यह वही मुल्क़ है जहां ताजिये पीपल की डाल से न टकराए, इसका ख़ास ध्यान रखा जाता है, हिंदू मांएं भी ताजिये का इंतज़ार करती हैं कि उसके नीचे से बच्चे को गुजारकर आशीर्वाद ले सकें. हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह में चादर चढ़ाते हिंदुओं को क्या अलग कर सकते हैं? लेकिन अब साझा पवित्रता का विचार अपराध है.
फैजल खान और उनके साथी चांद गिरफ्तार कर लिए गए हैं. उन्हें उत्तर प्रदेश और दिल्ली पुलिस की संयुक्त कार्रवाई में दिल्ली के अपने दफ्तर में गिरफ्तार किया गया. उन पर सांप्रदायिक विद्वेष और दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने का इल्जाम है.
आखिर फैजल और चांद ने किया क्या था जिससे सांप्रदायिक घृणा फैलने का भय हुआ? वे ब्रज की अपनी चौरासी कोस यात्रा के अंतिम चरण में मथुरा के नंद बाबा मंदिर में थे. वहां उन्होंने नमाज़ अदा दी.
इस कृत्य को अपराध बताया जा रहा है. मंदिर में नमाज़? इससे बढ़कर जुर्म क्या हो सकता है आज के भारत में?
फैजल खान ने यह कोई छिपाकर किया हो ऐसा नहीं. उन्होंने कुछ दिन पहले ब्रज चौरासी कोस यात्रा की थी. इसकी समाप्ति के समय 29 अक्टूबर को वे इस मंदिर पर पहुंचे.
ब्रज की चौरासी कोस यात्रा एक प्राचीन रस्म है. इस यात्रा के बाद आप सभी तीर्थों का लाभ प्राप्त कर सकते हैं, ऐसी मान्यता है.
जाहिर तौर पर यह हिंदू मान्यता है. कोई मुसलमान इससे पुण्य लाभ करना चाहे, यह ज़रा ताज्जुब की बात होगी. लेकिन फैजल खान और उनके दूसरे मुसलमान मित्र ने यही करने की ठानी.
मकसद उनका लेकिन ज़रा दुनियावी भी था. ब्रज की परिक्रमा या यात्रा करके वे धार्मिक सद्भाव के विचार का प्रचार करना चाहते थे. कहा जा सकता है कि यह आध्यात्मिक नहीं, सांसारिक उद्देश्य है. सद्भाव धर्मों के बीच नहीं, धर्म मानने वालों के बीच ज़रूरी है.
फैजल खान के मुताबिक, यह सद्भाव भारत के बचे रहने के लिए अनिवार्य है. इसलिए वे अपनी समझ से तरह तरह के अभियान चलाते रहते हैं.
इनमें हिंदू और मुसलमान, दोनों ही शामिल होते हैं. वे एक दूसरे के धार्मिक आचार-व्यवहार से परिचित होते हैं, उनमें हिस्सा लेते हैं. इस तरह उनमें अजनबीयत, जो दूरी की वजह से पैदा हुई है और जो और दूरी की वजह बन जाती है, दूर होती है.
फिर हिंदू को मुसलमान पराया नहीं लगता और न मुसलमान को हिंदू अपना शत्रु मालूम पड़ता है.
दूरी पाटी जा सकती है. धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा में जो शुष्कता जान पड़ती है, उससे आगे जाकर धर्मों के अंदर विद्यमान दैवीय या आध्यात्मिक तरलता से जीवन को सींचने का प्रयास क्या किया जा सकता है?
सांसारिक जीवन जीते समय पवित्रता की आकांक्षा बनी रहती है. धर्म पवित्रता के आश्रयस्थल माने जाते हैं. अपने कलुष से, जो जीवन के कारण अवश्यंभावी है, मुक्ति कैसे हो?
धर्म हमें अपने आपको बचा लेने का एक आश्वासन देता है. कोई है जो सब कुछ देखने और जानने के बावजूद क्षमा कर सकता है या उससे मुक्त कर सकता है. यह इच्छा हमेशा धोखेबाजी हो, आवश्यक नहीं. वह एक ईमानदार छटपटाहट भी हो सकती है.
साधारण मनुष्य अपने सामने ईमानदार रहना चाहता है. वह अपनी क्षुद्रता से भी परिचित है. वह उससे मुक्त होना चाहता है. धर्म की तरफ जाने का कारण जीवन से पलायन नहीं, खुद को दूषण से मुक्त करने की इच्छा है.
फैजल खान ने मानवीय जीवन में धर्म की इस केंद्रीयता को देखकर अपनी गतिविधियां इसी प्रत्यय के इर्दगिर्द संयोजित करने की सोची. संगठन बनाया: ‘खुदाई खिदमतगार.’
खान अब्दुल गफ्फार खान के संगठन का नाम ही नहीं अपनाया गया था, उनके साझेपन की निगाह को आधार बनाया गया था. बादशाह खान को सरहदी गांधी कहते थे.
लड़ाका मानी जानेवाली पठान कौम, अपनी लाल कुर्तीवालों को उन्होंने खुदा का खिदमतगार बताया और वे अहिंसा के सबसे ताकतवर सिपाहियों के तौर पर जाने गए.
कुछ यादों को जगाए रखना अच्छाई के खयाल को असलियत में तब्दील करने के लिहाज से अच्छा होता है. अगर हम सरहदी गांधी के कद को याद रखें, तो शायद वह चुनौती हमेशा सामने रहेगी कि इंसान को इंसान होने के लिए यहां तक पहुंचना है. इससे अपने भीतर एहसासे कमतरी नहीं आती, बल्कि अपनी हद पार करने का हौसला बंधता है.
ऐसे वक्त में जब कुछ भी साझा नहीं है, ‘खुदाई खिदमतगार’ के सहारे फैजल खान और उनके नौजवान दोस्त (हां! यह भी क्या कम ताज्जुब है कि उनके विचार नौजवानों को अपनी तरफ खींचते हैं!) साझा पावन या साझा पवित्र की कल्पना कर रहे हैं.
साझा पवित्रता का विचार अभी अपराध माना जाता है. लेकिन यह वही मुल्क है जहां ताजिए से पीपल की डाल न टकराए, इस बात पर खून की नदी बह सकती है तो मांएं, हिंदू मांए भी, उसी ताजिए का इंतजार करती रही हैं कि उसके नीचे से बच्चे को गुजारकर उसके लिए आशीर्वाद ले सकें.
मज़ार के आगे अक्सर ऑटो धीमा करके मन ही मन सिर झुकाते ड्राइवर की भी याद होगी आपको. क्या हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में चादर चढ़ाते हिंदुओं को आप अलग कर सकते हैं?
लेकिन इसके बरक्स अब ख्याल यह है कि पवित्रता बंटी हुई है. तभी तो तुर्की में इर्दोयान ने हाया सोफिया को दुबारा मस्जिद में तब्दील करके अपने मुल्क के मुसलमानों को कहा कि वह उन्हें अब बिना मिलावट की पाकीजगी भेंट कर रहे हैं.
एक गिरिजाघर के ऊपर मस्जिद: यह इस्लाम की फतह है या इस्लाम के नाम पर हुकूमत करनेवाले का अहंकार?
क्या एक मुसलमान एक मंदिर में पवित्रता का अनुभव कर सकता है? क्या यही एक भाव हिंदू एक मस्जिद में हासिल कर सकता है? बिना उसकी पहचान मिटाए?
नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद का होना अनिवार्य नहीं. जब नमाज़ का वक्त हुआ तो अपनी चौरासी कोस यात्रा के क्रम में नंदबाबा के मंदिर पहुंचे फैजल खान ने कहा कि वे बाहर जाकर नमाज़ अदा कर लेंगे.
उनके मुताबिक़, वहां के पुजारी ने कहा कि वे चाहें तो मंदिर के प्रांगण में ही नमाज पढ़ लें. तस्वीर में साफ़ दिख रहा है कि कुछ लोग बिना उत्तेजित हुए उन्हें नमाज पढ़ते हुए देख भी रहे हैं. कोई हलचल नहीं है. इसका मतलब यह है कि इस पर किसी को ऐतराज न था.
फैजल खान और उनके साथी को नमाज पढ़ने में कुछ मिनट लगे होंगे. किसी को उज्र होता, किसी की भावना को चोट लगती तो इतना वक्त काफी था हंगामे के लिए. लेकिन न सिर्फ उन दोनों ने नमाज पूरी की, बल्कि वे मंदिर से इत्मीनान से बाहर आए और दिल्ली वापस पहुंच भी गए.
इसके पहले भी फैजल ने अनेक यात्राएं की हैं. उनके दौरान वे मंदिरों में सोए हैं और नमाज भी पढ़ने का न्योता उन मंदिरों के पुजारियों ने उन्हें दिया है.
इस वजह से उन्हें 2020 में भी इसका यकीन था कि भारत में अच्छाई और सद्भाव सामाजिक स्वभाव का अंग है. जिनका अभी राज्य पर कब्जा है, यह उनकी परियोजना से बेमेल है.
उनके खिलाफ मंदिर में नमाज पढ़ने के अपराध को लेकर रिपोर्ट जाहिर है, बाद में किसी और के उकसावे पर दर्ज कराई गई. किसी ने ज़रूर पुजारी को शर्मिंदा किया होगा कि उन्होंने इतनी उदारता क्यों बरती! यह बुजदिली नहीं तो और क्या है!
रिपोर्ट दर्ज कराई गई और उत्तर प्रदेश की पुलिस फौरन हरकत में आई. फैजल गिरफ्तार कर लिए गए.
इस घटना की पृष्ठभूमि है. अभी एक पवित्र स्थल एक धर्म के अनुयायियों के हाथ से कानूनी तौर पर लेकर एक दूसरे धर्म के मानने वालों के हवाले कर दिया गया है. इसे उस धर्म विशेष की विजय बतलाया जा रहा है.
इसी तरह कुछ और पवित्र स्थलों पर अपनी पवित्रता का ध्वज गाड़ देने की मुहिम फिर से शुरू करने की बात कही जा रही है. ऐसे माहौल में फैजल खान का साझा पवित्रता का अभियान कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है?
मंदिर में नमाज पढ़ने के कारण हिंदू और मुसलमान, दोनों में ही काफी लोग फैजल से नाराज़ हैं. हिंदू कह रहे हैं कि पहले मस्जिद में घंटी बजाकर दिखलाओ, फिर मंदिर में नमाज पढ़ने की सोचो!
उन्हें डर कब्जे का है. जिस तरह अयोध्या की एक मस्जिद में चोरी-चोरी मूर्ति रखकर उस पर कब्जा किया गया, कहीं यह वैसा ही कुछ तो नहीं!
मुसलमानों का कहना था कि आज एक माहौल में यह हिमाकत करने की ज़रूरत ही क्या थी! उन्हें आशंका है कि अब इस एक घटना को सामने रखकर प्रचार किया जाएगा कि मुसलमान मंदिरों में नमाज पढ़कर उन पर कब्जे का षड्यंत्र कर रहे हैं! यह मुसलमान विरोधी भावना को और तीव्र करेगा.
पवित्रता अपने चित्त का विस्तार है. या वह अपने सांसारिक स्व का विसर्जन है. पवित्रता के स्रोत कहीं भी हो सकते हैं. पवित्रता में ऊंच-नीच नहीं हो सकती. मेरी पवित्रता तुम से श्रेष्ठ, यह शायद ही कोई कहे जो वास्तविक अर्थ में आध्यात्मिक है!
भारत में मस्जिद के आगे जानबूझकर बाजा बजाने में आनंद लेने का रिवाज पुराना है. जाहिर है इससे कोई आध्यात्मिक सुख नहीं मिलता, बल्कि मिलती है दूसरे को चिढ़ाने की एक शैतानी खुशी.
अजान से कुछ लोगों को सिर दर्द होने लगता है. नास्तिक रिचर्ड डॉकिंस ने भी कहा था कि चर्च की घंटी उन्हें मधुर लगती है, लेकिन अजान कर्कश जान पड़ती है. यह क्या इस्लाम को लेकर मन में गहरे बैठा पूर्वग्रह तो नहीं था?
फैजल खान इस विभाजित भूगोल और एक दूसरे से कटे हुए भावनात्मक समय में सद्भाव का सुई धागा लेकर निकल पड़े हैं कि इस ताने-बाने को जोड़ा जा सके. वे इसकी कीमत चुका रहे हैं. लेकिन क्या हमें उन्हें अकेला छोड़ देना चाहिए?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)