28 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव भाजपा सरकार को बचाने की दृष्टि से ही अहम नहीं था बल्कि अपने कई समर्थकों सहित कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजनीतिक भविष्य भी दांव पर था. उपचुनाव में उनके कुल 19 में से 13 समर्थक जीत हासिल करने में सफल रहे हैं.
मध्य प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा ने बाजी मार ली है. उसने कुल 19 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया है और शिवराज सिंह सरकार पूरी तरह से सुरक्षित हो गई है.
बता दें कि मध्य प्रदेश की विधानसभा 230 सदस्यीय है. मार्च माह में ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थन में कांग्रेस के 6 मंत्रियों समेत 22 विधायक कांग्रेस छोड़कर और अपनी विधायकी से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए थे, जिसके चलते राज्य में तत्कालीन कांग्रेस सरकार अल्पमत में आकर गिर गई थी और भाजपा ने सरकार बना ली थी.
इसके बाद जुलाई माह में तीन मौकों पर तीन और विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे. इस तरह विधानसभा की 25 सीटें दलबदल के कारण खाली हुई थीं. जबकि तीन सीटें (जौरा, आगर-मालवा एवं ब्यावरा) विधायकों के निधन के बाद खाली हुई थीं.
इनमें जौरा व ब्यावरा में कांग्रेसी विधायकों का निधन हुआ था जबकि आगर-मालवा में भाजपा विधायक का निधन हुआ था. इस तरह एक समय सदन में 115 विधायकों वाली कांग्रेस की सदस्य संख्या गिरकर 88 रह गई थी. जबकि भाजपा का आंकड़ा 107 था.
वहीं, पिछले दिनों उपचुनावों से ठीक पहले दमोह विधायक राहुल सिंह लोधी ने भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था. इस सीट पर भी भविष्य में उपचुनाव होने हैं.
इस तरह सदन में 87 कांग्रेसी विधायक बचे थे. 28 सीटों के नतीजे आने के बाद सदन में सदस्य संख्या 229 हो गई है, जबकि एक सीट खाली है.
सरकार बनाने के लिए बहुमत के लिए जरूरी 115 का आंकड़ा हासिल करने के लिए कांग्रेस को उपचुनावों की सभी 28 सीटों पर जीत जरूरी थी, जबकि भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत के सहारे सरकार बचाने के लिए महज आठ सीटें जीतनी थीं.
लेकिन 19 सीटें जीतकर भाजपा ने अपनी सदस्य संख्या 126 पर पहुंचा ली है जो पूर्ण क्षमता (230) वाले सदन के लिए जरूरी बहुमत के जादुई आंकड़े 116 से 10 अधिक है.
वहीं, सदन में अब कांग्रेस के 96 विधायक हो गए हैं. सदन में दो बसपा, एक सपा और चार निर्दलीय विधायक भी हैं जो फिलहाल सत्तासीन भाजपा को अपना समर्थन दे रहे हैं जिससे सदन में भाजपा की वर्तमान ताकत 133 हो जाती है.
इसलिए कह सकते हैं कि भाजपा सरकार अगले विधानसभा चुनावों तक सदन में स्थायित्व की स्थिति बना चुकी है. गौरतलब है कि सदन में एक सीट अब भी खाली है.
यह चुनाव केवल भाजपा सरकार को बचाने की दृष्टि से ही अहम नहीं था बल्कि सिंधिया की साख भी दांव पर लगी थी. उनके 19 समर्थक जिनमें 11 मंत्री भी शामिल थे, चुनावी रण में उतरे थे. (दो मंत्रियों ने संवैधानिक बाध्यताओं के चलते चुनावों से हफ्ते भर पहले अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.)
इनकी हार और जीत मध्य प्रदेश और भाजपा के भीतर सिंधिया का कद तय करने वाली थी. काफी हद तक सिंधिया अपनी प्रासंगिकता साबित करने में सफल भी रहे. उनके 11 में से 9 मंत्री जीत गए. वहीं, कुल 19 में से 13 समर्थक जीत दर्ज करने में सफल रहे.
हालांकि दो मंत्रियों समेत सिंधिया के छह समर्थक हार गए लेकिन उनके लिए राहत की बात यह है कि भाजपा कोटे से चुनावी रण में उतरे बाकी 9 उम्मीदवारों में भी 3 हार गए हैं, जिनमें एक मंत्री भी शामिल है.
यानी कि उपचुनावों में सिंधिया गुट और भाजपा गुट, दोनों का ही जीत प्रतिशत करीब 66 फीसदी रहा. इस तरह सिंधिया समर्थक सदस्य सदन में जरूर कम हुए हैं लेकिन फिर भी भाजपा, पार्टी के अंदर सिंधिया का कद इसलिए कम नहीं कर पाएगी क्योंकि उसके कोटे के भी बराबर सदस्य हारे हैं.
लेकिन सिंधिया के लिए यह झटका जरूर हो सकता है कि उनके प्रभाव क्षेत्र वाले ग्वालियर-चंबल अंचल की 16 सीटों में से भाजपा 7 सीटें हार गई है, जिनमें छह सिंधिया समर्थकों की सीटें भी शामिल हैं.
कुल मिलाकर कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आकर मंत्री पद पाने वाले 14 में से 11 मंत्री जीत गए और तीन हार गए हैं.
हारने वाले मंत्रियों में सिंधिया की खासमखास वे इमरती देवी भी शामिल हैं जो अपनी विवादित टिप्पणियों और कमलनाथ द्वारा उन पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी के चलते उपचुनावों का केंद्र बिंदु बन गई थीं.
इनके अलावा ऐदल सिंह कंसाना और गिर्राज दंडौतिया की भी हार हुई है. इस तरह देखें तो नतीजे सिंधिया के लिए तो राहत देने वाले रहे ही हैं.
इमरती देवी भले ही हारी हों, लेकिन उनके दायां और बायां हाथ माने जाने वाले मंत्री तुलसी सिलावट और गोविंद सिंह राजपूत ने अपनी-अपनी सीटों (क्रमश: सांवेर और सुरखी) पर पिछले विधानसभा चुनावों की अपेक्षा अधिक बड़े अंतर से जीत दर्ज की है.
इसी तरह, सिंधिया के खासमखास मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर भी ग्वालियर सीट पर बड़े अंतर से जीते हैं.
राज्यवर्द्धन सिंह दत्तीगांव (बदनावर), प्रभुराम चौधरी (सांची), ओपीएस भदौरिया (मेहगांव) भी सिंधिया के सबसे करीबी समर्थकों में शुमार होते हैं और मंत्री भी हैं. सभी ने पिछले विधानसभा चुनावों की अपेक्षा अधिक बड़े अंत से जीत दर्ज की है.
भाजपा के नजरिये से देखें तो, तीन मंत्रियों की हार से भाजपा को नुकसान से अधिक राहत का अनुभव होगा क्योंकि तीन मंत्री पद खाली हुए हैं, जिन पर वह अपने उन रूठे मूल भाजपाई नेताओं को बैठा सकती है, जो मंत्री बनने की योग्यता रखते थे, लेकिन कांग्रेस छोड़कर आए नेताओं के चलते मंत्री पद पाने से वंचित रह गए.
साथ ही सदन में सिंधिया समर्थकों की संख्या कम होने से कहीं न कहीं सिंधिया गुट का कुछ दबाव उस पर कम होगा. उपचुनाव के नतीजों के आधार पर सिंधिया और भाजपा के लिए ऐसा कहना ठीक रहेगा कि न इनमें कोई नुकसान में रहा और न फायदे में.
अगर बात केवल उन 22 कांग्रेसी विधायकों की करें, जिन्होंने कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिराने की नींव रखी थी, तो उनमें 19 सिंधिया समर्थकों के अलावा तीन ऐसे भी थे जो मंत्री पद के लोभ में कांग्रेस छोड़कर आए थे और बाद में मंत्री बनाए भी गए.
उन तीन में से दो जीत पाए जबकि एक की हार हुई है. इस तरह कांग्रेस सरकार के तख्तापलट की नींव रखने वाले 22 में से कुल 15 विधायक वापस जीत दर्ज करने में सफल रहे हैं.
जुलाई माह में जो तीन विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे, वे तीनों जीत गए हैं.
इस तरह भाजपा की वह रणनीति सफल रही जहां उसे डर था कि यदि सिंधिया समर्थक हार भी गए तो वह अन्य कांग्रेसी विधायकों को तोड़कर बहुमत के आंकड़े तक पहुंच जाएगी. इस मामले में भाजपा का स्ट्राइक रेट सौ फीसदी रहा.
वहीं, विधायकों के निधन से खाली हुई तीन सीटों में से दो कांग्रेस और एक भाजपा ने जीती है. खास बात यह है कि दो सीटें कांग्रेसी विधायकों के निधन से ही खाली हुई थीं, जबकि एक सीट भाजपा विधायक के निधन से.
यहां रोचक यह रहा कि कांग्रेस, भाजपा के विधायक मनोहर ऊंटवाल के निधन से खाली हुई आगर-मालवा सीट जीतने में सफल रही, जबकि भाजपा ने कांग्रेस विधायक बनवाली लाल शर्मा के निधन से खाली हुई जौरा सीट जीत ली है.
ब्यावरा सीट कांग्रेसी विधायक के निधन से ही खाली हुई थी और कांग्रेस ने फिर जीत ली. कांग्रेस के नजरिये से देखें तो उसकी सत्ता में वापसी के द्वार 2023 तक के विधानसभा चुनावों तक बंद हो गए हैं.
सत्ता वापसी की संभावना सिर्फ तब ही है जब कांग्रेस भी भाजपा के अंदर इतनी बड़ी फूट पैदा करे, जैसी भाजपा ने कांग्रेस के अंदर पैदा करके उसकी सरकार गिराई थी. लेकिन, वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा संभव नजर नहीं आता है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)