जहां टाटा हिंदू बहू और मुस्लिम सास के प्रेम का सामना करने से डर गया, वहीं बशीर चूड़ीवाले अपने शहर की हिंदू बहू-बेटियों के प्रति अपने स्नेह के लिए आज भी आम लोगों की स्मृति में ज़िंदा हैं.
हाल ही में टाटा के तनिष्क ब्रांड के एक विज्ञापन, जिसमें उन्होंने एक मुस्लिम सास को अपनी हिंदू बहू की गोद भराई की रस्म करते दिखाया था, पर बड़ा बवाल हुआ.
‘लव जिहाद’ फैलाने के आरोप के सामने घुटने टेकते हुए टाटा ने इस विज्ञापन को न सिर्फ वापस ले लिया, बल्कि कुछ शहरों के तनिष्क स्टोर मैनेजर ने इसे लेकर माफीनामा लिखकर अपने-अपने स्टोर के बाहर सार्वजानिक तौर पर चस्पा भी किया.
ऐसा करके उन्होंने शायद अपना कुछ आर्थिक नुकसान होने से बचा लिया होगा, लेकिन उनके इस कदम ने इंसानियत का बहुत बड़ा नुकसान किया है.
उन्होंने इस विज्ञापन को देकर और फिर डरकर उसे हटाकार ‘लव जिहाद’ के एजेंडा को अपनी ओर से अहमियत और मान्यता दे दी.
साथ ही यह भी संदेश दिया कि देश का सबसे जाना-माना कॉरपोरेट घराना भी एक समूह की धमकी के सामने अपने मूल्यों से समझौता कर लेता है. जबकि अपने इस विज्ञापन पर टिके रहकर वो पूरे देश को हिंदू-मुस्लिम के बीच इंसानी रिश्तों का एक संदेश से सकते थे.
यह सब देख-सुनकर मुझे बशीर चूड़ीवाला याद आया. अब सवाल यह उठता है कि मुझे वही क्यों याद आया?
टाटा इस देश के कॉरपोरेट का एक बहुत बड़ा नाम है. तनिष्क ब्रांड नाम से वो अपना ज्वैलरी का व्यापार पूरे भारत में चलाते है. वहीं बशीर चूड़ीवाला मेरे गृह कस्बे सिवनी मालवा, जो मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में है, का एक छोटा सा चूड़ी का व्यापार करने वाले व्यक्ति था.
इन दोनों का कहीं से कहीं तक कोई मुकाबला नहीं है; न व्यापार में और न ही पहचान में. जहां तनिष्क के फैसले का असर न सिर्फ पूरे देश बल्कि विदेश में भारत की छवि पर पड़ता है, वहीं बशीर चूड़ीवाला क्या कर रहा है, क्या फैसले ले रहा है, उसका असर ज्यादा से ज्यादा सिवनी मालवा शहर तक सीमित रहेगा.
लेकिन फिर भी दोनों में एक समानता है. दोनों महिलाओ के शृंगार का सामान बेचते है और दोनों के अपने-अपने नैतिक मूल्य हैं या थे.
जहां टाटा हिंदू बहू के मुस्लिम सास के प्रेम का सामना करने से डर गया, वहीं बशीर चूड़ीवाला अपने शहर की हिंदू बहुओं और बेटियों के प्रति अपने स्नेह के लिए आज भी लोगों की स्मृति में जिंदा हैं.
मेरे बचपन (आज से 45 साल पहले) में बशीर चूड़ीवाला हमारे मोहल्ले में चूड़ियां बेचने आता था. सब उन्हें मुसलमान चूड़ीवाले के रूप में नहीं बल्कि बशीर चाचा के नाम से जानते थे.
जब मैं थोड़ा बड़ा हो गया तो कई अवसरों पर हमारे घर में बड़े गर्व से यह बात होती थी कि बशीर चाचा सावन पर हमारी बुआ को अपनी बेटी मानकर मुफ्त में चूड़ियां पहनाते थे. और जब शादी के दो साल बाद ही वो विधवा हो गईं, तो उन्होंने हमारे मोहल्ले में आकर चूड़ियां बेचना ही बंद कर दिया.
बशीर चूड़ीवाले को चूड़ी बेचना बंद किए और इस दुनिया से गए ज़माना हो गया. मगर एक हिंदू बेटी के प्रति उनके इस स्नेह की कहानी आज भी न सिर्फ भी मेरे जेहन में बल्कि मेरी मां के ज़हन में ताज़ा है.
82 साल की मेरी बूढ़ी मां को तनिष्क नहीं मालूम, न ही यह सब विज्ञापन का बवाल, लेकिन इस लेख को लिखने के पहले जब मैंने उन्हें फोन किया और पूछा कि वो कौन-सा चूड़ीवाला था, जो बुआ को मुफ्त चूड़ी पहनाता था, तो उन्होंने बड़े मीठे से कहा कि बशीर चूड़ीवाला!
और साथ ही स्नेह के भाव से से यह भी बताया कि वो सिर्फ बुआ को ही नहीं बल्कि हर साल दिवाली में उन्हें भी चूड़ी पहनाकर जाते थे, जो मुझे नहीं मालूम था.
सिवनी मालवा जैसे कस्बे, जहां पिछले 30 साल से मंदिर की राजनीति के चलते धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण चरम पर है, हमारे घर में सब उस राजनीति से प्रभावित हैं, तब भी बशीर चूड़ीवाले का नाम मेरी मां की स्मृति में आज भी उसी स्नेह के रूप में दर्ज है, कि कैसे एक मुसलमान चूड़ीवाला उन्हें अपनी बहू मानकर दिवाली पर याद से चूड़ी पहनाकर जाता था.
असल में जिस पीढ़ी ने बंटवारे और हिंदू-मुस्लिम दंगे देखे, उसने हिंदू-मुस्लिम का इंसानी प्रेम भी देखा है इसलिए यह पीढ़ी तमाम ध्रुवीकरण और राजनीतिक झुकाव के बाद आज भी अपने ज़हन में कहीं न कहीं उन यादों को भी जगह दिए हुए है.
लेकिन नई पीढ़ी, जो अपनी अधिकतर सूचनाएं ऑनलाइन लेती है, जो रात दिन टीवी डिबेट और देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेताओं के भाषण में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को दो अलग-अलग ध्रुव पर देखती है, जिसके पास मेरी मां या मेरी तरह ऐसे कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, वो अगर टाटा जैसे ब्रांड को घुटने टेकते देखेगी, तो वो हिंदू-मुस्लिम स्नेह के इंसानियत के रिश्ते को कैसे समझेगी.
अगर आज के समय में कोई मुस्लिम चूड़ीवाला अपने कस्बे की किसी हिंदू बहू को अपनी बहू मानकर दिवाली पर और हिंदू बेटी को अपनी बेटी को सावन पर मुफ्त चूड़ी पहनाए और उसके विधवा होने पर उस गली-मोहल्ले में चूड़ी बेचना ही बंद कर दे, तो उसे क्या कहेंगे?
क्या ऐसा कहेंगें- उस मुस्लिम चूड़ीवाले का हिंदू की बेटी से क्या लेना-देना? या यह कहेंगें- वो एक हिंदू बेटी को अपनी बेटी मानकर सावन पर मुफ्त चूड़ी कैसे दे सकता है? या उसके विधवा होने पर उस गली-मोहल्ले में चूड़ी बेचना कैसे बंद कर सकता है? और एक हिंदू बहू को अपनी बहू मानकर दिवाली पर मुफ्त चूड़ी कैसे दे सकता है? क्या यह भी एक तरह का ‘लव जिहाद’ है?
असल में इंसानियत के रिश्ते सबसे ऊपर है. जहां एक मुसलमान के लिए किसी हिंदू महिला से बहू या बेटी का रिश्ता उसकी औपचारिकता से नहीं आता है, बल्कि इंसानी भावना से आता है.
काश हम बशीर चूड़ीवाले और मेरी मां के अनुभव और उनकी इंसानी रिश्तों की समझ को वापस ला सकें. बस आज जरूरत हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को राजनीतिक लोगों के चश्मे से देखना बंद करने की है. और अपने आसपास इंसानी रिश्तों की गरमाहट को अपने तई महसूस करने की भी.
पुरानी पीढ़ी को वो समय याद करने और उसे नई पीढ़ी को बताने की जरूरत है, जहां कोई नेता आकर उनके और उनके पड़ोसी के बीच के रिश्ते को अपनी सुविधा के अनुसार किसी जुमले से नहीं तौलता था.
मेरा पक्का विश्वास है कि हर शहर में इस तरह के लोगो के पास हिंदू-मुस्लिम के बीच इंसानी रिश्तों के अनेक किस्से होंगे. बस आज जरूरत इन रिश्तों पर जमा धूल हटाने की है.
(लेखक समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)