इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं में नीतीश सरकार द्वारा उनके कल्याण के लिए की गई पहल की बातें थीं, लेकिन महागठबंधन से अलग होने और बीजेपी के साथ सरकार बनाने को अल्पसंख्यक समुदाय में उनके जनादेश के तौहीन की तरह देखा जा रहा था.
इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश सरकार के खिलाफ नाराजगी का दो स्वरूप बहुत साफ था. इसको मतदाताओं के रवैये में इस तरह देखा गया कि विशेष तौर पर उच्च जाति के हिंदू जहां नीतीश को हटाने की बात करते हुए भाजपा और मोदी के खिलाफ कोई बात नहीं कर रहे थे, वहीं आम मुस्लिम मतदाता नीतीश से अपनी नाराजगी में मोदी की अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों की चर्चा भी कर रहे थे.
मुस्लिम मतदाताओं में नीतीश सरकार द्वारा उनके कल्याण के लिए की गई पहल जैसे मुस्लिम छात्रों के लिए छात्रवृत्ति, मदरसा शिक्षकों की तनख्वाह और कब्रिस्तानों की बाउंड्री आदि की बातें थीं, लेकिन महागठबंधन से अलग होने और बीजेपी के साथ सरकार बनाने को अल्पसंख्यक समुदाय में उनके जनादेश के ‘तौहीन’ की तरह देखा जा रहा था.
उनके बीच कथित भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और विकास के बुनियादी मुद्दे बहुत सतह पर नहीं थे. मुसलमान सीएए-एनआरसी को लेकर नीतीश से बहुत ज्यादा नाराज़ थे. हालांकि उनके बीच इस मुद्दे को ये कहकर दबाने की कोशिश भी की गई थी कि नीतीश ही ‘शेर की सवारी’ कर सकते हैं.
विशेष तौर पर मुस्लिम औरतें नीतीश को ‘धोखेबाज’ बता रही थीं. बातचीत में मुस्लिम मर्दों में कहीं-कहीं भ्रम की स्थिति भी देखने को मिली, इसके विपरीत महिलाओं में संशय नहीं था. वो भाजपा को बाहर करना चाहती थीं इसलिए नीतीश को भी मजबूत करने के हक में नहीं थीं.
चुनाव प्रचार के अंतिम समय में नीतीश ने बीजेपी, खास तौर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर हमलावर होकर और इस चुनाव को अपना अंतिम चुनाव बताकर मुसलमानों के बीच भरोसा कायम करने की कोशिश भी की लेकिन इसका असर तीसरे और अंतिम चरण के चुनाव में भी नजर नहीं आया.
बता दें कि बिहार में तीसरे और अंतिम चरण की 78 सीटों पर जहां मतदान हुए उनमें कटिहार, पूर्णिया, अररिया और किशनगंज जैसे जिलों के अलावा दरभंगा और मधुबनी की कई सीटें मुस्लिम बहुल थीं. इन सीटों पर मुस्लिम आबादी 40 से 70 फीसदी है.
सीमांचल से अलग मिथिलांचल में भी एआईएमआईएम और उसके गठबंधन को मुसलमान नीतीश या भाजपा के विकल्प के तौर पर कबूल नहीं कर पाए.
मधुबनी में एआईएमआईएम समर्थित मुस्लिम उम्मीदवार की मौजूदगी की बात करते हुए स्थानीय पत्रकार करीम उल्लाह ने बताया, ‘शुरू में मुसलमान जरा इधर उधर हुए थे, लेकिन उसी समय एनआरसी पर भाजपा के ताजा बयान ने उनको एकजुट कर दिया.’
एआईएमआईएम और उसके गठबंधन के सवाल पर उनका कहना था, ‘पहले कुछ असर लग रहा था मगर बाद में मुसलमानों ने महागठबंधन को ही विकल्प के तौर पर चुना.’
बता दें कि बिहार विधानसभा चुनाव में जातीय मतों के हिसाब से करीब 17 फीसदी मुस्लिम मतदाता 60 से अधिक सीटों पर प्रभावी हैं.
ऐसा माना जा रहा था कि जदयू और भाजपा के साथ होने से मुस्लिम मत एक तरफा महागठबंधन के हक में जा सकता है. लेकिन कई जगहों पर ऐसा नहीं हुआ.
दरभंगा ग्रामीण की मिसाल देते हुए युवा मतदाता महमूदुज्ज़मां ने कहा, ‘यहां जदयू का मुस्लिम उम्मीदवार था, जो सीएए-एनआरसी के हक में बयान तक दे चुका था इसके बावजूद मुस्लिम मतदाता बंट गए.’
इसके लिए वो बुनियादी मुद्दे और एनआरसी पर स्थानीय सियासत के साथ मुस्लिम चेहरे के हावी होने की बात करते हैं, मुस्लिम बंटे जरूर लेकिन मुस्लिम औरतों ने महागठबंधन के पक्ष में वोट किया.
नीतीश के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं के इस रवैये को अति पिछड़ा वर्ग से आने वाली रौशन ख़ातून की बातों से बल मिलता है. उनके लिए सीएए-एनआरसी ही सबसे बड़ा मुद्दा था, हालांकि उन्होंने रोजगार की भी बात की.
वे कहती हैं, ‘कहीं मजदूरी का काम भी नहीं है और देख लीजिए हमरे पास घर है न घरारी है. रोजी रोजगार कौन देगा. हम तो इलाजो नहीं करा पा रहे. और ई सबको छोड़कर कहता है कागज निकालो. हम कहां से लाकर देंगे.’
वे आगे बताती हैं, ‘रोजी-रोजगार छोड़कर गए थे धरने पर दिन रात बैठे रहे. मुसलमान सबको काहे छांट रहा है. जुल्म हो रहा है. ऐसा तो नहीं करना चाहिए. का बिगाड़े हैं हम लोग. वोट के लिए सब आया मगर जो धरना पर हमरे लिए आया था वोट उसको दिए.’
नीतीश से मुस्लिम औरतों का मोह भंग होने की वजह बहुत साफ है कि महानगरों से अलग गांव-मोहल्लों में भी सीएए-एनआरसी को लेकर प्रोटेस्ट में औरतें ही अगली कतार में थीं.
बड़े पैमाने पर मुस्लिम वोट के विभाजन की बात करें तो पूर्व पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता डॉ. अयूब राईन चुनाव के दौरान मुस्लिम मतों के विभाजन की बात करते रहे.
उनका कहना था, ‘शुरू से ही मुसलमानों का झुकाव महागठबंधन की तरफ था, लेकिन पसमांदा के बीच ये बहस रही कि नीतीश सरकार ने इस समाज को कई मौकों पर नुमाइंदगी दी. राज्यसभा, विधान परिषद या किसी बोर्ड में मेंबर या चेयरमैनशिप तक का मामला हो. यहां तक कि अंसारी समाज की एक महिला को अपना उम्मीदवार भी बनाया.’
उनकी राय में पिछली सरकार (राजद) में पसमांदा मुस्लिम को तवज्जो नहीं मिली. इसलिए पसमांदा महागठबंधन से नाराज रहा, लेकिन उनकी नाराजगी वोट में तब्दील नहीं हो सकी.
उनका कहना है, ‘देखिए इस समाज का पढ़ा लिखा तबका भले बताता रहा कि हमें नीतीश ने सम्मान दिया लेकिन उन्हीं के बीच से सत्ता बदलने की बात भी कही गई तो कुल मिलाकर पसमांदा के पास हर जगह इस तरफ या उस तरफ का मामला नहीं बन पाया. इसलिए इनका वोट भी कम ओ बेश महागठबंधन को ही गया.’
उनके अनुसार, चुनाव में किसी हद तक बाबरी मस्जिद और नागरिकता कानून के मुद्दों की वजह से ध्रुवीकरण के सवालों के बीच मुस्लिम मतदाताओं ने इसलिए भी महागठबंधन को वोट किया कि उन्हें जदयू को सबक सिखाना था.
हालांकि स्थानीय समीकरण भी मुस्लिम मतदाताओं की नज़र में थे, जाले विधानसभा के युवा मतदाता रईस अहमद ने बताया, मोटे तौर पर मुसलमानों ने पीस और हार्मोनी को वोट किया.
वो अपने विधानसभा की बात करते हुए कहते हैं, ‘लगभग 25 साल बाद किसी मुस्लिम को नुमाइंदगी मिली थी. इसलिए भी 90 फीसदी वोट एक तरफा गया.’
रईस दावा करते हैं कि मुसलमानों में पसमांदा और अशराफिया के नाम पर कोई बड़ा बंटवारा नहीं था.
वे कहते हैं, ‘सीएए-एनआरसी को लेकर एक चिंता देखने को मिली और नौजवानों में ये बात थी कि तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाना है.’
कहीं कहीं सीएए-एनआरसी का सवाल इस तरह उठा कि जदयू छोड़कर दरभंगा शहरी विधानसभा से चुनाव लड़ने वाले महागठबंधन के प्रत्याशी पर सीएए-एनआरसी के अलावा तीन तलाक और धारा 370 के समर्थन के आरोप लगते रहे.
इस बारे में शहरी मतदाता अर्शुद्दीन की मानें तो यहां भी मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट किया.
वजह बताते हुए उनका कहना है, ‘मुसलमानों ने पार्टी पर यकीन किया. और कोई रास्ता भी नहीं था.’
मुस्लिम मतों के महागठबंधन के पक्ष में जाने के बाद भी मदरसा शिक्षकों ने जदयू को वोट किया. इस सिलसिले में मदरसा शिक्षक मोहम्मद नसीरूल्लाह कहते हैं, ‘हम लोग 15 साल से देख रहे हैं मदरसा के लिए नीतीश सरकार ने बहुत काम किया.’
दरभंगा शहर से सटे पूरा गांव के मोहम्मद सालिक सीधे एनआरसी से बात शुरू करते हुए कहते हैं, ‘हमें एनआरसी की चिंता है, क्या होगा क्या नहीं होगा. बीजेपी रहेगी तो परेशानी होगी ही. कोरोना भी जी का जंजाल बन गया. सरकार ने तो कुछ किया नहीं उलटे डरा दिया. यही सब सोचकर वोट किया है.’
क्या भाजपा के साथ नीतीश का सरकार बनाना उनकी सबसे बड़ी गलती थी, इस सवाल पर दरभंगा में विज्ञान के शिक्षक निशात करीम शौकत कहते हैं, ‘गलती कह सकते हैं, लेकिन जदयू के मुस्लिम चेहरा के सामने अवाम जज्बाती भी हुई ये और बात है कि उनकी तादाद कम थी.’
वे आगे कहते हैं, ‘मुसलमान नागरिकता के सवाल और कोरोना काल के मुद्दे पर एक थे.’
बेरोजगारी की मार झेल रहे पूरा गांव के नौजवान कलीम रोजगार और दूसरे बुनियादी मुद्दों को फिलहाल गैरजरूरी बताते हुए कहते हैं, ‘बहुत खौफ में जी रहे हैं.’
हालांकि वो तीन बार एमएलए रह चुके महागठबंधन के प्रत्याशी से खुश नहीं थे. उनका का कहना है, हम उम्मीदवार को वोट नहीं दिए पार्टी के साथ गए.
उनकी हां में हां मिलाते हुए एक महिला ने कहा, बोलो हमको सरकार बदलना था. हालांकि वो खुद सामने आकर बात करने से मना करते हुए कहती हैं, ‘और क्या बोलें, हमरी परेशानी सबको मालूम है.’
दरभंगा में जदयू के चुनावी प्रचार में शामिल रहे राजनितिक कार्यकर्ता इरशाद आलम कहते हैं, ‘मुसलमान जान रहा था कि नीतीशजी अल्पसंख्यकों के लिए योजना लेकर आए. मदरसा को ही देखिए मुसलमानों के हित में उनका काम नजर आएगा.’
वो एनआरसी शब्द का इस्तेमाल किए बिना कहते हैं, ‘मुसलमानों को समझना चाहिए था कि किसने चौक-चौराहे पर बात बनाई और कौन चुप रहकर भी मुसलमानों के लिए काम करता रहा.’
कहीं-कहीं ये भी समझ में आया कि इस चुनाव में मुसलमान नीतीश से नाराज थे, लेकिन वो तेजस्वी को लेकर पुरजोश नहीं थे. इस बारे में दरभंगा के बेनीपुर विधानसभा के श्री रामपुर गांव के अबुल हयात शिबली नीतीश के कार्यकाल को सराहनीय बताते हुए कहते हैं, ‘आखिर का पांच साल सियासी उठापटक में चला गया. इसमें सबसे ज्यादा मुसलमानों का नुकसान हुआ.
उनकी मानें तो नीतीश महागठबंधन के मुख्यमंत्री के तौर पर भले थे.’
बहरहाल, मुसलमानों के बीच से शिक्षा और रोजगार के सवाल गायब रहे जबकि चुनाव में रोजगार एक बड़ा मुद्दा बनता हुआ नजर आया. इस सवाल पर दरभंगा ग्रामीण के युवा मतदाता आसिम इफ़्तेख़ार की मानें तो, ‘मुसलमानों के जो बुनियादी मुद्दे हैं, मुसलमान उस पर बात करते हुए झिझकते हैं. हां, वो ऐसी सरकार चाह रहे थे जो उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करे. एक ऐसी सरकार जो उनके साथ दोहरा रवैया न अपनाए.’
हालांकि वो रोजगार, शिक्षा और पलायन के चुनावी मुद्दा बनने से खुश थे. वो कहते हैं, ‘मुसलमानों ने और क्या चुना है आप देख सकते हैं.’
मुसलमानों के बीच सामाजिक जागरूकता पर काम करने वाली तंज़ीम ऑल इंडिया मुस्लिम बेदारी कारवां के अध्यक्ष नज़रे आलम कहते हैं. ‘कई जगहों पर मुसलमानों की एक बड़ी दुविधा रही कि अगर वो मुस्लिम उम्मीदवार को वोट नहीं करते तो कहा जाता मुसलमान ही मुसलमान के खिलाफ हैं. कई जगहों पर मुस्लिम क्षेत्र बचा रहे इस मजबूरी में वोट किया.’
हालांकि मुस्लिम नुमाइंदगी के बावजूद लिंचिंग जैसे मुद्दे पर चुप्पी से वो खफा नजर आए और सीएए-एनआरसी को बड़ा मुद्दा बताते हुए उनका कहना था, ‘नीतीश जी के पास मुसलमानों को लॉलीपॉप देने के लिए मदरसा बोर्ड था, वक़्फ़ बोर्ड था अल्पसंख्यक आयोग था. इन जगहों पर देख लीजिए गबन के आरोप में जेल जाने वालों को ओहदा दिया गया. अब ऐसे लोग लिंचिंग या किसी और मुद्दे पर क्या बोलेंगे.’
वे आगे कहते हैं, ‘मदरसा बोर्ड में करोड़ों का खुर्द-बुर्द हुआ ऐसे लोगों को नीतीशजी का संरक्षण प्राप्त रहा. वक़्फ़ बोर्ड की जमीन को बेचा गया. मुसलमानों को सबसे ज्यादा हाशिये पर यही सरकार लाई.’
मुसलमानों के मुख्य रूप से नीतीश के खिलाफ जाने की वजह उनकी नागरिकता का सवाल ही रहा. ऐसे में राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन अपने आप उनके लिए विकल्प बन गया. इसलिए यहां ये कहना बहुत सही नहीं है कि एमवाई समीकरण में मुसलमानों की पूरे तौर पर वापसी हुई चूंकि फिर ये भी कहना पड़ेगा कि कांग्रेस अपने पुराने वोट बैंक को हासिल करने में कामयाब रही.