक है. उकसावा कोई बहाना नहीं हो सकता हत्या के लिए और उसके सामने खामोश रह जाने के लिए.
यह सवाल किया गया है कि क्या मुसलमानों को किसी सिरफिरे के इस कृत्य के खिलाफ बोलने की मजबूरी है. बिल्कुल नहीं. दुनिया के सारे मुसलमान इस क़त्ल के लिए जवाबदेह नहीं. लेकिन जब अल्लाह का नाम लेकर क़त्ल किया जा रहा हो तो अल्लाह के बंदों को क़ातिल से कहना चाहिए कि वह क़त्ल के साथ इस मुक़द्दस नाम को लेकर ही कुफ्र कर रहा है.
लेकिन हम याद रखें कि अगर हम किसी भी हत्या के बाद खामोश रह जाते हैं तो अगली हत्या के लिए जगह बना देते हैं.
हर हत्या का विरोध हर किसी को करने की ज़रूरत है क्योंकि हत्या का विचार चारों तरफ हावी हो रहा है. हरेक की आवाज़ उसे काटने के लिए उठनी ही चाहिए.
हजरत साहब की मकबूलियत की हिफाजत का काम जो अपने ऊपर ले लेते हैं, वे एक तरह से हिमाकत करते हैं वह जिम्मा लेने का जो शायद अल्लाह का है.
अगर वह सबसे बड़ा कारसाज है, अगर वह हाजिर नाजिर है, अगर सजा और जज़ा उसकी मर्जी है तो उसके बंदों को उसकी तरफ से दूसरे इंसानों को सज़ा देने का कोई अधिकार नहीं.
अगर किसी धार्मिक ग्रंथ या किसी धार्मिक व्याख्या के सहारे इसे उचित ठहराने की कोशिश हो तो हमारे भीतर गांधी जैसा साहस होना चाहिए यह कहने का कि मैं इंसानी जान, इज्जत और बराबरी को किसी भी ग्रंथ के ऊपर तरजीह देता हूं.
अध्यापक सैमुअल पैती के क़त्ल के बाद कई लोगों ने पैगंबर साहब के ऊपर बने कार्टूनों को क्लास में दिखाने के उनके फैसले को इसका उकसावा माना था. हिंसा और हत्या के लिए अनेक तर्क खोजे जा सकते हैं. तर्क खोजे जा सकते हैं, लेकिन पैती को वापस नहीं लाया जा सकता.
कई लोग फ्रांस के प्रमुख मैक्रों के इस्लामविरोधी बयान को उकसावा बता रहे हैं. कई लोग फ्रांस के उपनिवेशवादी अतीत के चलते फ्रांस और मुसलमानों के बीच के रिश्तों की पेचीदगी की चर्चा कर रहे हैं.
फ्रांस के अनुदार धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत और फ्रांस की सरकार के इस्लाम को सुधारने के संकल्प को भी इसकी वजह बताया जा रहा है. लेकिन यह कहा ही जाना चाहिए कि इन सारे तर्कों में दम होने के बावजूद इनका बदला लेने के नाम पर हिंसा जायज़ नहीं हो जाती.
जाने माने लेखक ताबिश खैर ने ठीक ही लिखा है कि विचारों की टकराहट चलती रह सकती है. वह एक नातमाम बहस हो सकती है. ज़रूरी नहीं कि एक विचार दूसरे को खत्म कर ही दे.
जो किया जा सकता है और किया जाता है वह यह कि उन शरीरों और दिमागों को ख़त्म कर दिया जा सकता है जिनमें ये विचार पलते हैं. लेकिन हमारा फर्ज है शरीर के बने रहने के अधिकार के साथ खड़े रहने का.
शरीर में ही विचार पलते हैं, उन्हीं में नफरत भी पलती है. ताबिश पूछते हैं कि अगर एक शरीर दूसरे के खिलाफ नफरत करे और वह नफरत अगर किसी और शरीर में क्रोध पैदा करे, फिर?
मेरे एक दोस्त, और कहना होगा कि वे मुसलमान हैं, ने कहा कि पूरी दुनिया के, खासकर फ्रांस के मुसलमानों को भारत के मुसलमानों से सीखना चाहिए. उनका जो अपमान इतने लंबे वक्त से हो रहा है और सीएए उसी अपमान का हिस्सा है, उसका उत्तर उन्होंने शाहीन बाग के अहिंसक प्रतिरोध से दिया है.
यह ठीक है कि भारत की बहुसंख्यकवादी सरकार की शारीरिक ताकत उनसे ज्यादा है लेकिन क्या इसमें कोई शक है कि पूरी दुनिया की निगाह में मुसलमानों का नैतिक बल इसके मुकाबले कई गुना ज़्यादा है? सरकार उन्हें जेल भेज सकती है, मार सकती है, लेकिन उनसे आंख में आंख डालकर बात करने की ताव नहीं ला सकती.
हिंसा एक दुष्चक्र है. वह किसी भी संवाद को स्थगित कर देती है. हिंसा का प्रचार लोगों के दिमागों में धुंध भर देता है. सोचना फिर मुमकिन नहीं रह जाता.
इन हत्याओं के बाद जो ताकत मजबूत होगी वह हिंसा की है. क़त्ल एक ने किया है जो मुसलमान है लेकिन उस एक के कृत्य ने दुनिया में गैर-मुसलमानों के बीच मुसलमानों के लिए सहानुभूति बढ़ाने में कोई मदद नहीं की है.
मेरे उसी मुसलमान मित्र ने कहा कि यह हत्या नहीं, एक आत्मघाती कार्रवाई है.
सुना है कि फ्रांस के प्रमुख ने इन हत्याओं को चुनौती मानकर स्कूलों में उन कार्टूनों को दिखलाने का संकल्प किया है. उन्हें कहा गया है कि वे कार्टून दिखलाएँ.
क्या इससे इन हत्याओं का प्रतिकार हो सकेगा? या यह भ्रम को और गहरा करेगा? क्या मैक्रों तनाव कम कर रहे हैं या बढ़ा रहे हैं?
यह सच्चाई है कि आज पूरी दुनिया में मुसलमानों के खिलाफ द्वेष भड़काया जा रहा है. बहुतों को इसमें आनंद आता है. लेकिन इसका जवाब क्रोध और हिंसा नहीं है. वह नैतिक हार है.
इस्लाम की तारीफ गांधी हो या सरोजिनी नायडू या हजारी प्रसाद द्विवेदी, सबने उसमें निहित भ्रातृत्व के भाव की विलक्षणता के लिए की है. उसमें विश्व-बंधुत्व की संभावना है.
बंधुत्व का विचार अगर दुत्कारा जा रहा हो तो उसे हिंसा के जरिये श्रेष्ठ नहीं साबित किया जा सकता.
गांधी ने भारत के उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष में एक समय तीन नारे चुने थे. उनमें से एक था ‘अल्लाहू अकबर!’ इस पुकार के साथ हत्या का मेल कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)